संघर्ष एक भारतीय प्रवासी परिवार का

expatriate-tax-advice.webp

Caption: Daley and Associates

– कर्नल मूल भार्गव

दिल्ली। वर्ष 2014 अप्रैल, परमानेंट रेसिडेंटशिप लेकर, पत्नी और दो किशोर बच्चों को लेकर पर्थ आ तो गया था परंतु यहां आकर पता चला कि परमानेंट रेजिडेंट किसी नौकरी का सीधा माध्यम नहीं था। बल्कि कोई साधारण नौकरी पाने के लिए भी धक्के खाने पड़ेंगे। और भारत का अनुभव या डिग्री का कोई खास महत्व शुरू में नहीं होता।

भारत की जमा पूंजी यहां लाकर एक स्टोर खरीदा था, शुरू में ठीक चला पर कुछ ही महीनों बाद दो बड़े स्टोर और खुल गए और बिक्री धड़ाम से नीचे आ गिरी थी।

घर का किराया, स्टोर का किराया, बच्चों की बड़ी बड़ी फीस, कुछ महीने में ही सारे जीवन की पूंजी ठिकाने लगने लगी थी और ऑस्ट्रेलिया आने का निर्णय एक दुस्वप्न सा लगने लगा था। जहां नजर आती थी, किसी भी नौकरी के लिए अर्जी डाल देना शुरू हो गया। पर कोई अर्जी फलीभूत नहीं होती थी। एक मित्र की सलाह पर टैक्सी चलाने का लाइसेंस लेने की ट्रेनिंग भी शुरू कर दी।

दिसंबर 2014 आ गया था। भारतीय सेना के उच्च पधाधिकारी से टैक्सी चालक की ट्रेनिंग का सफर अर्श से फर्श तक जैसा था। 10 महीने बीत चुके थे और भविष्य पूर्णतः अंधकार में नजर आ रहा था।

बड़ी उहापोह में, एक वीरवार शाम को कार चलाते हुए एलेनब्रुक जा रहा था कि अचानक मेरा मोबाइल घनघनाया। एक अनजान लैंडलाइन से फोन आ रहा था। तुरंत गाड़ी साइड में लगाकर फोन उठाया तो उधर से अंग्रेजी में एक मधुर सी आवाज आई।
आप मूल भार्गव बोल रहे हैं?

जी जी, मैं मूल भार्गव ही हूं

मैं जैनेट बोल रही हूं। आपने माउंट मैग्नेट डिस्ट्रिक्ट हाई स्कूल में रजिस्ट्रार की नौकरी के लिए आवेदन किया था?

मेरी दिल की धड़कन अचानक तेज हो गई, तुरंत बोला, जी जी किया तो था!!

जी ठीक है, हम आपको साक्षात्कार (इंटरव्यू) के लिए बुलाना चाहते हैं, मैं आपकी प्रिंसिपल से बात करती हूं। होल्ड कीजिए।

ये बोल कर उस महिला ने मुझे होल्ड पर डाल दिया। तब तक मेरा दिल बुलेट ट्रेन की रफ्तार से दौड़ने लगा था। कुछ तो आस की किरण आई। परंतु ये क्या, अचानक फोन कट गया!!! और किस्मत देखिए, उन दिनों मेरे सस्ते फोन सर्विस प्रोवाइडर की समस्या के कारण उनके नंबरों से लैंडलाइन पर फोन नहीं हो रहे थे, कई बार डायल करने पर भी नंबर नहीं मिला।

बदहवास सा मैं गाड़ी चलाता हुआ अपने मित्र के घर एलेनब्रुक की और भागा। मुझे सड़क कम और उसके घर का फोन ज्यादा नजर आ रहा था। घर पहुंचा तो उसकी पत्नी मिली। उसने मुझे नमस्ते की पर मैंने हांफते हांफते उसे कहा मुझे जल्दी अपना फोन दो। अधिकतर मुझे शांत देखने वाली ज्योति भी घबरा गई और झट से फोन मेरे हाथ में पकड़ा दिया।

