मिल सकता है इंसान और हाथियों के संघर्ष को कम करने का दीर्घकालीन समाधान: 12 अगस्त को छत्तीसगढ़ में विश्व हाथी दिवस का आयोजन

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रायपुर। 12 अगस्त 2024 को छत्तीसगढ़ में आयोजित होने वाला विश्व हाथी दिवस, इंसान और हाथियों के बीच संघर्ष को कम करने के लिए एक दीर्घकालीन समाधान खोजने का महत्वपूर्ण अवसर प्रदान करेगा। यह आयोजन छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री श्री विष्णु देव साय की पहल पर हो रहा है और इसमें केंद्रीय वन पर्यावरण एवं जलवायु मंत्री और अन्य विशेषज्ञ शामिल होंगे।

छत्तीसगढ़ में मानव-हाथी द्वंद की समस्याएं लगातार बढ़ रही हैं, जिनमें हाथियों द्वारा फसल का नुकसान, जनहानि और संपत्ति की हानि शामिल है। इस कार्यक्रम में प्रोजेक्ट एलीफेंट की स्टीयरिंग कमेटी की 20वीं मीटिंग का आयोजन किया जाएगा, जहां इन समस्याओं के समाधान के लिए दीर्घकालिक रणनीतियों पर विचार किया जाएगा। बैठक में ड्रोन और सूचना तकनीक जैसे आधुनिक उपायों का उपयोग करके हाथियों के विचरण पर निगरानी रखने के तरीकों पर भी चर्चा होगी।

इस आयोजन का मुख्य उद्देश्य हाथियों और मानवों के बीच संघर्ष को कम करना और हाथियों की सुरक्षा को सुनिश्चित करना है। यह पहल न केवल छत्तीसगढ़ बल्कि पूरे देश के लिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि इससे स्थानीय समुदायों की जीवनशैली में सुधार और पर्यावरणीय संतुलन बनाए रखने में मदद मिलेगी।

भारत में आर्थिक प्रगति हेतु सनातन संस्कृति के संस्कारों को जीवित रखना ही होगा

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किसी भी देश में सत्ता का व्यवहार उस देश के समाज की इच्छा के अनुरूप ही होने के प्रयास होते रहे हैं। जब जब सत्ता द्वारा समाज की इच्छा के विपरीत निर्णय लिए गए हैं अथवा समाज के विचारों का आदर सत्ता द्वारा नहीं किया गया है तब तब उस देश में सत्ता परिवर्तन होता हुआ दिखाई दिया है। लोकतंत्र में तो सत्ता की स्थापना समाज के द्वारा ही की जाती रही है। साथ ही, किसी भी देश की आर्थिक प्रगति के लिए देश में शांति बनाए रखना सबसे पहली आवश्यकता मानी जाती है और देश में शांति स्थापित करने के लिए भी समाज का विशेष योगदान रहता आया है। समाज में विभिन्न मत पंथ मानने वाले नागरिक ही यदि आपस में सामंजस्य स्थापित नहीं कर पाएंगे तो देश में शांति किस प्रकार स्थापित की जा सकेगी।

भारत के नागरिकों में आज “स्व” के भाव के प्रति जागृति दिखाई देने लगी है और वे “भारत के हित सर्वोपरि हैं” की चर्चा करने लगे हैं। परंतु, भारत में तंत्र अभी भी मां भारती के प्रति समर्पित भाव से कार्य करता हुआ दिखाई नहीं दे रहा है, जिससे कभी कभी असामाजिक तत्व अपने भारत विरोधी एजेंडा पर कार्य करते हुए दिखाई दे जाते हैं और भारत के विभिन्न समाजों में अशांति फैलाने में सफल हो जाते हैं। अतः समाज के विभिन्न वर्गों के बीच यह जागरूकता फैलाने की आज महती आवश्यकता है कि भारत आज आर्थिक प्रगति के जिस मार्ग पर तेजी से आगे बढ़ रहा है ऐसे समय में देश में शांति स्थापित करने की भरपूर आवश्यकता है। क्योंकि, देश में यदि शांति नहीं रह पाती है तो विदेशी संस्थान भारत में अपनी विनिर्माण इकाईयों को स्थापित करने के प्रति हत्तोत्साहित होंगे और देश की आर्थिक प्रगति विपरीत रूप से प्रभावित होगी।

