डॉ पंकज शर्मा
दिल्ली । राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) के ताज़ा आंकड़े देश कीराजधानी दिल्ली के सामने खड़े गंभीर मानसिक स्वास्थ्य संकट कीचौंकाने वाली तस्वीर पेश करते हैं। वर्ष 2023 में दिल्ली में 3,131 लोगों नेआत्महत्या का रास्ता चुना। इससे भी अधिक चिंताजनक बात यह है किइनमें से आधे से अधिक (1,590 लोग) ऐसे थे जिनकी मासिक आय₹8,300 से कम थी, जबकि 765 पूर्णतः बेरोजगार थे। ये आंकड़े केवलएक शहर तक सीमित नहीं हैं, बल्कि पूरे देश में युवाओं के बीच फैली एकविकट मानसिक स्वास्थ्य महामारी की ओर इशारा करते हैं।
इस समस्या की जड़ें केवल आर्थिक क्षेत्र तक सीमित नहीं हैं, बल्कि यहसामाजिक, मनोवैज्ञानिक और पारिवारिक कारकों का एक जटिल जालहै। जब आय मूलभूत आवश्यकताओं—रोटी, कपड़ा, मकान—को पूराकरने में भी असमर्थ हो, तो व्यक्ति स्वयं को समाज पर बोझ समझनेलगता है। NCRB के आंकड़े स्पष्ट करते हैं कि गरीबी और आत्महत्या केबीच सीधा संबंध है। आज के समाज में नौकरी या पेशा केवलआजीविका का साधन नहीं, बल्कि व्यक्ति की पहचान और आत्म-मूल्यका प्रतीक बन गया है। ऐसे में नौकरी छूटना या लंबे समय तक बेरोजगाररहना केवल आर्थिक नुकसान नहीं, बल्कि आत्म-सम्मान को गहरा ठेसपहुँचाने वाली घटना है। व्यक्ति स्वयं को अयोग्य और असफल माननेलगता है।
भारत में मानसिक स्वास्थ्य को लेकर अब भी गहरी गलतफहमियाँ औरकलंक का वातावरण है। इसे कमजोरी या “नाटक” समझा जाता है। यहसमस्या निम्न आय वर्ग में और भी विकट है, जहाँ “डिप्रेशन” जैसीसमस्याओं को लक्जरी माना जाता है और रोजी-रोटी के संघर्ष के आगेइसे महत्वहीन समझा जाता है। देश में मानसिक स्वास्थ्य पेशेवरों(मनोचिकित्सक, मनोवैज्ञानिक) की भारी कमी है। साथ ही, निजी थेरेपीया काउंसलिंग की लागत आम आदमी की पहुँच से बाहर है। सोशलमीडिया ने एक ‘परफेक्ट लाइफ’ का ऐसा अवास्तविक चित्र पेश किया हैजिसने युवाओं में हमेशा ‘हैप्पी’ और ‘सक्सेसफुल’ दिखने का दबाव पैदाकर दिया है। दूसरों की सफलताओं और विलासिता से लगातार तुलनाहोती रहती है, जो हीनभावना, अकेलापन और असंतोष को जन्म देती है।
हमारे समाज ने सफलता की परिभाषा को केवल अच्छे अंक, उच्च वेतनवाली नौकरी और भौतिक संपत्ति तक सीमित कर दिया है। इसकेविपरीत, कला, खेल, या सामाजिक कार्यों जैसे वैकल्पिक रास्तों को कममहत्व दिया जाता है। इस वजह से जो युवा इस संकीर्ण परिभाषा पर खरेनहीं उतर पाते, वे स्वयं को नाकाफ़ी समझने लगते हैं। इसके साथ हीअधिकांश परिवारों में बच्चों से केवल उनकी शैक्षणिक या पेशेवरउपलब्धियों के बारे में पूछा जाता है, न कि उनके मन की भावनाओं, डर, यातनाव के बारे में। भावनात्मक बातचीत का अभाव युवाओं को अंदर हीअंदर खोखला कर देता है। माता-पिता द्वारा थोपी गई अपेक्षाएँ, जैसेइंजीनियर या डॉक्टर बनने का दबाव, युवाओं पर एक अदृश्य बोझ बनजाती हैं। उनकी अपनी रुचियों और क्षमताओं को नजरअंदाज कर दियाजाता है।
