विरासत की राख में जलता आगरा: जहां ताज के साये में अव्यवस्था का साम्राज्य

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Caption: Times of India

आगरा । कभी यमुना के किनारे ताजमहल की परछाईं देखकर मिर्ज़ा ग़ालिब, नजीर अकबराबादी टाइप कवि गुनगुनाते थे—आज वही किनारा बदबूदार झाग, धूल और ट्रैफिक के सैलाब में डूबा पड़ा है।

जिस आगरा को दुनिया रोमांस, स्थापत्य और मुगलिया नफासत के प्रतीक के रूप में जानती थी, वह अब बेतरतीब इमारतों, ध्वस्त सड़कों और कंक्रीट के कबाड़खाने के बीच अपनी पहचान बचाने की जद्दोजहद में है।

यह वही शहर है जो कभी तीन विश्व धरोहरों—ताजमहल, आगरा किला और फतेहपुर सीकरी—के गर्व से दमकता था। जहां यमुना के घाटों से आरती की गूंज उठती थी और मुगल बागों में बहारें उतरती थीं। मगर अब आगरा किसी योजनाबद्ध शहर जैसा नहीं, बल्कि एक ऐसा अखाड़ा लगता है जहां विकास बिना नक्शे के कुश्ती लड़ रहा है।

नगर निगम, एडीए, ताज ट्रेपेज़ियम ज़ोन, प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड, एएसआई, जिला बोर्ड और पर्यटन विभाग—हर संस्था अपनी रस्सी अलग दिशा में खींच रही है। परिणाम यह है कि शहर की आत्मा खंडित हो रही है, और प्रशासन की आंखों के सामने इसकी ऐतिहासिक सुंदरता दिन-ब-दिन मिटती जा रही है।

“शहर का नक्शा बनाते वक्त कोई यह नहीं सोचता कि आगरा सिर्फ मकानों का समूह नहीं, बल्कि संस्कृति की जीवित प्रयोगशाला है,” कहते हैं एक रिटायर्ड टाउन प्लानर। वहीं पर्यावरणविद् डॉ. देवाशीष भट्टाचार्य इसे विकास नहीं, बल्कि “अराजक निर्माण” की संस्कृति बताते हैं—जहां न शहरी सौंदर्य का ख्याल है, न यातायात का, न हरियाली का।

आगरा की हालत आज ऐसी है मानो तीन अलग-अलग युग एक साथ सांस ले रहे हों—एक मुगलिया विरासत का, दूसरा उपेक्षित औपनिवेशिक ढांचे का, और तीसरा आधुनिकता के नाम पर बेतरतीब निर्माण का।

लोक स्वर संस्था के अध्यक्ष राजीव गुप्ता कहते हैं, “अगर अकबर आज सिकंदरा से आगरा किले की ओर पैदल निकलें, तो उन्हें रास्ता पूछने की जरूरत नहीं पड़ेगी।” जाम में फंसकर उनका मेकअप जरूर खराब हो सकता है!

ताजगंज से बल्केश्वर तक सड़कों पर जाम की स्थायी परत है, बिजली के खंभे हवा में झूल रहे हैं और यमुना—जो कभी शहर की आत्मा थी—अब काले झाग और रासायनिक कचरे की कब्रगाह बन चुकी है।

बायोडायवर्सिटी विशेषज्ञ डॉ. मुकुल पांड्या बताते हैं कि यमुना के किनारे के घाट और मुगल बाग़, जिनका ज़िक्र तुज़ुक-ए-जहांगीरी से लेकर ब्रिटिश गज़ेटियर तक में मिलता है, अब इतिहास के पन्नों में सिमट गए हैं। “विदेशी सैलानी ताज देखने आते हैं, लेकिन उन्हें वह ताजगी नहीं मिलती जो इस शहर की आत्मा हुआ करती थी,” वे कहते हैं।

एडीए (आगरा डेवलपमेंट अथॉरिटी) के लिए प्राथमिकता अब नई कॉलोनियां और बिल्डिंग प्रोजेक्ट्स हैं, न कि पुराने शहर का संरक्षण या पुनरुद्धार। कोई दीर्घकालिक विज़न नहीं दिखता। डॉ. एस. वर्धराजन कमेटी की 20 सिफारिशों में साफ़ कहा गया था कि ताजमहल के 10 किलोमीटर के दायरे में ऊंची इमारतें न बनाई जाएं, पर एडीए ने वहीं अपने प्रोजेक्ट्स लॉन्च कर दिए।

करोड़ों रुपये शिल्पग्राम से ताजमहल मार्ग की ‘सजावट’ पर खर्च हुए, पर मुगल-शैली की लाइटें और साइकिल ट्रैक गायब हो गए। पांच साल पहले खुले चौपाटी क्षेत्र को अब जंग लगी झूलों और बंद दुकानों ने घेर लिया है।