भारत पिछले लगभग 2000 वर्षों के खंडकाल में से अधिकतम समय (लगभग 250 वर्षों के खंडकाल को छोड़कर) पूरे विश्व में एक आर्थिक ताकत के रूप में अपना स्थान बनाने में सफल रहा है और इसे सोने की चिड़िया कहा जाता रहा है। वर्ष 712 ईसवी में भारत पर हुए आक्रांताओं के आक्रमण के बाद भी भारत की आर्थिक प्रगति पर कोई बहुत फर्क नहीं पड़ा था। परंतु, वर्ष 1750 ईसवी में अंग्रेजों (ईस्ट इंडिया कम्पनी के रूप में) के भारत में आने के बाद से भारत की आर्थिक प्रगति को जैसे ग्रहण ही लग गया था। आक्रांताओं एवं अंग्रेंजों ने न केवल भारत को जमकर लूटा बल्कि भारत की संस्कृति पर भी बहुत गहरी चोट की थी और भारत के नागरिक जैसे अपनी जड़ों से कटकर रहने लगे थे। आक्रांताओं एवं अंग्रेजों के पूर्व भी भारत पर आक्रमण हुए थे, शक, हूण, कुषाण आदि ने भी भारत पर आक्रमण किया था परंतु लगभग 250/300 वर्षों तक भारत पर शासन करने के उपरांत उन्होंने अपने आपको भारतीय सनातन संस्कृति में ही समाहित कर लिया था। इसके ठीक विपरीत आक्रांताओं एवं अंग्रेजों का भारत पर आक्रमण का उद्देश्य भारत की लूट खसोट करने के साथ ही अपने धर्म एवं संस्कृति का प्रचार प्रसार करना भी था। आक्रांताओं ने जोर जबरदस्ती एवं मार काट मचाकर भारत के मूल नागरिकों का धर्म परिवर्तन कर मुसलमान बनाया तो अंग्रेजों ने लालच का सहारा लेकर एवं दबाव बनाकर भारतीय नागरिकों को ईसाई बनाया। इन्होंने भारतीय नागरिकों के मन में सनातन हिंदू संस्कृति के प्रति घृणा पैदा की एवं अपनी पश्चिमी सभ्यता से ओतप्रोत संस्कृति को बेहतर बताया। अंग्रेज भारतीय नागरिकों के मन में ऐसा भाव पैदा करने में सफल रहे कि पश्चिम से चला कोई भी विचार भारतीय सनातन संस्कृति के विचार से बेहतर है। जबकि आज इस बात के पर्याप्त प्रमाण मिल रहे हैं कि पश्चिम द्वारा किए गए लगभग समस्त आविष्कारों के मूल में भारतीय सनातन संस्कृति की ही छाप दिखाई देती है और उन्होंने यह विचार भारतीय वेद, पुराण एवं उपनिषदों से ही लिए गए प्रतीत होते हैं।

