दिल्ली दंगा के 5 साल

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मृत्युंजय कुमार

‘हम देखेंगे’ वाले कहीं दिख क्यों नहीं रहे? दिल्ली को लहूलुहान करने वाले बताएं कि CAA से कितने मुसलमानों की नागरिकता गई‍‍!

23, 24 एवं 25 फरवरी, 2020 भारत अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के स्वागत की तैयारियां कर रहा था। अमेरिकी राष्ट्रपति का यह भारत दौरा दुनिया भर में सुर्खियों में था। लेकिन देश की राजधानी में बैठे मुट्ठी भर लोग किसी और तैयारी में थे। जिस वक्त अमेरिकी राष्ट्रपति दिल्ली में मौजूद थे, वहां से चंद किलोमीटर दूर दंगा भड़क उठा। चुन-चुनकर हिंदुओं, सरकारी कर्मचारियों और पुलिस को निशाना बनाया जाने लगा।

दरअसल, अमेरिकी राष्ट्रपति के दिल्ली में मौजूद रहने के दौरान ही दिल्ली को लहूलुहान करने की प्लानिंग हुई थी ताकि इसे वैश्विक मीडिया में ज्यादा से ज्यादा भुनाया जा सके। इन सबकी पृष्ठभूमि में CAA के खिलाफ चल रहा एक आंदोलन था। जिसका केंद्र दिल्ली का शाहीनबाग था। देश की राजधानी में सेकुलर-लिबरल गिरोह की गोद में पल रहे इस आंदोलन की तासीर शुरू से सांप्रदायिक थी। वहां के पोस्टर विषाक्त आइडेंटिटी पॉलिटिक्स की कहानी कहते थे। पाकिस्तानी कवि फैज रातोंरात इन आंदोलनकारियों के धर्मपिता बन गए और ‘हम देखेंगे’ का नारा बुलंद होने लगा। देश की राजधानी में सड़क घेरकर ‘बस नाम रहेगा अल्लाह का’ जैसे जिहादी जुमले पढ़े जाने लगे। पूर्वोत्तर भारत को देश से काटने की योजना मंच से समझाई जा रही थी। शाहीनबाग में नेशनल मीडिया के रिपोर्टर्स से मारपीट की खबरें आए दिन आती थीं। इस दौरान दिल्ली का शाहीनबाग एक ऐसा इलाका बन गया था, जहां पुलिस, प्रशासन और सरकार की कोई परवाह नहीं थी। एक तरह से वहां समानांतर सरकार चलाने की कोशिश की गई। लेकिन भाजपा विरोध में अंधे आंदोलनजीवी इन सबसे मुंह मोड़े रहे। शाहीनबाग के गर्भ में पल रहे इस सांप्रदायिक दंगे में उन्होंने क्रांति की किरण देखी। मीडिया प्रोपगैंडा के दम पर 80 साल की एक अनपढ़ बुजुर्ग महिला को आंदोलन का आइकॉन बनाया गया। दुनिया भर में ऐसा प्रचारित किया गया कि भारत अपने यहां के अल्पसंख्यकों से नागरिकता का अधिकार छीनने वाला है।

इस पूरी कवायद के नतीजे में दिल्ली को जख्म और एक बदनुमा दाग मिला। देश की राजधानी में दुनिया के सबसे शक्तिशाली मुल्क के राष्ट्रपति की मौजूदगी में दंगा हुआ। हिंदुओं की संपत्ति कोे चुन-चुनकर निशाना बनाया गया। दिल्ली में सत्ताधारी पार्टी के नेता की छत पर एक बड़ी गुलेल मिली, जिसके सहारे पत्थर और पेट्रोल बम हिंदू घरों पर फेंके जा रहे थे।

अमेरिकी राष्ट्रपति का दौरा शुरू होने के समय वैश्विक मीडिया में भारत की बढ़ती सामरिक, राजनैतिक और आर्थिक शक्ति की खबरें थीं। लेकिन 23, 24 एवं 25 फरवरी के बीच स्थिति बदल गई। अब वैश्विक मीडिया के केंद्र में दिल्ली का दंगा था। भारत की छवि एक युद्धग्रस्त, आतंरिक कलह से जूझते देश के रूप में गढ़ने की नाकाम कोशिश की गई।

हालांकि इस दंगे को 5 साल बीत चुके हैं। बीते दिनों CAA भी शांतिपूर्ण तरीके से लागू हो गया। दंगाई जेल भी गए। देश सामरिक, राजनैतिक और आर्थिक मोर्चे पर नित्य नई ऊंचाइयां छू रहा है।

लेकिन इन सबके बीच फिर वही सवाल उठता है कि आखिर दिल्ली को दंगे की आग में क्यों झोंका गया? 5 साल पहले के सोशल मीडिया पोस्ट्स और मीडिया की सुर्खियां देखेंगे तो पाएंगे कि उसमें CAA को नागरिकता छीनने वाला कानून बताया गया था। मुसलमानों के मन में डर बैठाया गया कि CAA के लागू होते ही उनकी नागरिकता छीन ली जाएगी। दूसरी ओर, सरकार की ओर से लगातार सफाई पेश की जाती रही कि CAA पड़ोसी देशों के सताए अल्पसंख्यकों को नागरिकता देने वाला कानून है न कि किसी की नागरिकता छीनने वाला। लेकिन नई-नई शुरू हुई यूट्यूब पत्रकारिता के उस दौर में अफवाह सच से तेज निकली। दिल्ली को झुलसना पड़ा। तिकड़मबाजी के चक्कर में नौकरी गंवाने वाले पुराने संपादक माइक लेकर सड़कों पर उतर आए। झूठ फैलाने में इन्होंने कोई कसर नहीं छोड़ी। बदले में इन्होंने यूट्यूब पर अपना साम्राज्य खड़ा किया और दिल्ली के हिस्से में दंगा आया। आज दिल्ली के दंगाई तो जेल में हैं। लेकिन वे सिर्फ प्यादे भर थे। जिन्होंने इस दंगे को भड़काया, वे आज भी अपनी शक्ति बढ़ाने में लगे हैं, यूट्यूब पर भ्रामक थंबनेल के सहारे पेट पाल रहे हैं।

