भारत के स्वाधीनता आन्दोलन में असंख्य बलिदान हुये हैं। ये बलिदान क्राँतिकारी आँदोलन में भी और अहिसंक आँदोलन में भी । ऐसी ही एक बलिदानी हैं मातंगिनी हिजरा वे अहिसंक आँदोलन में थीं। और 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में झंडा लेकर निकलीं तो अंग्रेज पुलिस ने गोली मार दी ।
1942 का भारत छोड़ो आँदोलन भारतीयों के लिये तो अहिसंक था । पर अंग्रेज सरकार के लिये नहीं। यह आँदोलन नौ अगस्त से आरंभ हुआ और महीनों चला था । तीस से अधिक स्थानों पर गोली चालन हुये और इस अहिसंक आँदोलन में सौ से अधिक बलिदान हुये । इस आँदोलन में ऐसी बलिदानी ही बलिदानी है मातंगिनी हाजरा । भारत की स्वाधीनता का सपना संजोये वे एक ऐसी बलिदानी थीं, जिन्होंने अपनी किसी व्यक्तिगत समस्या को आँदोलन के आड़े नहीं आने दिया और असहयोग आंदोलन से लेकर भारत छोड़ो आँदोलन तक अपनी सक्रिय सहभागिता की । समय के साथ आयु साथ छोड़ने लगी पर उनका उत्साह कम न हुआ । उनके जन्म का पूरा विवरण नहीं मिलता फिर भी उपलब्ध विवरण के अनुसार उनका जन्म बंगाल के ग्राम होगला में 1870 को हुआ था । यह ग्राम होगला जिला मिदनापुर के अंतर्गत आता है और अब यह क्षेत्र बंगलादेश में है । जिस परिवार में वे जन्मी वह अत्यन्त सामान्य अवस्था में था। बारह वर्ष की अवस्था में ही उनका विवाह ग्राम अलीनान के विधुर त्रिलोचन हाजरा से कर दिया गया । विवाह के बाद वे तामलुक कस्बे में आ गईं। पर उनका दाम्पत्य जीवन अधिक न चला । केवल छह वर्ष बाद ही उनके पति की मृत्यु हो गई। उनके तो कोई संतान न थी पर पति की पहली पत्नि से जो संतान थी उसके पालन का जिम्मा भी उनके सिर आ गया । स्वाभिमानी मातंगिनी मेहनत मजदूरी करके अपना और अपने परिवार का भरण करने लगीं। समय के साथ बच्चे बड़े हुये उनके परिवार बने तो मातंगिनी ने पति का वह घर बच्चों को दिया और स्वयं पड़ोस में एक अलग झोपड़ी में रहने लगीं। यद्यपि वे शिक्षित नहीं थीं पर उनकी मौलिक ज्ञान क्षमता बहुत अद्भुत थी । वह छोटी मोटी बातों पर गांव बस्ती में उचित सलाह देतीं थीं। और फिर जिस प्रकार उन्होंने अपने पति की पूर्व पत्नि की संतान को पाला उससे पूरे गाँव में उनका अतिरिक्त सम्मान था । सब उन्हे माँ समान आदर देते थे ।
तभी देश में अहिसंक आँदोलन का दौर आया । 1921 से आँदोलन आरंभ हुये प्रभातफेरियाँ निकलने लगीं। इस गाँव में प्रभात फेरी से वे स्वतंत्रता संग्राम में जुड़ गईं। हाथ में तिरंगा और वंदेमातरम उद्घोष मानों उनके जीवन का अंग बन गया । 1921 से लेकर 1942 तक ऐसी कोई गतिविधि नहीं जिसमें उन्होंने हिस्सा न लिया हो ।
17 जनवरी, 1933 को ‘कर बन्दी आन्दोलन’ को दबाने के लिए बंगाल के तत्कालीन गर्वनर एण्डरसन तामलुक आये, तो उनके विरोध में प्रदर्शन हुआ। वीरांगना मातंगिनी हाजरा सबसे आगे काला झण्डा लिये डटी थीं। वह ब्रिटिश शासन के विरोध में नारे लगाते हुई दरबार तक पहुँच गयीं। इस पर पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया और छह माह का सश्रम कारावास देकर मुर्शिदाबाद जेल में बन्द कर दिया। जेल से मुक्त होकर पुनः आँदोलन से जुड़ गईं।
1935 में तामलुक क्षेत्र भीषण बाढ़ के कारण अनेक बीमारियाँ फैली जिनमें हैजा और चेचक का प्रभाव अधिक था । मातंगिनी हाजरा अपने जीवन की बिना चिन्ता किये सेवा और बचाव कार्यों में जुट गयीं। 1942 में जब ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ ने जोर पकड़ा, तो मातंगिनी उसमें भी सहभागी बनीं । आठ सितम्बर 1942 को जुलूस निकालने की योजना बनी । तामलुक में हुए प्रदर्शन में वे सबसे आगे थीं। उनके हाथ में तिरंगा था और वंदेमातरम का उद्घोष कर रहीं थीं। पुलिस ने गोली चलाना और गिरफ्तारी आरंभ की । मातंगिनी गिरफ्तार हुई। पुलिस ने गोली चलाई तीन स्वाधीनता सेनानी बलिदान हुये । जो लोग बंदी बनाये गये थे उन्हें जेलों में रखने जगह नहीं थी । इसलिए महिलाओं को जंगल में छोड़ दिया गया । इस प्रकार मातंगिनी भी जंगल से गाँव लौट आई पर पुलिस गोली चालन का गुस्सा लोगों में था । इसके विरोध में 29 सितम्बर को पुनः प्रदर्शन करने का निर्णय हुआ ।
मातंगिनी के नेतृत्व में महिलाओं की टोली ने गाँव-गाँव में घूमकर लोगों को तैयार किया। सब दोपहर में सरकारी डाक बंगले पर पहुँच गये। तभी पुलिस की बन्दूकें गरज उठीं। मातंगिनी एक चबूतरे पर खड़ी होकर नारे लगवा रही थीं। एक गोली उनके बायें हाथ में लगी। उन्होंने तिरंगे झण्डे को गिरने से पहले ही दूसरे हाथ में ले लिया। तभी दूसरी गोली उनके दाहिने हाथ में और तीसरी उनके माथे पर लगी। मातंगिनी की मृत देह वहीं लुढ़क गयी।
इस बलिदान से पूरे क्षेत्र में इतना जोश उमड़ा कि दस दिन में ही वहाँ एक प्रकार से समानान्तर सरकार स्थापित कर ली । जिसने 21 महीने तक काम किया। 1974 तामलुक में मांतगिनी हाजरा की मूर्ति स्थापित हुई । यह गाँव और इसके आसपास का क्षेत्र आज भी लोगों की श्रृद्धा का केन्द्र है ।