मैं लगभग कांपते हाथों से नंबर मिलाया, घंटी बजी और थोड़ी ही देर में फिर वही मधुर आवाज सुनाई दी।

हाय, मैं मूल भार्गव, आपका फोन कट गया था।

जैनेट बोली, हां हां मूल, ठहरो मैं तुम्हारी बात लिज से कराती हूं।

कुछ ही क्षण में अंग्रेजी में एक बड़ी संयमित सी आवाज आई।

हाय मूल, मैं माउंट मैग्नेट डिस्ट्रिक्ट हाई स्कूल की प्रिंसिपल एलिजाबेथ बोल रही हूं। आपने यहां रजिस्ट्रार के लिए आवेदन किया था, क्या आप इंटरव्यू के लिए आना चाहेंगे?

मैंने तपाक से जवाब दिया, जी जी बिलकुल।

लिज (एलिजाबेथ) बोली, ठीक है, तो आप कब आ सकते हैं?

मैंने झट से कहा – मैं कल सुबह ही आ सकता हूं।

उधर अचानक सन्नाटा सा हो गया।

मूल तुम्हे मालूम है माउंट मैग्नेट कहां है?

अब सन्नाटे की बारी मेरी थी!!

सचाई थी कि मैं कहीं भी किसी नौकरी के लिए आवेदन डाल रहा था। ना कोई रिसर्च का टाइम था ना स्थिति। बस कोई भी नौकरी चाहिए थी। मुझे ऑस्ट्रेलिया के बारे में धेला नहीं पता था।

शरमाते हुए मैने धीरे से कहा, जी नहीं ये तो नहीं मालूम।
लिज ने एक लंबी सांस ली और बोली, देखिए माउंट मैग्नेट पर्थ से 550 किलोमीटर दूर एक छोटा सा कस्बा है। क्या आप यहां आना पसंद करेंगे?

मैं सुन कर एक बार तो सन्न सा रह गया, पर सेना में इतने सुदूर इलाकों में रहने के बाद, सुदूर के इलाकों से डर कभी नहीं लगता था। इसलिए तुरंत संभल कर तपाक से बोला, जी, कोई बात नहीं, मैं आ सकता हूं।

लिज़ ने तुरंत कहा, ठीक है, अगले मंगलवार को मिलते हैं। मैं आपको बाकी सूचना ईमेल कर देती हूं। धन्यवाद।
फोन कट गया, अब मैं समझ नहीं पा रहा था कि क्या हुआ। वहां से चाय वाय पीकर शाम को घर लौटा। फिर अपना लैपटॉप खोलकर, गूगल माता से पूछा – माउंट मैग्नेट”। लाल रेगिस्तान के बीचों बीच एक छोटा सा बिंदु!!!! जनसंख्या 600!!

अरे भाई, मेरी तो बटालियन में भी सात सौ लोग होते थे। ये कौन सी जगह है? तनख्वाह भी 60-70 हजार डॉलर ही थी। दो दिन सोच विचार में निकल गए। तय हुआ कि इंटरव्यू के लिए जरूर जाऊंगा। थोड़ी बहुत इंटरव्यू की तैयारी भी कर ली। वीकेंड पर दो ट्रक ड्राइवरों की उसी क्षेत्र में रेगिस्तान में, रास्ता भूल कर, मरने की भी खबर आ गई।

फिर भी सोमवार सुबह पूरा सामान लेकर गाड़ी में बैठा और निकल लिए। थोड़ी दूर जाकर ही एहसास हुआ कि मेरी थर्ड या फोर्थ हैंड पुरानी गाड़ी 600 किलोमीटर तक जाने की स्तिथि में नहीं थी। सो वापिस घर की तरफ आना ही उचित समझा। उहापोह की स्तिथि में लिज़ को दुबारा फोन किया और कार की स्तिथि बताई। लिज़ ने तुरंत कहा कि गैरभरोसेमंद कार लेकर बिल्कुल भी उतनी दूर और उस तरफ ना जाऊं।

लिज ने मेरा इंटरव्यू टेलीफोन पर ही लेने का निर्णय लिया और दो दिन बाद का समय निर्धारित कर दिया। मुझे अंदाजा ही नहीं था कि ऑस्ट्रेलिया में टेलीफोन पर भी इंटरव्यू हो जाता है!

