दिल्ली के एक सरकारी अस्पताल का आंखों देखा हाल

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संजीव पालीवाल

दिल्ली । मैं ठीक हूँ । मुझे कुछ नहीं हुआ। लेकिन तीन दिन एक सरकारी अस्पताल में कटे। कितना सीखा। कितना बर्दाश्त किया। हम सब मुग़ालते में हैं। यही समझ आया। मैं कितना कम जानता हूं। ये अहसास भी हुआ।

अस्पताल में डॉक्टर और स्वास्थ्य कर्मियों की हालत देख कर अफ़सोस हुआ। मरीज़ का हाल तो पूछिये ही नहीं।
पंद्रह घंटे खड़ा रहा क्योंकि बैठने की जगह नहीं थी। पानी तक नहीं पी सका क्योंकि हिम्मत नहीं हुई टॉयलेट जाने की। डर के मारे कुछ खाया भी नहीं क्योंकि हाथ में कितने तरह के कीटाणु होंगे सोच कर ही थर्रा रहा था।
ये बात दिल्ली की है। बहुत बड़े सरकारी अस्पताल की है। इलाज के लिये सब मिला। दवा मिली, टेस्ट हुए, बिस्तर मिला। सब बगैर सिफारिश के मिला। लेकिन जो हाल देखा उसने हिला दिया।

पहली बार समझ आया कि अस्पतालों में परिवार क्यों जमें रहते हैं। क्यों भीड़ रहती है। क्योंकि आपको सब कुछ खुद करना पड़ता है। स्ट्रेचर तीन तीन मंजिल खुद खींचते रहिये। स्ट्रेचर लेकर आइये और जमा भी कीजिये। पहली बाद भोगा। समझा। मरीज को भी खुद उठाकर बेड पर रखिये। कोई नहीं है मदद करने वाला।
डॉक्टर क्यों चिढ़े रहते हैं। मरीज़ों की भीड़ है। अटेंडेंट की भारी कमी है।

एक मरीज़ को देखते हैं तो तीन और आ जाते हैं। एक बिस्तर पर दो दो मरीज़ हैं।
किसी को इस पूरी सरकारी व्यवस्था को बदलना पड़ेगा। बदलाव करना पड़ेगा। एक इंसान चाहिये जो ये कहे कि मरीज़ की इज़्ज़त है। जब आपके पास डॉक्टर है, दवा है, मशीनें हैं तो अटेंडेंट क्यों नहीं हैं। बेड क्यूँ नहीं हैं। सफाई क्यूं नहीं है।

मरीज़ को इज़्ज़त देने की ज़रूरत है। सरकार में किसी को सोचना पड़ेगा। बजट दिया अच्छा किया।लेकिन कार्य संस्कृति भी बदलिये। मानवीयता लाइये। गरीब की भी इज़्ज़त कीजिये।

मैं दिल्ली के गुरू तेग़ बहादुर अस्पताल में था। अपने चचेरे भाई के लिये।

यही समझ आया कि एक बड़ी मेडिकल इंश्योरेंस पॉलिसी अपने परिवार के लिये ज़रूर रखिये। इलाज प्राइवेट अस्पताल में कराना ही होगा। मरीज़ और तीमारदार दोनो के लिये बेहद जरूरी है।

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