वृंदावन की आत्मा बुलडोजर के निशाने पर: वृंदावन धाम को टूरिस्ट स्पॉट क्यों बनाया जा रहा है?

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मथुरा। वृंदावन की आत्मा हौले हौले मर रही है। श्री कृष्ण की पावन लीला भूमि, जहाँ कभी बाँसुरी की तान गूँजती थी, आज कंक्रीट के जंगल और भ्रष्टाचार की चीखों में दम तोड़ रही है। यह कोई प्राकृतिक आपदा नहीं, बल्कि एक सुनियोजित साजिश लगती है-सरकार की वह नीति, जो वृंदावन को आध्यात्मिक धाम से चकाचौंध भरे टूरिस्ट स्पॉट में बदलने पर तुली है। यह प्रगति नहीं, बल्कि पवित्रता का निर्मम विनाश है। सवाल यह नहीं कि वृंदावन क्यों बदल रहा है-सवाल यह है कि सरकार इस पवित्र धरती की आत्मा को कुचलने पर क्यों आमादा है?

वह वृंदावन कहाँ गया, जिसे भागवत पुराण में कृष्ण की लीला भूमि कहा गया? वह धरती जहाँ यमुना की लहरें भक्तों के पाप धोती थीं, जहाँ कदम्ब के वृक्षों की छाँव में गोपियाँ नाचती थीं, जहाँ ब्रज की धूल को माथे पर लगाना तीर्थयात्रियों का गर्व था? आज वह सब खतरे में है। यमुना, जो कभी देवी कहलाती थी, अब एक जहरीली नाली बनकर रह गई है। उसका जल काला पड़ चुका है, औद्योगिक कचरे और सीवेज से भरा हुआ। घाट, जहाँ संध्या आरती की धुन गूँजती थी, अब टूटे-फूटे हैं या बिल्डरों के कब्जे में। बाढ़ के मैदानों पर अवैध कॉलोनियाँ और सरकारी मंजूरी वाले होटल खड़े हो गए हैं। वृंदावन की हरियाली-वो वन, वो उपवन—अब कंक्रीट के टावरों और पाँच सितारा आश्रमों की चपेट में हैं।
आकाश, जो कभी मंदिरों के शिखरों से सजा था, अब ऊँची-ऊँची इमारतों की भेंट चढ़ चुका है। ब्रज की वह पवित्र धूल, जिसे देवता भी पूजते थे, अब प्लास्टिक, मलबे और गंदे पानी से दब गई है। हर गली-नुक्कड़ पर कूड़े के ढेर और दिखावटी सौंदर्यीकरण की परियोजनाएँ—नियॉन लाइट्स, पत्थर की पट्टियाँ, फव्वारे—भ्रष्टाचार की गंध फैलाती हैं। यह वृंदावन नहीं, बल्कि एक व्यावसायिक जाल है, जो भक्तों की आस्था को लूटने के लिए बिछाया गया है।

सबसे बड़ा घाव है तथाकथित “वृंदावन कॉरिडोर”। यह कॉरिडोर किसके लिए? भक्तों ने तो इसकी माँग नहीं की थी। स्थानीय मंदिर समुदायों से सलाह तक नहीं ली गई। वाराणसी और उज्जैन की तर्ज पर बन रही इस परियोजना के नाम पर सदियों पुराने मंदिरों को ध्वस्त करने की योजनाएं बताई जा रही हैं। उनकी संपत्ति हड़पने की धमकी दी जा रही है। क्या यह विकास है, या वृंदावन की सांस्कृतिक और आध्यात्मिक पहचान का चुपके से विनाश? स्थानीय लोग, संत और मंदिर संगठन सड़कों पर हैं। विरोध प्रदर्शन गूँज रहे हैं। यहाँ तक कि भाजपा सांसद हेमा मालिनी, जो पहले इस परियोजना की समर्थक थीं, अब खुद को शक्तिशाली लॉबी के जाल में फँसा पा रही हैं।

विडंबना यह है कि जो सरकार वृंदावन की विरासत को बचाने का दावा करती है, वही उसे रौंद रही है। अगर सरकार को सचमुच इस धाम की परवाह होती, तो वह यमुना को साफ करती। वनों को पुनर्जनन देती। घाटों को पुनर्जनन देती। वृंदावन को वाहन-मुक्त क्षेत्र बनाती, गोल्फ कार्ट जैसे पर्यावरण-अनुकूल साधनों को बढ़ावा देती। स्थानीय लोगों को उनके भविष्य का फैसला करने का हक देती। लेकिन इसके बजाय, हम एक धीमी हत्या देख रहे हैं। लालच और अदूरदर्शिता का कालिया नाग फिर से सिर उठा रहा है।

वृंदावन की आत्मा आज रो रही है। कृष्ण के पदचिह्नों वाली माटी, यमुना की लहरों में गूँजती मुरलियाँ, भक्तों के जयकारे—सब कुछ दम तोड़ रहा है। सरकारी फाइलों में इसे “विकास” का नाम दिया जा रहा है, लेकिन जमीनी हकीकत में यह ब्रज की आत्मा पर हमला है। सवाल उठता है: क्या सरकार वृंदावन को बचाना चाहती है, या व्यवसाय के लिए बेचना? क्या कृष्ण की इस लीला भूमि को कंक्रीट के जंगल में तब्दील करना ही हमारा भाग्य है? यह सिर्फ वृंदावन का सवाल नहीं—यह हमारी आस्था, हमारी संस्कृति और हमारे इतिहास का सवाल है। अगर आज हम चुप रहे, तो कल वृंदावन सिर्फ एक टूरिस्ट स्पॉट बनकर रह जाएगा— क्या यही ब्रज मंडल की नियति है?

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Brij Khandelwal

Brij Khandelwal

Brij Khandelwal of Agra is a well known journalist and environmentalist. Khandelwal became a journalist after his course from the Indian Institute of Mass Communication in New Delhi in 1972. He has worked for various newspapers and agencies including the Times of India. He has also worked with UNI, NPA, Gemini News London, India Abroad, Everyman's Weekly (Indian Express), and India Today. Khandelwal edited Jan Saptahik of Lohia Trust, reporter of George Fernandes's Pratipaksh, correspondent in Agra for Swatantra Bharat, Pioneer, Hindustan Times, and Dainik Bhaskar until 2004). He wrote mostly on developmental subjects and environment and edited Samiksha Bharti, and Newspress Weekly. He has worked in many parts of India.

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