जयपुर : भारत बोध कार्यक्रम में “भारतीय पर्यावरण चिंतन” पुस्तक का विमोचन हम सभी के लिए एक विचारात्मक उत्सव रहा। आदरणीय श्री सुनील आंबेकर जी (अखिल भारतीय प्रचार प्रमुख) के करकमलों से इस ग्रंथ का लोकार्पण हुआ, मेरे लिए संपादक के रूप में विशेष संतोष और हर्ष का विषय है। पिछले 6 माह के सतत साहित्यिक परिश्रम की यह सार्थक परिणति है।


आज जब विश्व पर्यावरण को संकट के रूप में देखता है, तब भारत की दृष्टि हमें स्मरण कराती है कि पर्यावरण हमारे लिए संस्कार, संस्कृति और सहजीवन का विषय रहा है—प्रकृति संसाधन नहीं, माता और सहचर है। संघ के शताब्दी वर्ष और पंच परिवर्तन की पृष्ठभूमि में इस पुस्तक का प्रकाशन इस दृष्टि को वैचारिक आधार देता है—वैदिक काल से आधुनिक काल तक समग्र भारतीय पर्यावरण चिंतन को एक सूत्र में पिरोते हुए।

इस ग्रंथ में देश के 25 से अधिक विद्वानों और चिंतकों के लेख संकलित हैं—लगभग 140 पृष्ठों में भारतीय परंपरा की आध्यात्मिक, सामाजिक और व्यवहारिक पर्यावरण दृष्टि का सशक्त प्रस्तुतीकरण। आयरलैंड में भारत के राजदूत श्री अखिलेश मिश्र जी, श्री श्री रविशंकर जी, श्री स्वामी अवधेशानंद गिरी जी, श्री सद्गुरु जग्गी वासुदेव जी, प्रो. दयानंद भार्गव जी, प्रो. बजरंग लाल गुप्त जी, श्री गोपाल आर्य जी, वैद्य राजेश कोटेचा जी, श्री प्रशांत पोल जी, प्रो भगवती प्रकाश शर्मा जी, श्री हनुमान सिंह राठौड़ जी और डॉ इंदुशेखर तत्पुरुष जी जैसे प्रतिष्ठित लेखकों के योगदान से यह ग्रंथ विशेष बना है।
यह पुस्तक स्मरण कराती है कि भारतीय दृष्टि में विकास और प्रकृति विरोधी नहीं, पूरक हैं— संरक्षण कानून से नहीं, चेतना से आता है; और चेतना संस्कृति से जन्म लेती है।
इसी भाव से शीर्षक है—“विमर्श: भारत बोध का”। आशा है कि “भारतीय पर्यावरण चिंतन” केवल पढ़ी जाने वाली पुस्तक नहीं, जीने की दृष्टि बने—क्योंकि प्रकृति के साथ सह-अस्तित्व ही भारत की शाश्वत पहचान है।



