महेंद्र शुक्ला
कानपुर। जब देश आजाद हुआ एक श्रेय लूटने और महिमामंडन का आभियान चला जिसे हमे”दे दी हमे आज़ादी…… बिना ढाल,” के नाम से पढ़ाया जाता है, गाया जाता है,इस अभियान ने तमाम नायको को गुमनामी के भेट चढ़ा दिया और एक ऐसी पीढ़ी तैयार करने की योजना बनाई जो अतीत से अनभिज्ञ हो और अनभिज्ञ भीड़ उनको देवी देवता की तरह पूजती रहे जब भी आजादी जैसा कोई शब्द सुने तो वो इनका ही नाम जाने मै प्रयास करुंगा के कुछ ऐसे ही नायकों के नाम लेख द्वारा सामने ला सकू जो षड्यंत्र पूर्वक हम से दूर कर दिए गए, हम सदा इन नायकों के ऋणी रहेंगे इन्हीं में से एक दुर्गा भाभी
हर बार 7 अक्टूबर की तारीख बिना उन्हें याद किए गुजर जाती है? वीरांगना परम आदरणीय, दुर्गा भाभी तथाकथित सुनहरे इतिहास के पन्नों में लुप्तप्राय एक सुनहरा व्यक्तित्व है।
जीवन का नाम ही संघर्ष रख देनी वाली इस वीरांगना को ना तो हमारे इतिहास के पन्नों पर उचित स्थान दिया गया और ना ही इनके बलिदान को वो सम्मान मिल सका, जिनके ये अधिकारी थी
उनका व्यक्तिव धीरे-धीरे हमारे सुनहरे इतिहास की चमक से पीछे विस्मृति के गर्भ में समाते से जा रहा है!
‘दुर्गा भाभी’ का वास्तविक नाम था-दुर्गावती देवी। उनका जन्म 7 अक्टूबर 1907 में शहजादपुर ग्राम में पण्डित बांके बिहारी के यहां हुआ था। दुर्गावती का विवाह भगवती चरण वोहरा के साथ हुआ। दुर्गावती के पिता इलाहाबाद कलेक्ट्रेट में नाज़िर थे और उनके ससुर शिवचरण जी रेलवे में ऊँचे पद पर तैनात थे।
पति वोहरा क्रन्तिकारी संगठन एच. एस. आर. ए. के प्रचार सचिव थे। दिल्ली के क़ुतुब रोड में स्थित घर में, वोहरा, विमल प्रसाद जैन के साथ बम बनाने का काम करते थे, जिसमें दुर्गा भी उन लोगों की सहायता करतीं। प्रारंभिक दिनों में दुर्गा भाभी सूचना एक स्थान से दूसरे स्थान ले जाने और बम के सामान को लाने पहुँचाने का भी काम करती थीं।
16 नवम्बर, 1926 में लाहौर में नौजवान भारत सभा द्वारा भाषण का आयोजन किया गया, जहां दुर्गावती नौजवान भारत सभा की सक्रिय सदस्य के तौर पर सामने आयीं। वह अद्भुत योजना-निर्मात्री थीं, जिनकी योजना कभी-भी असफल नहीं होती थी।
भगवती चरण कलकत्ता में ही थे कि 17 दिसंबर, 1928 को लाला लाजपत राय पर जेम्स एंडरसन स्काट के आदेश से लाठी चलाने वाले अंग्रेज पुलिस अधिकारी जॉन सांडर्स का वध कर दिया गया। ब्रिटिश सरकार ने लाहौर पर तरह-तरह की पाबंदियां थोप दीं।
दुर्गा भाभी अपने तीन वर्षीय अबोध पुत्र के साथ घर पर अकेली थीं कि देर रात किसी ने उनके घर की कुंडी धीरे से खटखटाई। दरवाजा खोला तो भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु सामने खडे़ थे। उन्हें समझते देर न लगी कि सांडर्स का वध इन्हीं का काम है।
उन्होंने इन लोगों को अपने घर में पनाह दी, पर इतना पर्याप्त न था। उन्हें मालूम था कि जब घर-घर तलाशी ली जा रही हो, तब आज नहीं तो कल पुलिस वहां भी आ धमकने वाली है। भगत सिंह और उनके साथियों के पकड़े जाने का मतलब होता क्रांति की उफनती धारा का थम जाना।
