रायपुर : यह बात वर्ष 2018 की है, सुकमा जिले के अंतर्गत आने वाले कुंदनपाल गाँव के उन्नीस वर्षीय छात्र कुंजामी शंकर की अपहरण के पश्चात माओवदियों ने बहुत ही निर्ममता से हत्या कर दी थी। किशोर तथा नव-युवक छात्रों की हत्या करना माओवादियों के लिए बहुत आम है, ऐसी हत्याएं कुंजामी शंकर से पहले भी होती रहीं हैं, समय बदल कर आज वर्ष 2025 हो चला है और अब भी क्या बदला है?
17 जून, 2025 को माओवादियों ने बीजापुर जिले के पेदाकोरमा गाँव से अनेक ग्रामीणों को अगवा किया, सभी के साथ अमानवीय रूप से मारपीट की गयी और तीन लड़कों जूंगू मोडियम, सोमा मोडियम और अनिल मांडवी की हत्या कर दी। माओवादियों ने जिनकी हत्या की वे स्कूली छात्र थे और एक तो केवल तेरह वर्ष का बालक था।जिन बंधकों को छोड़ा गया उनमें से अधिकांश किशोर थे, उन्हें आगे से स्कूल न जाने की हिदायत माओवादियों द्वारा दी गई है। सोचिए कि वह कौन की क्रांति है जो तेरह-चौदह वर्ष के किशोरों की आहूति मांग रही है? हत्या भी रस्सी से गला घोंट कर की गयी, अपराध यह कि इनका एक परिजन पूर्व-माओवादी था और आत्मसमर्पण कर चुका है। एक बार के लिए मान लेते हैं कि ये मारे गए बालक पुलिस के मुखबिर थे या ऐसा ही कोई अन्य कार्य उन्होंने किया जिसे माओवादी अपराध मानते हैं तो भी उनकी निर्मम हत्या करने का अधिकार कैसे प्राप्त हो जाता है? दुनिया का कौन सा कानून इतना अमानवीय है कि अल्पव्ययस्कों को मौत की सजा देता है? क्या यही कार्ल मार्क्स के सपने का रास्ता और माओत्से तुंग का तौर तरीका है?
बात एक बार फिर नैरेटिव की करूंगा क्योंकि इस समय हमारा देश सोनम ने अपने पति की हत्या क्यों की, इस प्रश्न में उलझा हुआ है। वही देश यह क्यों नहीं जानना चाहता कि कुंजामी शंकर को क्यों मारा गया या कि जूंगू मोडियम, सोमा मोडियम और अनिल मांडवी की हत्या क्यों और किस तरह की गयी? थोड़ा दिमाग पर जोर डालिये, याद कीजिए दक्षिण भारत के विश्वविद्यालय में पढने वाले एक छात्र ने आत्महत्या की थी, तब देश संवेदित ही नहीं, उग्र और आंदोलित भी हो उठा था। दिल्ली के एक विश्वविद्यालय का छात्र लापता हुआ था, सारा देश एक स्वर में उठ खडा हुआ। ये प्रकरण निश्चय ही आन्दोलित होने का समुचित आधार हैं, यदि हम अपने छात्रों के पक्ष में नहीं खडे हैं तो फिर देश के भविष्य को अंधेरा ही मानिये।….अब सोचिये कि यही देश माओवादियों द्वारा बस्तर में सतत मारे जा रहे किशोर छात्रों के पक्ष में क्यों नहीं खडा हैं? माओवादियों द्वारा की जाने वाली ऐसी नृशंसतम हत्याओं में ऐसी क्या विशेषता है कि उनपर खामोशी पसरी रहती है?
इस प्रश्न का उत्तर कुनैन की तरह कड़वा है और शहरी नक्सलवाद का मर्म है। यह देश किस हैडलाईन से संचालित होगा इसका निर्णय लेने वाले अधिकांश मष्तिष्क लाल हैं। आत्महंता वैमुला पर खबर वैश्विक हो जाएगी लेकिन कुंजामी शंकर पर चुप्पी और घनघोर चुप्पी। दिल्ली के लापता छात्र पर पूरी शिक्षा व्यवस्था कटघरे में होगी, लेकिन जिन छात्रों को आगे से स्कूल न जाने की धमकी माओवादियों ने दी है उस संदर्भ पर बात करने से बचना ही प्रगतिशीलता है। रायपुर के अखबार तो ऐसी घटनाओं पर बीच के किसी पन्ने में “तीन ग्रामीणों की मौत” कह कर इतिश्री कर भी लेते हैं लेकिन दिल्ली सोनम से जब जब फुरसत पाती है वह तत्क्षण गाजा के आँसू पोंछने निकल पड़ती है। सोचिए कि सच पर इतना कोहरा क्यों है? सोचिए कि यह देश देश गूंगा-बहरा क्यों है?