राजीव मिश्र
आज एक मित्र ने एक वैलिड प्रश्न उठाया कि केजरीवाल ने अगर मोदी से शत्रुता के बजाय पार्टनरशिप की राजनीति की होती तो आज भी मजे से सत्ता भोग रहा होता. यह बात फ़ैक्चुअली सही है, लेकिन इस आकलन में सिर्फ एक बेहद महत्वपूर्ण और फंडामेंटल ग्लिच है… केजरीवाल होने के मनोविज्ञान का आकलन.
कोई केजरीवाल क्यों बनता है? केजरीवाल की सबसे मूल ग्रंथि है उसकी गहनतम हीन भावना.
केजरीवाल के बचपन की कल्पना कीजिए… वह अवश्य एक मरियल, दब्बू, झगड़ालू और ईर्ष्यालु बच्चा रहा होगा जिसको मोहल्ले के बच्चे साथ में खेलने नहीं देते होंगे. तो उसने सोचा, चलो इन सबको दिखा देता हूँ कि मैं कितना खास हूँ.. और वह पढ़ कर, एग्जाम पास करके आईआईटी में चला गया.
लेकिन आईआईटी पहुँचा तो पाया, वहाँ तो सभी आईआईटियन ही थे… वहां कौन इस बात की घास डालता. तो वहां वह पढ़ाई लिखाई छोड़कर एक्टिविज्म में लग गया. आईआईटी से निकल कर टाटा स्टील की नौकरी की तो वहां वह टाटा के CSR डिपार्टमेंट से जुड़ गया… उसमें उसे सीएसआर की फंडिंग और एक्टिविज्म की मलाई का रहस्य समझ में आया. टाटा में न टिक कर वह आईएएस बनने चला, जहां से सारी मलाई बंटती है… आईएएस बन नहीं पाया, रेवेन्यू सर्विसेज से संतोष करना पड़ा. तब वह फुल टाइम एक्टिविज्म में कूद पड़ा.
यानि यह व्यक्ति जहां भी रहा, इस कुंठा से ग्रस्त रहा कि वह अपने आस पास के लोगों से कमतर है. इसलिए वह एक फील्ड से दूसरे में कूदता रहा कि इस बार वह अपने को प्रूव कर देगा. उसे और किसी तरह की सुपीरियरिटी नहीं मिली तो मॉरल सुपीरियरिटी का क्लेम करता रहा. पर सेल्फ एस्टीम की कमी आसानी से दूर होने वाली कमी नहीं है. बचपन के मारियल, दब्बू, उपेक्षित अरविंद ने केजरीवाल का पीछा कभी नहीं छोड़ा. आपको कभी भी केजरीवाल के साथ उसका कोई बचपन का साथी नहीं मिलेगा. कोई भी, जो उसे पहले से और व्यक्तिगत रूप से जानता है वह उसके आसपास नहीं फटकेगा.
केजरीवाल का वामपंथी होना सिर्फ एक पॉलिटिकल आइडियोलॉजी का प्रश्न नहीं है, उसकी पूरी पर्सनालिटी का प्रश्न है…उसके चरित्र का भाग है. यह उसकी हीनभावना की उपज है. वह हमेशा उन सभी से द्वेष रखता है जो उससे बेहतर हैं. वह किसी भी अपने से योग्य व्यक्ति का मित्र हो ही नहीं सकता. केजरीवाल सत्ता के लिए भी मोदी से हाथ नहीं मिला सकता. मोदी के बगल में खड़े होने से ही वह हीन भावना से मर जाएगा. उसके जीवन की व्यर्थता, उसके चरित्र की तुच्छता उसे कभी मोदी के साथ खड़ा होने ही नहीं देगी.
केजरीवाल सही कहता है कि वह राजनीति में सत्ता का सुख लेने नहीं आया है… इसके लिए जो पर्सनल एंबीशन, जो महत्वाकांक्षा होनी चाहिए वह उसमें है ही नहीं. वह कोई भी व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा रखने की चारित्रिक क्षमता ही नहीं रखता. सत्ता वह सत्ता का सुख भोगने के लिए नहीं खोजता. वह अपने जीवन की निरर्थकता का उत्तर सत्ता में खोजता है.