खैर, मैं फिर इंटरव्यू की तैयारी में जुट गया। रजिस्ट्रार का जॉब डिस्क्रिप्शन कई बार फिर से पढ़ा। मुख्यत: वित्तीय और मानव संसाधन से जुड़ा काम था और दोनो विषयों में मेरी महारथ थी। पर फिर भी, ऑस्ट्रेलिया के खराब अनुभव से आत्मविश्वास हिला हुआ सा था। सब कुछ दांव पर लगा था। 25 साल पहले भारतीय सेना के अधिकारी पद के लिए इंटरव्यू पहली बार भी बिना किसी तैयारी के पास कर लिया था। पर अबकी बार मैं कोई चांस नहीं लेना चाहता था। सारे पुराने नोट्स, इंटरनेट इत्यादि खंगाल डाले। ऑस्ट्रेलियाई शिक्षा से संबंधित भी और अन्य भी।

इंटरव्यू से पहले मैं इयरफोन लगा कर बैठ गया। घर में सबको बिल्कुल चुप रहने का निर्देश दे दिया था। घबराहट तो मुझे कभी नहीं हुई पर थोड़ा बैचेन सा जरूर था। नीयत समय पर फोन आया और प्रश्नोत्तरी शुरू हुई। चार पांच लोगों ने अलग प्रश्न पूछे और मैने, शांति से सबका अच्छे से जवाब दे दिए। मुझे भी बाद में आश्चर्य हुआ की ऐन इंटरव्यू के समय मैं बिल्कुल शांत और निश्चिंत था। शायद मेरा ज्ञान और अनुभव काम आ गया।
इंटरव्यू समाप्ति पर प्रिंसिपल ने कहा कि बाद में मुझे बता दिया जाएगा। परंतु मैं आश्वस्त सा था कि मैने सब ठीक किया है। और आश्चर्यजनक रूप से मुझे परिणाम की कोई चिंता सी ही नहीं हुई!!
दो तीन घंटे बाद फिर फोन आया।
हाय मूल, लिज हेयर। तुम्हारा इंटरव्यू बहुत अच्छा था, हम सब खुश हैं।

पर मैं तुम्हे जॉब ऑफर अभी नहीं दे रही हूं। आप यहां आकर देख लो, अगर सब ठीक लगे, तो आप ऑफर ले लीजिएगा।

मैं तब तक कुछ उदासीन सा हो गया था। अनजानी जगह, अनजाने लोग, अनजान सी नौकरी। कुछ समझ नहीं आ रहा था कि क्या कहूं।
तभी लिज़ की आवाज दुबारा आई। वो बोलीं,
मूल, हम आपको यहां आकर देखने के लिए हवाई यात्रा का टिकट भेज सकते हैं, यहां की एक बड़ी खदान कंपनी अपने हवाई जहाज़ में एक स्थान दे सकती।

अब मुझ में एक नई जान सी आ गई, मानो स्वयं मां लक्ष्मी की आवाज मेरे कानो में पड़ गई हो, तुरंत मेरे मुंह से हां निकल गई। अगले ही सोमवार को ही, सुबह सुबह मैं हवाई यात्रा से माउंट मैग्नेट की ओर निकल गया। 15 या 20 यात्रियों वाले, तिनके की तरह उड़ते, छोटे से हवाई जहाज़ में, दिसंबर की भरी गर्मी में कोट पैंट और टाई पहन कर, मैं जीवन की एक नई और अनजान यात्रा पर निकल लिया। अनजान स्थानों की तरफ ऐसी यात्राएं मैने सेना की सेवा के दौरान अनेकों बार की थी। पर इस बार का रोमांच और अनिश्चितता कुछ अलग सी थी।