कुछ विदेशी ताकतों द्वारा भारत में आज एक बार पुनः इस प्रकार के प्रयास किए जा रहे हैं कि हिंदू सनातन संस्कृति को मानने वाले हिंदू समाज को किस प्रकार आपस में लड़ाकर छिन्न भिन्न किया जाय। आज भारत में एक ऐसा विमर्श खड़ा करने का प्रयास हो रहा हैं कि देश में हिंदू हैं ही नहीं बल्कि सिक्ख हैं, दलित हैं, राजपूत हैं, जैन हैं आदि आदि। देश में जातियों के आधार पर जनसंख्या की मांग की जा रही है ताकि देश में प्रदान की जाने वाली समस्त सुविधाओं को हिंदू समाज की विभिन्न जातियों की जनसंख्या के आधार पर वितरित किया जा सके। जिससे अंततः देश में विभिन्न जातियों के बीच झगड़े पैदा हों और इस प्रकार भारत को एक बार पुनः गुलाम बनाए जाने में आसानी हो सके। विदेशी ताकतों द्वारा आज भारत के एकात्म समाज को टूटा फूटा समाज बनाए जाने के प्रयास किए जा रहे हैं। प्राचीन भारत में वनवासी थे, ग्रामवासी थे, नगरवासी थे, इस प्रकार त्रिस्तरीय समाज था। भारतीय समाज विभिन्न जातियों में बंटा हुआ था ही नहीं। यह अंग्रेजों का षड्यंत्र था कि भारत में उन्होंने समाज को बांटो और राज करो की नीति अपनाई थी। अन्यथा हिंदू समाज तो भारत में सदैव से एकात्म भाव से रहता आया है। किसी भी देश में क्रांति सत्ता से नहीं आती है बल्कि समाज द्वारा ही क्रांति की जाती है। जिस प्रकार का समाज होगा उसी प्रकार की सत्ता भी देश में स्थापित होगी। अतः किसी भी देश को विकास की राह पर जाने से रोकने के लिए उस देश की संस्कृति को ही समाप्त कर दो। ऐसा प्रयास आज पुनः विदेशी ताकतों द्वारा भारत में किया जा रहा है।

परंतु, अब एक बार पुनः भारत एक ऐसे खंडकाल में प्रवेश करता हुआ दिखाई दे रहा है जिसमें आगे आने वाले समय में विशेष रूप से आर्थिक क्षेत्र में भारत की तूती पूरे विश्व में बोलती हुई दिखाई देगी। ऐसे में कुछ देशों द्वारा भारत की आर्थिक प्रगति को विपरीत रूप से प्रभावित करने के लिए कई प्रकार की बाधाएं खड़ी किए जाने के प्रयास किए जा रहे हैं। परंतु, देश में निवासरत लगभग 80 प्रतिशत आबादी हिंदू सनातन संस्कृति की अनुयायी है एवं हिंदू समाज में व्याप्त लगभग समस्त जातियों, मत, पंथों को मानने वाले नागरिकों में त्याग, तपस्या, देश प्रेम का भाव, स्व-समर्पण का भाव कूट कूट कर भरा है। इसी कारण से यह कहा भी जाता है कि केवल हिंदू जीवन दर्शन ही आज पूरे विश्व में शांति स्थापित करने में मददगार बन सकता है। भारतीय जीवन प्रणाली अपने आप में सर्व समावेशक है। हिंदू सनातन धर्म का अनुपालन करने वाले नागरिक पशु, पक्षी, वनस्पति, पहाड़, नदियों आदि में भी ईश तत्त्व का वास मानते हैं और उनकी पूजा भी करते हैं। हिंदू सनातन संस्कृति के संस्कारों में पला बढ़ा नागरिक अपने विचारों में सहिष्णु होता है तथा सभी जीवों में प्रभु का वास देखता है इसलिए वह हिंसा में बिल्कुल विश्वास नहीं करता है। इसी के चलते यह कहा जा रहा है कि विश्व के कई देशों में लगातार बढ़ रही हिंसा को नियंत्रित करने में हिंदू सनातन संस्कृति के अनुयायी ही सहायक हो सकते हैं। और फिर, हिंदू जीवन दर्शन का अंतिम ध्येय तो मोक्ष को प्राप्त करना है। इस अंतिम लक्ष्य को प्राप्त करने के उद्देश्य से भी हिंदू सनातन संस्कृति के अनुयायी कोई भी काम आत्मविचार, मनन एवं चिंतन करने के उपरांत ही करता है। इस प्रकार, इनसे किसी भी जीव को दुखाने वाला कोई गल्त काम हो ही नहीं सकता है।

