पिछले दिनों एक कार्यक्रम में वरिष्ठ पत्रकार राम बहादुर राय ने यह कह कर कई लोगों को चौंकाया कि मैं संघी नहीं हूं। अशोक वाजपेयी से लेकर पुरुषोत्तम अग्रवाल जैसे वामोन्मुख रुझान वाले लेखक, प्राध्यापक, पत्रकारों के लिए तो वे अब तक संघी ही है। संघी परिचय के साथ कॉमरेड जन के लिए किसी पर हमला करना आसान हो जाता है। वे तो उन मुसलमानों को भी इन दिनों संघी कह देते हैं, जो उनका कहा नहीं मानते। उनके बताए रास्ते पर चलने को तैयार नहीं होते। ऐसे में राम बहादुर राय का यह कहना कि मैं संघी नहीं हूं। खुद को संघी विचारक कहकर समाचार पत्रों और चैनलों में प्रचारक बने कई बुद्धीजीवियों के लिए मुश्किल खड़ी करने वाला था।
श्री राय ने कहा कि संघी होना मेरे लिए थोड़े ऊंचे दर्जे की बात है। मैं विद्यार्थी परिषद से जुड़ा रहा। अब जहां प्रधानमंत्री मोदी के पक्ष में सोशल मीडिया पर दो शब्द लिखकर कोई व्यक्ति संघी होने का तमगा हासिल कर सकता है, वहीं राय साहब ने अपने इतने लंबे सामाजिक जीवन के बाद जब कहा कि वे संघी नहीं है, यह सवाल जरूर सभा में मौजूद लोगों के अंदर उठा होगा कि फिर संघी कौन है? किसे संघी कहा और माना जाए?
आईजीएनसीए के तत्वावधान में वाणी प्रकाशन की उस सभा में प्रश्नोत्तर के लिए समय नहीं रखा गया था, इसलिए यह प्रश्न सभा में अनुत्तरित रहा। अनुत्तरित तो यह प्रश्न भी रहा कि वाणी ने जब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़ी किताबों के प्रकाशन के लिए अपने दरवाजे खोल दिए हैं तो इसका अर्थ है कि उसने थोड़ी वैचारिक नजदीकी महसूस की होगी। गाधी परिवार के शासन के दौरान प्रकाशन क्षेत्र में एक अघोषित आपातकाल था। जहां आरएसएस और उससे वैचारिक नजदीकी रखने वाले लेखकों से बड़े प्रकाशकों का रिश्ता ‘अस्पृश्यता’ का ही था। 2014 के बाद यह छूआछूत मिटा है।
ऐसे में वाणी की तरफ से राष्ट्रवादी किताबों के प्रकाशन के सिलसिले को बढ़ाने की कोशिश के भावार्थ को सरलतापूर्वक समझा जा सकता है। संघ से जुड़ाव की पहल के बीच अब भी मकबूल फिदा हुसैन द्वारा तैयार तस्वीर वाला लोगो वाणी प्रकाशन इस्तेमाल कर रहा है। यह संघ की उदारता है कि माहेश्वरीजी को इस संबंध में किसी ने कभी कोई शिकायत नहीं की।
संघ परिवार और गांधी परिवार की कार्यशैली में यह अंतर साफ दिखाई पड़ता है। बहरहाल यह पोस्ट लिखे जाने तक प्रश्न अनुत्तरित है कि ‘संघी कौन है?’, ‘संघी किसे कह सकते हैं?’