दिल्ली दंगे के 5 साल बाद शाहीनबाग के आंदोलन को हवा देने वाले स्वघोषित बुद्धिजीवियों से पूछा जाना चाहिए कि इतने दिनों में CAA से कितने मुसलमानों की नागरिकता गई, कितने मुसलमानों को पाकिस्तान भेजा गया। अगर ऐसा नहीं हुआ तो फिर लखनऊ से लेकर हैदराबाद और पटना से लेकर दिल्ली को दहलाने का क्या मतलब था? CAA को देश के मुसलमानों के खिलाफ बताने वाली मीडिया रिपोर्ट्स का क्या मकसद था?

क्या ‘हम देखेंगे’ का नारा बुलंद करने वाले आंदोलनजीवियों की जिम्मेदारी नहीं है कि वह एक ख्याली मुद्दे पर आंदोलन शुरू करने और देश को दंगे में झोंकने के लिए माफी मांगें?

5 साल बाद यह बात शीशे की तरह साफ हो गई है कि दिल्ली का दंगा एक साजिश था। जिस आंदोलन ने यह दंगा फैलाया, उसकी कोई वजह ही नहीं थी। एक ख्याली मुद्दे पर आंदोलन शुरू किया गया था।

अगर पैटर्न देखें तो पाएंगे कि शाहीनबाग का आंदोलन और दिल्ली दंगा इकलौता ऐसा मामला नहीं है। इससे पहले 2015 का जेएनयू विवाद हो या 2021 का लालकिला हिंसा। हर बार हिंसा से सहारे देश को अस्थिर करने की कोशिश हुई। इन सबके पीछे आंदोलनजीवी टूलकिट गैंग का हाथ पाया गया।
इस टूलकिट गैंग की बैचेनी समझना भी ज्यादा मुश्किल नहीं है। दरअसल, आजादी के बाद इन्हें लगातार सत्ता का साथ मिलता रहा। सत्ता की गोद में बैठकर एनजीओ, सभा-समितियों, मीडिया और शिक्षण संस्थानों पर 6 दशक तक कब्जा जमाए रखने वाला यह वर्ग 2014 के बाद से खुद को अलग-थलग महसूस कर रहा था। भारत विरोधी अंतरराष्ट्रीय गिरोहों से मिलने वाली इनकी मदद भी प्रायः बंद हो गई। दूसरी ओर, देश की जनता चुनावों में खुलकर भारतीयता और सनातन का पक्ष लेने लगी।

ऐसी स्थिति में टूलकिल गैंग ने देश को अस्थिर करने की असफल कोशिश की। उपद्रव के सहारे लोकतंत्र के कुचलने की कोशिश हुई। बिल्कुल यही पैटर्न श्रीलंका, म्यांमार और बांग्लादेश में भी देखने को मिला। अंतर बस इतना है कि श्रीलंका, म्यांमार और बांग्लादेश में उपद्रव करके सरकार गिरा दी गई। लेकिन भारतवंशियों ने अपनी दृढ़ इच्छाशक्ति और राष्ट्रभक्ति के दम पर देसी-विदेशी टूटकिट गैंग के प्रोपगैंडे को ध्वस्त कर दिया।

दिल्ली दंगे की बरसी इस पूरे प्रसंग के अवलोकन का समय होना चाहिए। अगर भारत को सशक्त, समृद्ध और वैभवशाली राष्ट्र के रूप में खड़ा करना है तो इस टूलकिट गैंग से निपटने और उपद्रव करके देश को अस्थिर करने वाली साजिशों को बेनकाब करते रहना होगा। सरकार के पास ऐसी ताकतों से निपटने के लिए पर्याप्त बल है। लेकिन राष्ट्र विरोधी प्रोपगैंडा से लड़ने के लिए देश के सुधी नागरिकों को भी आगे आना होगा।

दिल्ली दंगे की बरसी पर आंदोलनजीवियों से पूछना होगा कि ‘हम देखेंगे’ वाले कहीं दिख क्यों नहीं रहे? दिल्ली को लहूलुहान करने वाले बताएं कि CAA से कितने मुसलमानों की नागरिकता गई‍‍! अगर इससे किसी की नागरिकता नहीं गई (जो कि सच्चाई है) तो देश को दंगे में झोंकने वाले बुद्धिजीवी शर्म करें और राष्ट्र के प्रति इस गंभीर अपराध के लिए माफी मांगें।

(लेखक भारतीय जन संचार संस्थान में पत्रकारिता पढ़ाते हैं)

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मृत्युंजय कुमार

मृत्युंजय कुमार

मृत्युंजय विभिन्न समसामयिक विषयों पर अपनी बेबाक राय के लिए जाने जाते हैं। 5 वर्षों तक देश के कई प्रतिष्ठित मीडिया संस्थानों में कार्य करने के बाद अब मीडिया एजुकेशन के फील्ड में भावी पत्रकारों की नई पौध को सींच रहे हैं। संप्रति भारतीय जनसंचार संस्थान (IIMC), नई दिल्ली के हिंदी पत्रकारिता विभाग में टीचिंग एसोसिएट के बतौर कार्यरत हैं

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