विरासत के संरक्षण की जगह दृश्य प्रदूषण ने ले ली है—हर सड़क पर चमकदार होर्डिंग्स, बेतरतीब बोर्ड और टेढ़े-मेढ़े बिजली के तार।

पर्यावरण कार्यकर्ता रंजन शर्मा का कहना है, “आगरा में जो हो रहा है, वह विकास नहीं, दृश्य प्रदूषण है। शहर अपने आप को धीरे-धीरे खत्म कर रहा है। ताज और इसके आसपास के इलाके को बचाने के लिए सिर्फ शिकायत नहीं, सामूहिक संघर्ष की जरूरत है।”

एम.जी. रोड, बाईपास रोड, यमुना किनारा रोड—हर ओर वही कहानी है: टूटी सड़कें, धूल का साम्राज्य और प्रशासन की बेरुखी।

आगरा के पास न तो कोई स्पष्ट मास्टर प्लान है, न कोई दीर्घकालिक नीति। विरासत सलाहकार समिति या अर्बन आर्ट्स पैनल जैसी कोई प्रभावी संस्था यहां मौजूद नहीं। अगर लंदन की तरह ‘सिटी डिज़ाइन रिव्यू बोर्ड’ बनाया जाए, तो हर नई परियोजना को विरासत के सौंदर्य और दृष्टिगत सामंजस्य के आधार पर परखा जा सकता है। फिलहाल अफसर अपनी मर्जी के नक्शे खींचते हैं, और बिल्डर-कब्जेदार लॉबी उन पर बस हस्ताक्षर करा लेती है।
साल 2003 में मायावती सरकार द्वारा प्रस्तावित ‘ताज हेरिटेज कॉरिडोर’ जैसी विवादास्पद योजनाएं दिखाती हैं कि सत्ता ने आगरा की नाजुक सुंदरता को बार-बार प्रयोगशाला बना लिया।

यहां तक कि एक बार ताजमहल के पास लंदन जैसी फेरिस व्हील लगाने की योजना भी बनी थी—जिसे जनता के विरोध के बाद रोकना पड़ा।
आगरा अब एक जागरूक नागरिक आंदोलन का इंतेज़ार कर रहा है। शहर के पार्षदों और नागरिक संगठनों को निर्णय प्रक्रिया में शामिल किया जाए, वरना विकास का हर दावा खोखला साबित होगा।वर्तमान व्यवस्था में एडीए पूरी तरह अबूझ और अहंकारी तंत्र बन चुका है—लोग अब मज़ाक में इसे “आगरा डिस्ट्रक्शन एजेंसी” कहने लगे हैं।

लोकतंत्र की आत्मा तभी जीवित रहती है जब शहरी विकास में जनता की आवाज़ सुनी जाए। आगरा के पास इतिहास है, संस्कृति है, पर अब ज़रूरत है दूरदृष्टि की—वरना यह शहर सिर्फ स्मारकों के बीच दम तोड़ती याद बन जाएगा।

फिलहाल आगरा में जो हो रहा है, वह विरासत का धीरे-धीरे क्षरण है। यह वही शहर है जिसने शाहजहां की कल्पना को ताजमहल में ढाला, अकबर की दूरदर्शिता को फतेहपुर सीकरी में जीवित किया, और जहां यमुना की लहरों में कभी स्थापत्य का प्रतिबिंब झलकता था।

पर आज यह सब धुंधला हो गया है—धुएं, धूल और लालच की मोटी परतों में।

ताज के साये में बस एक सवाल तैर रहा है, क्या यह शहर अपनी ही विरासत के बोझ तले दबकर खत्म हो जाएगा, या एक दिन फिर यमुना किनारे से वो आवाज़ उठेगी आगरा जागेगा, आगरा चमकेगा।

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Brij Khandelwal

Brij Khandelwal

Brij Khandelwal of Agra is a well known journalist and environmentalist. Khandelwal became a journalist after his course from the Indian Institute of Mass Communication in New Delhi in 1972. He has worked for various newspapers and agencies including the Times of India. He has also worked with UNI, NPA, Gemini News London, India Abroad, Everyman's Weekly (Indian Express), and India Today. Khandelwal edited Jan Saptahik of Lohia Trust, reporter of George Fernandes's Pratipaksh, correspondent in Agra for Swatantra Bharat, Pioneer, Hindustan Times, and Dainik Bhaskar until 2004). He wrote mostly on developmental subjects and environment and edited Samiksha Bharti, and Newspress Weekly. He has worked in many parts of India.

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