अनिश्चितता के उन्हीं लम्हों में दुर्गावती वोहरा ने एक अत्यंत साहसिक निर्णय लिया। वह भगत सिंह की पत्नी का स्वांग धर उन्हें लाहौर से सुरक्षित बाहर निकाल ले गईं। भगत सिंह अगर उस दौरान जिंदा बच सके तो उसके पीछे दुर्गावती का दृढ़ निश्चय और असीम साहस था।
उनके पतिदेव जो धन गाढ़े समय के लिए उन्हें सौंप गए थे, वह भी क्रांतिकारियों की राह सुगम करने में खर्च हो गया। उन दिनों पांच हजार की रकम बहुत बड़ी राशि मानी जाती थी।
63 दिनों तक भूख हड़ताल करनेवाले जातिंद्र नाथ दास की जेल में ही बलिदान हो गए थे। ये दुर्गा देवी ही थीं, जिन्होंने लाहौर में साहस कर उनका अंतिम संस्कार करवाया।
भगवती चरण ने उन्हें बंदूक चलाना सिखाया था। 8 अक्तूबर, 1930 को उन्होंने दक्षिण बंबई के लैमिंग्टन रोड पर स्थित पुलिस स्टेशन के आगे एक ब्रिटिश पुलिस सार्जेंट और उसकी पत्नी पर गोली चला दी थी। यह कदम उन्होंने भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को एक दिन पहले सुनाई गई फांसी की सजा के प्रतिकार में उठाया था।
उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और पंजाब के पूर्व राज्यपाल लार्ड हैली को मारने की साजिश रच डाली, जो क्रांतिकारियों का बड़ा दुश्मन था। 1 अक्टूबर,1931 को बंबई के लेमिंग्टन रोड पर दुर्गावती ने साथियों के साथ मिलकर हैली की गाड़ी को बम से उड़ा दिया, जिसके बाद पूरी ब्रिटिश पुलिस दुर्गावती की तलाश में जुट गई।
लेकिन वे दुर्गावती को खोज नहीं पाए, 8 अक्टूबर को उन्होंने दक्षिण बॉम्बे में पुनः लैमिंगटन रोड पर खड़े हुए एक ब्रिटिश पुलिस अधिकारी पर हमला किया। यह पहली बार था जब किसी महिला को ‘इस तरह से क्रन्तिकारी गतिविधियों में शामिल’ पाया गया था।
ब्रिटिश सरकार के लिए यह बडे़ आश्चर्य की बात थी कि कोई महिला इतनी साहसी कैसे हो सकती है? फलस्वरूप सारा अमला उनके पीछे लग गया और वह अंतत: सितंबर 1932 में गिरफ्तार कर ली गईं।
इस बीच दो साल पहले भगवती चरण वोहरा रावी नदी के तट पर बम बनाते समय हुए विस्फोट में बलिदान हो चुके थे। दुर्गा भाभी को उनके आखिरी दर्शन तक नसीब नहीं हुए थे, पर अपने स्वर्गीय पति की प्रेरणा को उन्होंने मरते समय तक संजोए रखा।
भारत की स्वतंत्रता में उनका केवल यही योगदान नहीं था। सन् 1939 में, उन्होंने मद्रास में मारिया मोंटेसरी (इटली के प्रसिद्ध शिक्षक) से प्रशिक्षण प्राप्त किया। एक साल बाद, उन्होंने लखनऊ में उत्तर भारत का पहला मोंटेसरी स्कूल खोला। इस स्कूल को उन्होंने पिछड़े वर्ग के पांच छात्रों के साथ शुरू किया था।
स्वतंत्रता के बाद के वर्षों तक दुर्गा देवी लखनऊ में गुमनामी की ज़िन्दगी जीती रहीं। 15 अक्टूबर, 1999 को 92 साल की उम्र में वे इस दुनिया को अलविदा कह गयीं ।
सदा यही होता आया है कि हमारा इतिहास उन महिलाओं उन नायकों के बलिदान और उनकी बहादुरी को सदैव भूल सा जाता है जिन्होंने तत्कालीन सत्ताधारियों की चाटुकारिता कभी नहीं की। अनेक ऐसी वीरांगनाएं सदैव छिपी ही रह जाती हैं। दुर्गा देवी वोहरा भी उन्हीं वीरांगनाओं में से एक हैं।