शंकर शरण
शौरी, राजनीतिक -कर्मी की तरह बोल रहे है,
जिसमें अपने निशाने को चोट पहुंचाने के लिए बातें बढ़ा -चढ़ाकर भी रखी जाती है |
जैसे, यहाँ मुस्लिमो के बारे में 1940 ई. के दशक वाली स्थिति और आज, दोनों पर शौरी के आरोप सही नहीं हैं|
यह स्वयं उनके द्वारा लिखी कई पुस्तकों, लेखों के विवरणो, निष्कर्षों के विरुद्ध ठहरता है|
शायद वे केवल बदला लेने के लिए ऐसा कर रहे हैं?
वाजपेयी सरकार में, शौरी ने दो दो महत्वपूर्ण मंत्रालय का भार सफलतापूर्वक वहन किया था|
वाजपेयी ने भी, उन्हें खुले हाथ काम करने दिया था|
बरहाल, जिस तरह शौरी ने संघ -भाजपा की आलोचना की है, वह उनका राजनीती -कर्मी रूप भी है|
उन्होंने कई चीज़ों को मनमाना खींच कर संघ -भाजपा को ‘फासीस्ट’ बताया है।
दादरी या गोरक्षक(गुजरात) कांड, जैसी आकस्मिक और स्वतंत्र घटना को भी, उन्होंने भाजपा की सोची समझी नीति कहा।
इसका न कोई प्रमाण दिया, न कोई ऐसा संकेत वास्तव में दिखता है।
घटनाओं का राजनीतक उपयोग हुआ है।
मगर यह तो सदा होता रहा है।
शौरी बढाई -चढाई बता भी कर रहे है।
यह उनका लेखक -चिंतक रूप नहीं है।
विश्व कम्युनिज्म और यहाँ कम्युनिस्ट पार्टियों के काले कारनामें, ईसाइ मिशनरी की विस्तारवादी राजनीती, इस्लामी सिद्धांत -व्यवहार, मार्क्सवादी प्रोफेसर के परपंच भृष्टाचार, कांग्रस नीतिकारों की मूढ़ता, आदि विषयों पर शौरी ने प्रमाणिक पुस्तकें लिखी है।
उनके लेखन में ऐसी शक्ति थी कि जब अपनी सरकार में वाजपई ने उन्हें मंत्री बनाया था, तो कांग्रसियों ने वाजपेई को धन्यवाद दिया कि अब उन्हें शौरी के लेखन की मार से राहत मिलेगी।