नई दिल्ली: वरिष्ठ पत्रकार पूण्य प्रसून वाजपेयी की माताजी का हाल ही में निधन हो गया। इस दुखद मौके पर उनकी अंतिम यात्रा में अप्रत्याशित रूप से भीड़ का अभाव देखा गया। सोशल मीडिया पर लाखों की संख्या में अनुयायी होने के बावजूद, उस अंतिम घड़ी में पत्रकार अकेले नजर आए, जो जीवन की नश्वरता और मानवीय रिश्तों की सच्चाई को उजागर करता है।
पत्रकारिता जगत में अपनी बेबाक टिप्पणियों और गहरी विश्लेषण शैली के लिए मशहूर पूण्य प्रसून वाजपेयी के यूट्यूब पर 53 लाख और ट्विटर (अब एक्स) पर 26 लाख फॉलोअर्स हैं। उनकी खबरें, विश्लेषण और बहसें डिजिटल दुनिया में लाखों लोगों तक पहुंचती हैं। लेकिन जब उनकी माताजी की चिता सजाई गई, तब वह भीड़ गायब थी, जो सोशल मीडिया पर उनकी हर पोस्ट पर तालियां बजाती है। अंतिम संस्कार के उस पल में केवल कुछ करीबी लोग ही उनके साथ थे, जो इस बात की ओर इशारा करता है कि डिजिटल दुनिया की भीड़ और वास्तविक जीवन के रिश्तों में कितना अंतर है।
यह दृश्य न केवल पत्रकार के निजी दुख को दर्शाता है, बल्कि समाज के उस कड़वे सच को भी सामने लाता है, जहां लोग डिजिटल मंचों पर तो जुड़ते हैं, लेकिन वास्तविक जीवन में दुख की घड़ी में कंधा देने वाले कम ही होते हैं। पूण्य प्रसून, जिनकी आवाज़ लाखों लोगों तक पहुंचती है, उस पल में अकेले खड़े थे, जब उनकी माँ की अंतिम यात्रा निकली। यह घटना हमें सोचने पर मजबूर करती है कि क्या सोशल मीडिया की तालियां और फॉलोअर्स वास्तव में जीवन के कठिन क्षणों में साथ दे सकते हैं?
जिंदगी का यह कटु सत्य याद दिलाता है कि आंकड़ों की गिनती और डिजिटल लोकप्रियता से ज्यादा महत्वपूर्ण हैं वे लोग, जो मुश्किल वक्त में आपके साथ खड़े होते हैं। पूण्य प्रसून वाजपेयी की माताजी को श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए समाज को यह संदेश मिलता है कि रिश्तों की गर्माहट ही जीवन का असली आधार है।