-सर्वेश कुमार सिंह-
वंदेमातरम् की रचना के 150 वर्ष पूर्ण हो रहे हैं। सात सितम्बर को वंदेमातरम् का रचना दिवस देशभर में बड़े ही धूमधाम से मनाया जाएगा। वंदेमातरम् के 150 साल पूरे होने पर उत्साह है। सम्पूर्ण भारत में एक विशेष प्रकार का स्फूरण है। यह स्फूरण देशभक्ति का है। भारतीय जनमानस के रोम-रोम को देशभक्ति की भावना से पुलकित करने वाला है। वंदेमारतरम् दरअसल सिर्फ गीत नहीं है, यह देशभक्ति का प्रेरणापुंज है, यह मंत्र है। इसके शब्द बीज मंत्रों से आच्छादित हैं। यही वजह है कि जब यह अवतरित हुआ तब से आज तक भारत की एकता, विविधता और सांस्कृतिक धरोहर का प्रतीक बना है। लेकिन, जिस गीत ने राजनीतिक दूरियां मिटा दी थीं, उत्तर से दक्षिण तक पूर्व से पश्चिम तक राष्ट्रीय एकता का संदेश और क्रांति की प्रेरणा दी। गुलामी की बेडियों में जकड़ी भारत मां को मुक्त कराने के लिए क्रांति कर दी थी। लाखों युवाओं को क्रांति की मशाल हाथ में थमा दी थी, और वे स्वतत्रतता का लक्ष्य लेकर निकल पड़े थे। उसी वंदेमातरम् को आज उसके मूल स्वरूप में स्वीकारोक्ति की आवश्यकता है। राजनीति में तुष्टिकरण के विद्रूप स्वरूप के वशीभूत कांग्रेस ने वंदेमातरम् को खण्डित कर दिया था। राजकीय स्तर पर केवल आरम्भिक दो छन्द ही स्वीकार्य हैं। सम्पूर्ण और अखण्डित वंदेमातरम् आज भी राजकीय मान्यता से बाहर है। इसे राष्ट्रगीत का दर्जो तो है लेकिन, उसके केवल एक संक्षिप्त अंश को ही। भारत का जनमानस इस गीत के 150 साल पूरे होने पर इसके मूल स्वरूप को स्वीकार करने की इच्छा और आकांक्षा संजोये है।
देशभक्ति की प्रबल भावना से जन्मा वंदेमातरम्
अंग्रेजों के क्रर शासन में भारत की सांस्कृतिक और सामाजिक एकता खण्डित की जा रही थी। समाज में भारतीयता के भाव को समाप्त करने या उसको छिन्न-भिन्न करने के लिए अंग्रेज तरह-तरह के हथकण्डे अपना रहे थे। उसी दौर में बंगाल के सरकारी अधिकारी वंकिम चन्द्र चट्टोपाध्याय के हृदय में अंग्रेज सरकार के एक फैसले से क्षोभ उत्पन्न हो गया। प्रथम स्वतंत्रता संग्राम 1857 के बाद ईस्ट इण्डिया कंपनी के हाथों से जब भारत का शासन ब्रिटिश सरकार ने सीधे अपने हाथों में लिया तो भारत में एक गीत गाना अनिवार्य किया गया। यह गीत था, “गाड सेव द क्वीन”, इसमें ब्रिटेन की महारानी की रक्षा की ईश्वर से कामना की गई थी। इसे सरकारी स्तर पर कार्यालयों, शिक्षण संस्थाओं मं गाना अनिवार्य किया गया था। इस घटना से बकिम चन्द्र चट्टोपाध्याय बहुत आहत हुए, उनका हृदय अंग्रेजों के प्रति क्षोभ से भर उठा। उसी समय उन्होंने भारत माता की स्तुति में एक गीत लिखने का निश्चय किया। देशभक्ति की भावना से ओतप्रोत चट्टोपाध्याय ने 7 नवम्बर 1876 को वंदेमातरम् की रचना कर दी। वंदेमारम् को कांग्रेस के अधिवेशन में प्रथम बार कलकत्ता में 1876 में गुरुदेव रवीन्द्र नाथ टैगोर ने गाया। इसके बाद यह कांग्रेस के अधिवेशनों में परंपरागत रूप से गाया जाने लगा। वर्ष 1901 में भी कलकत्ता अधिवेशन में गाया गया, यहां चरणदास ने गायन किया। वर्ष 1905 में वाराणसी में आयोजित अधिवेशन में सरला देवी ने गायन किया। वर्ष 1923 में गायन के समय इसका विरोध हुआ। वंदेमातरम् की प्रबल राष्ट्रीय भावना के प्रकटीकरण के लिए ही स्वतंत्रता सेंनानी लाला लाजपत राय ने अपने समाचार पत्र का नामकरण ही “वंदेमातरम” किया। अग्रेजों की गोली लगने से शहीद हुईं क्रातिकारी मांतगिनी हजारा ने “वंदेमातरम्” का उद्घोष करते हुए अपने प्राण त्याग दिये थे। जर्मनी में मैडम भीकाजी कामा ने “वंदेमातरम्” लिखा तिरंगा स्टट गार्ड में फहराया था। इसे जब बंकिम चन्द्र चट्टोपाध्याय ने अपने उपन्यास “आनन्द मठ” में 1882 में शामिल किया तो यह क्रांति गीत बन गया।