इस जटिल समस्या का समाधान केवल सरकारी नीतियों तक सीमित नहींहो सकता। इसके लिए एक सामूहिक सामाजिक प्रयास की आवश्यकताहै। शैक्षणिक संस्थानों में नियमित मानसिक स्वास्थ्य जांच, काउंसलिंगसेल और जागरूकता कार्यशालाएँ अनिवार्य होनी चाहिए। छात्रों को तनावप्रबंधन और भावनाओं में लचीलापन लाना सिखाना आवश्यक है। इसकेसाथ ही सरकार को प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों (PHC) पर मानसिकस्वास्थ्य सेवाओं को एकीकृत करना चाहिए और मनोवैज्ञानिक सहायताको हेल्थ इंश्योरेंस के दायरे में लाना चाहिए ताकि यह सेवाएँ सस्ती औरसुलभ हो सकें। मानसिक स्वास्थ्य हेल्पलाइन नंबर (जैसे- ‘किरण’ हेल्पलाइन 1800-599-0019) का व्यापक प्रचार करना चाहिए ताकिजरूरतमंद व्यक्ति बिना झिझक मदद ले सकें। सरकारी योजनाओं कोकेवल डिग्री तक सीमित न रहकर, उद्योगों की मांग के अनुरूप व्यावहारिककौशल विकसित करने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। युवाओं कोस्टार्ट-अप शुरू करने के लिए वित्तीय सहायता, मेंटरशिप और नेटवर्किंग केअवसर उपलब्ध कराने होंगे। इससे न केवल रोजगार सृजित होंगे बल्कियुवाओं में नवाचार की भावना भी जागेगी। निजी और सार्वजनिक क्षेत्र मेंकर्मचारियों के मानसिक स्वास्थ्य के लिए अनुकूल वातावरण बनाना, अत्यधिक कार्यभार को कम करना और वर्क-लाइफ बैलेंस को बढ़ावा देनाजरूरी है।
समाज और समुदाय को एक ‘सुरक्षा जाल’ के रूप में काम करना होगा।असफलता को कलंक नहीं, बल्कि सीख का हिस्सा मानना होगा।पड़ोसियों, दोस्तों और रिश्तेदारों को संवेदनशील बनाना होगा ताकि वेमुसीबत के समय सहारा बन सकें। मीडिया और शैक्षणिक संस्थानों कोसफलता की विविध परिभाषाओं को प्रोत्साहित करना चाहिए। अच्छाइंसान बनना, समाज के प्रति योगदान देना, या अपनी रुचि के क्षेत्र में खुशरहना—ये सभी सफलता के ही रूप हैं।
परिवार इस लड़ाई में सबसे महत्वपूर्ण और प्रभावशाली इकाई है। माता-पिता को बच्चों के साथ ऐसा रिश्ता कायम करना चाहिए जहाँ वेबिना डर के अपनी हर सफलता, असफलता, डर और चिंता साझा करसकें। उनकी बात को धैर्यपूर्वक सुनें और उनकी भावनाओं को समझने काप्रयास करें । हर बच्चा अलग होता है। अभिभावकों को अपने बच्चों कीरुचियों और क्षमताओं को पहचानना चाहिए और उन्हें उनके हिसाब सेआगे बढ़ने देना चाहिए। उन पर अपने अधूरे सपने थोपने से बचना चाहिए।पेरेंट्स बच्चे में दिखने वाले उदासी, चिड़चिड़ापन, सामाजिक अलगाव, नींद या भूख में बदलाव जैसे मानसिक संकट के चेतावनी संकेतों के प्रतिसजग रहना चाहिए। ऐसे में तुरंत संवाद कायम करें और यदि जरूरी लगेतो पेशेवर मदद लेने में संकोच न करें।
दिल्ली के आंकड़े केवल एक लक्षण हैं, बीमारी नहीं। यह बीमारी हमारेसामाजिक ढाँचे, आर्थिक व्यवस्था और पारिवारिक मूल्यों में घर कर चुकीहै। इसका मुकाबला करने के लिए हमें एक ऐसा समाज बनाना होगा जहाँआर्थिक असुरक्षा को दूर करने के साथ-साथ भावनात्मक सुरक्षा भी प्रदानकी जाए। युवाओं को यह सिखाने और महसूस कराने की जरूरत हैकि “तुम्हारा अस्तित्व केवल तुम्हारी नौकरी या तुम्हारे अंकों से कहीं बड़ाहै। असफलता जीवन का एक हिस्सा है, अंत नहीं। और सबसे महत्वपूर्णबात, मदद माँगना कभी भी कमजोरी का प्रतीक नहीं, बल्कि स्वयं कोमजबूत बनाने का एक साहसिक कदम है।” केवल तभी हम इन अनमोलजिंदगियों को बचा पाने में सफल हो सकेंगे।



