पुनीत बिसारिया
कम से कम मैं उस युग में पैदा नहीं हुआ था, जब छोटे टीवी के आकार का बिजली से चलने वाला रेडियो हुआ करता था, लेकिन ऐसा रेडियो मेरे पिता को उनके विवाह पर मिला था, जिसे देखने का सौभाग्य मुझे प्राप्त है। बाद में आए छोटे ट्रांजिस्टर पर हवा महल, फिल्मी गीत और समाचार खूब सुने। बीबीसी और वॉइस ऑफ अमेरिका तथा जर्मनी से आने वाला हिंदी बुलेटिन भी सुना। बाद में पी-एच. डी. करते हुए सन 1996 से 1998 तक आकाशवाणी लखनऊ पर युववाणी कार्यक्रम बतौर उद्घोषक प्रस्तुत करने का सौभाग्य भी मिला। उस समय रमा अरुण त्रिवेदी आकाशवाणी लखनऊ में युववाणी कार्यक्रम देखती थीं और उन्होंने ही मेरा ऑडिशन लिया था। यह वह दौर था जब एफ एम चैनलों का आगमन शुरू हो गया था और पारंपरिक आकाशवाणी को कुछ नया करने की ज़रूरत महसूस की जा रही थी।
आलोक राजा, जो आज देश के जाने माने टीवी एंकर हैं, उनके साथ मिलकर हमने उस समय अनेक नए और विचारोत्तेजक विषयों पर युववाणी के कार्यक्रम प्रस्तुत किए। उस समय शाम सवा पांच बजे से शाम छह बजे तक आने वाले इस युवाओं पर आधारित कार्यक्रम के लिए हम लोग सुबह 10 बजे से ऑन एयर होने तक तैयारी किया करते थे। उस समय राजुल अशोक जी के साथ मिलकर भी कई कार्यक्रम प्रस्तुत किए थे। आज मुझे यह स्वीकार करने में कोई संकोच नहीं है कि मेरा उच्चारण साफ करने में आकाशवाणी लखनऊ और रमा मैडम का बड़ा योगदान है क्योंकि वे ऑन एयर जाने से पहले एक एक वाक्य को हम लोगों से सुनती थीं और गलतियां दुरुस्त करती थीं। हालांकि कुछ दिनों के बाद ही उन्होंने कहना शुरू कर दिया कि आप लोग केवल लिखित मैटर दिखा दिया कीजिए, शेष आप लोग स्वयं सही उच्चारण करेंगे, ऐसा मेरा विश्वास है। आज विश्व रेडियो दिवस के अवसर पर रेडियो से जुड़ी पुरानी यादें एक बार फिर से ताज़ा हो गईं।