तुष्टिकरण से खण्डित हुआ वंदेमातरम्
इस गीत की यात्रा 7 नवम्बर 1875 से आरंभ होकर कई पड़ावों से होकर गुजरी है। इस यात्रा में गीत से अनन्य राष्ट्रभक्ति के ज्वार का देशव्यापी प्रसार शामिल है। तो वहीं गीत को अंग्रेजो के प्रतिबंध का सामना करना पड़ा है, भारत विभाजन की विचारधारा के पोषक वर्ग की मानसिकता को संतुष्ट करने के लिए इसे खण्डित किया गया। कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में 28 अक्टूबर 1937 को प्रस्तुत एक रिपोर्ट के बाद इसे खण्डित कर दिया गया। कांग्रेस ने उस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया जिसमें इसके कई महत्वपूर्ण अंशों को काट दिया गया और केवल आरम्भ के दो छन्द ही स्वीकार किये गए। यह सब कांग्रेस की तुष्टिकरण की नीति के कारण हुआ। दरअसल रामपुर के अली बन्धुओं का कांग्रेस में मुस्लिम नेता होने के कारण काफी दबदबा था। कांग्रेस उन्हें देश के प्रमुख मुस्लिम नेताओं के रूप में मान्यता देती थी। इन अली बन्धुओं के अनुरोध पर ही कांग्रेस ने खिलाफत आन्दोलन में भाग लेने का फैसला किया था। अली बन्धुओं में छोटे भाई मौलाना मोहम्मद अली जौहर कांग्रेस के अध्यक्ष रहे। उनकी अध्यक्षता में आन्ध्र प्रदेश के काकानीडा में 28 दिसम्बर 1923 से एक जनवरी 1924 तक अधिवेशन हुआ था। अधिवेशन में परंपरागत रूप से “वंदेमातरम्” गायन होना निश्चित था। इसके लिए प्रख्यात संगीतज्ञ,गायक पंडित विष्णु दिगम्बर पुलस्कर उपस्थित हुए थे। उन्होंने जैसे ही गायन आरम्भ किया तो अधिवेशन की अध्यक्षता कर रहे मौलाना मोहम्मद अली जौहर ने विरोध कर दिया। उन्होंने गायन रोकने को कहा किन्तु वे नहीं रूके और पूरा वंदेमातरम् गायन किया। लेकिन, क्षुब्ध होकर मौलाना जौहर मंच छोड़कर चले गए। इस विरोध का कांग्रेस के तत्कालीन अन्य नेताओं नेताओं पर गहरा प्रभाव हुआ। उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में धार्मिक एकता बनाए रखने के लिए मौलाना जौहर की मांग पर एक समिति बना दी। इसी समिति की रिपोर्ट के आधार पर वंदेमातरम को खण्ड़ित किया गया। इसके साथ ही इसक अनिवार्य गायन से भी मुक्त कर दिया गया। यही खण्डित वंदेमातरम् 24 जनवरी 1950 को संविधान सभा ने राष्ट्रगीत के रूप में स्वीकार किया। वंदेमातरम् को राष्ट्रगीत के समकक्ष मान्यता देने का फैसला संविधान सभा के अध्यक्ष राजेन्द्र प्रसाद ने सुनाया था।
वंदेमातरम् की अखण्डता के लिए स्वर
अब पहली बार भारत के किसी प्रधानमंत्री ने वंदेमातरम् के खण्डित होने के भारत के दर्द को उजागर किया है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 31 अक्टूबर को एकता नगर (केवडिया) में सरदार वल्लभभाई पटेल की 150वीं जन्मजयंती पर आयोजित कार्यक्रम में “वंदेमातरम्” के भी 150 वर्ष पूरे होने का उल्लेख किया। उन्होंने जब यह कहा कि कांग्रेस ने वंदेमातरम् के साथ वह किया जो अंग्रेज भी नहीं कर सके। यानि, कि वंदेमातरम् जैसे क्रांतिगीत और अनन्य राष्ट्रभक्ति की प्रेरक प्रार्थना को खण्डित कर दिया। प्रधानमंत्री मोदी ने कहा- “काँग्रेस ने अंग्रेजों से केवल पार्टी और सत्ता ही नहीं पाई, बल्कि कांग्रेस ने गुलामी की मानसिकता को भी आत्मसात कर लिया था। आप देखिए, अभी कुछ दिन बाद ही हमारे राष्ट्रगीत वन्दे-मातरम के 150 साल होने जा रहे हैं। 