खिड़की से नीचे देखने से लाल सुर्ख, अनंत रेगिस्तान नज़र आ रहा था। दूर दूर तक जीवन का नामो निशान नहीं दिख रहा था।लगभग डेढ़ घंटे के बाद मेरा हवाई जहाज़ माउंट मैग्नेट की लाल सुर्ख बजरी की पट्टी पर उतर गया। मालूम नहीं था वहां कौन मिलेगा, क्या होगा, कैसे स्कूल पहुंचूंगा, आदि आदि।

जहाज़ की सीढ़ी से उतरते ही लगभग 60 साल की एक दुबली पतली गोरी महिला मेरी तरफ तेजी से आई और तपाक से जोर से बोली,
हे, यू मस्ट बी मूल!!

मैं हैरान था कि इसने मुझे कैसे पहचान लिया? मैंने तुरंत हां में सिर हिलाया और उसने आगे हाथ बढ़ाकर अंग्रेजी में बोला, मैं मैरिलिन हूं। उस दिन तुमसे बात हुई थी। चलिए।

मैरीलिन वहां की स्थाई रजिस्ट्रार थी और एक वर्ष के अवकाश पर जा रही। उसी की जगह मुझे एक वर्ष के लिए अनुबंध मिलना था। मैरीलिन मुझे बाहर की ओर ले चली। एयरपोर्ट भी बस एक खुले मैदान सा ही था। छोटे से गेट बाहर आकर हम एक कार में बैठकर चल दिए। स्कूल वहां से 7 या 8 किलोमीटर था। मैरीलिन मुझे कस्बे की और स्कूल की बातें बताते हुए गाड़ी चलाते हुए आगे बढ़ रही थी।

उत्सुकता में मैने उस से पूछा, आपने मुझे पहचाना कैसे? मैरीलिन, हंसते हुए, तपाक से बोली, 45 डिग्री तापमान में कोट और टाई पहने सिर्फ एक यात्री, वो भी अकेला भारतीय, तुम्हारे अलावा और कौन हो सकता था??

बातें करते करते हम स्कूल पहुंचे, तो एलिजाबेथ ने स्वागत किया। मैरीलिन मुझे अपने ऑफिस में ले गई और काम समझाने लगी। बड़ा ही सुन्दर, वातानुकूलित ऑफिस था और काम भी मेरी रुचि के अनुसार। साथ ही लिज, मैरिलिन और जैनेट के व्यवहार और शालीनता से मुझे एकदम से अपनत्व का सा आभास हुआ। मुझे लगा शायद ऑस्ट्रेलिया में मेरी नियति मुझे सही जगह खींच लाई है। सारी अनिश्चितता, शंकाए समाप्त सी होती चली गई। कुछ देर बाद जब लिज़ ने मुझ से पूछा तो इतने सुदूर शहर में भी हां कहने में जरा भी हिचक नहीं हुई। कुछ ही देर में मेरा एक वर्ष का अनुबंध बन कर आ गया। मैंने उसे थोड़ा ध्यान से पढ़ा और हस्ताक्षर कर दिए।

जब हस्ताक्षर के नीचे तिथि लिखी, 15 दिसंबर 2014, तो ध्यान आया कि गजब का संयोग था। 15 दिसंबर 1990 को मुझे भारतीय सेना में अधिकारी नियुक्त किया गया था और ठीक 24 वर्ष बाद, ऑस्ट्रेलिया में मेरा नया करियर प्रारंभ हो रहा था!! माउंट मैग्नेट डिस्ट्रिक्ट हाई स्कूल में प्राप्त अनुभव और प्रशिक्षण के कारण मैंने फिर पीछे मुड़ कर नहीं देखा। अगले दो वर्ष में ही उन्नति पाते हुए पर्थ मेट्रो के एक प्रतिष्ठित स्कूल में मैनेजर, कॉर्पोरेट सर्विसेज के पद पर स्थाई रूप से नियुक्ति पा गया और धीरे धीरे ऑस्ट्रेलिया में जीवन सुलभ होता चला गया।

Share this post

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

scroll to top