1905 में जब अंग्रेजों ने बंगाल का विभाजन किया, उसके प्रतिरोध में वंदेमातरम हर देशवासी का स्वर बन गया था। वन्देमातरम देश की एकता और एकजुटता की आवाज़ बन गया था। अंग्रेजों ने वन्देमातरम बोलने की बात तक बैन लगाने की कोशिश की थी। अंग्रेज़ इस कोशिश में कामयाब नहीं हो पाये! कई हिनदुस्तान के कोने-कोने से वंदे मातरम का नारा गूंजता ही रहा, गूंजता ही रहा। लेकिन, जो काम अंग्रेज़ नहीं कर पाए, वो काम काँग्रेस ने कर दिया। काँग्रेस ने मजहबी आधार पर वन्देमातरम के एक हिस्से को ही हटा दिया। यानी, काँग्रेस ने समाज को भी बांटा, और अंग्रेजों के एजेंडे को भी आगे बढ़ाया। और मैं आज एक बात बहुत जिम्मेदारी से कह रहा हूं- जिस दिन काँग्रेस ने वन्देमातरम को तोड़ने का, काटने का, विभाजित करने का फैसला लिया था, उसी दिन उसने भारत के विभाजन की नींव डाल दी थी। काँग्रेस ने वो पाप नहीं किया होता, तो आज भारत की तस्वीर कुछ और होती” ।
मोदी जी की इस साहसिक प्रतिक्रिया के बाद देश को यह उम्मीद बंधी है कि भारत राजकीय स्तर पर 150 साल बाद वंदेमातरम् के अखण्डित स्वरूप को फिर से स्वीकार करेगा। ऐसा करने का यह उचित और सही समय है, यह समय की भी मांग है। आखिर हम क्यों न उस गीत को समग्र रूप में स्वीकार करें, जिसने क्रांति कर दी। लाखों युवाओं के दिलों में क्रांति और देशभक्ति की लौ जला दी। क्या कुछ लोगों के विरोध के कारण हमें मौन बैठे रहना चाहिए ? क्या हम किसी विरोध के भय से हमेशा राष्ट्रीय प्रतीकों क साथ समझौते करते रहेंगे ? जैसा कि वंदेमातरम् के साथ कांग्रेस ने किया। आखिर समझौता करके भी क्या कांग्रेस ने भारत का विभाजन बचा लिया ? जिन लोगों ने वंदेमातरम् का विरोध किया वे बाद में कांग्रेस छोड़कर मुस्लिम लीग में चले गए। इस देश के विभाजन के लिये जिम्मेदार “द्विराष्ट्र” का सिद्धान्त क्या वंदेमातरम् की भावना से उपजा था ? वंदेमातरम् तो राष्ट्र की एकता और अखण्डता का प्रतीक है।
क्या वंदेमातरम् को खण्डित करने से भारत विभाजन से बच सका
प्रश्न यह है कि क्या वंदेमातरम् को खण्डित करने से कांग्रेस भारत का विभाजन रोक सकी? जिन लोगों के भय से वंदेमातरम् को खण्डित किया गया, क्या वे संतुष्ट हो गए थे। क्या उन्होंने खण्डित वंदेमातरम् के दो छंदों को भी कभी स्वीकारा। इस खण्डित वंदेमातरम् के खिलाफ भी देवबंद के दारूल उलूम ने फतवा दिया। इतना ही नहीं 3 नवम्बर 2009 को देवबंद में ही आयोजित जमीअत-उलेमा-ए-हिन्द के अधिवेशन में वंदेमातरम् को नहीं गाने के लिए प्रस्ताव पारित किया गया। इस अधिवेशन में तत्कालीन गृहमंत्री पी.चिदम्बरम् भी पहुंचे थे। इसी खण्डित वंदेमातरम् को गाने से मुरादाबाद और संभल से सांसद रहे डा शफीकुर्रहमान वर्क ने संसद में इनकार किया। उन्होंने दो बार 2013 और 2019 में संसद में इसका विरोध किया। अभी 29 अक्टूबर को जब महाराष्ट्र की देवेन्द्र फडणवीस सरकार ने एक नवम्बर से 7 नवम्बर तक सभी स्कूलों में वंदेमातरम् के सामूहिक गायन का आदेश दिया तो समाजवादी पार्टी के विधान अबू आजमी ने विरोध किया।
वंदेमातरम् का विभाजन इस आधार पर कर दिया गया कि इसमें दुर्गा, सरस्वती की स्तुति है। जब हम भारत माता को ही दुर्गा और सरस्वती के रूप में देख रहे हैं तो विरोध औचित्यहीन है। अगर कुछ दिन बाद कोई यह कहने लगे कि भारत माता की जय भी नहीं बोलेंगे, इसमें तो देश को माता कहा गया है तो क्या हम इस विरोध के आगे भी झुक जाएंगे। किसी का अपना तर्क और मत हो सकता है लेकिन, राष्ट्रीय जनमानस की प्रबल इच्छा और भावना को समझते हुए ही फैसला लिया जाना चाहिए। यह सात नवंबर “अखण्ड वंदेमातरम् संकल्प दिवस” बन जाए तो एक बार फिर आनन्द मठ का वंदेमातरम् ही देश में गूंजेगा।