विश्व के कई देशों के बीच आज आपस में कई प्रकार की समस्याएं व्याप्त हैं, जिनके चलते वे आपस में लड़ रहे हैं एवं अपने नागरिकों को खो रहे हैं। यूक्रेन – रूस के बीच युद्ध एवं हमास – इजराईल के बीच युद्ध आज इस बात का प्रत्यक्ष उदाहरण है। बांग्लादेश में अशांति व्याप्त हो गई है। इसी प्रकार ब्रिटेन, फ्रान्स, जर्मनी, अमेरिका जैसे शांतिप्रिय देश भी आज विभिन्न प्रकार की समस्याओं से ग्रसित होते दिखाई दे रहे हैं। इसलिए, शांति स्थापित करने एवं आर्थिक विकास को गतिशील बनाए रखने के उद्देश्य से आज हिंदू सनातन संस्कृति के संस्कारों को आज पूरे विश्व में फैलाने की महती आवश्यकता है।

सनातन हिन्दू संस्कृति का संवाहक – जनजातीय समाज

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कृष्णमुरारी त्रिपाठी अटल

अपने शाश्वत स्वरुप और सत्य के अधिष्ठान पर खड़ी सनातनी संस्कृति की झंकार सर्वत्र गुंजित होती है। यह हिन्दू संस्कृति का वैशिष्ट्य है कि वह विश्व की सबसे अर्वाचीन संस्कृति के रूप में अधिष्ठित और प्रतिष्ठित है। भारतीय संस्कृति का सेमेटिक मजहबों की भांति न तो कोई एक ग्रंथ है‌ । न कोई प्रारम्भकर्ता व्यक्ति। यह अपने विराट और वैविध्यपूर्ण स्वरूप के साथ अपना साक्षात्कार कराती है। न तो भारतीय संस्कृति में एक देव पूजा की बाध्यता है और न ही किसी एक पंथ प्रणाली, किताब को पूजने की शर्त। सनातन हिन्दुत्व की कोख से जन्म लेने वाला व्यक्ति अपने ढंग से – जीवन के आचार, विचार का निर्धारण करने के लिए स्वतन्त्र है। अपनी पूजा पद्धति, परम्पराओं को मानने या न मानने के लिए भी स्वतन्त्र है। इन सबके बावजूद भी वह हिन्दू कहलाता है‌ क्योंकि स्वतन्त्र चिन्तन – सत्यान्वेषण हिन्दुत्व का मूल है। इसी हिन्दू संस्कृति ने विश्व को बौध्द, जैन और सिख धर्म/ पंथों का दर्शन दिया। प्रकृति के साथ तादात्म्य और एकात्म स्थापित करने वाला हिन्दू मानष विश्व शांति का मन्त्र देने वाला और प्राणि मात्र के कल्याण की भावना का उद्गाता है।अनेकानेक षड्यंत्रों ,आक्रमणों , कुठाराघातों के बावजूद भी भारतीय संस्कृति जीवंत है तो वह इसीलिए कि विविधता और बहुलता में ‘एकात्मता’ इसके मूल में है। अपनी इसी बहुलतावादी सांस्कृतिक जीवटता के इतिहास के साथ ही भारत के सांस्कृतिक सूर्य का रथ गतिमान है।

भारत के इसी स्वरुप को प्रतिबिंबित करता है यहां का जनजातीय समाज और उनकी प्रकृति से एकात्म परम्पराएं।जनजातीय समाज का अधिकांशतः निवास स्थान भले ही वनांचलों में रहा हो‌। किन्तु जनजातीय समाज सर्वदा सनातन -हिन्दू धर्म के अभिन्न अंग के रूप में एकात्मता का संगीत सुनाता आया है। यह अलग बात है कि सभ्यताओं के विकास और लगातार आक्रमणों के कारण जनजातीय समाज के स्थान परिवर्तन हुआ।उनकी परम्पराओं ,संस्कृति ,विवाह, रीति-रिवाजों ,पूजा पध्दति, बोली और कार्यशैली में आंशिक अन्तर दिखाई देता है। किन्तु संविधान में अनुसूचित सनातन हिन्दू समाज के जनजातीय समाज और गैर जनजातीय समाज का मूल और केन्द्र हिन्दुत्व की धुरी ही है।

वैदिक साहित्य की ओर यदि हम दृष्टिपात करें तो ऋग्वैदिक कालीन समाज जनजातीय समाज के स्वरूप के साथ ही आगे बढ़ रहा था। इस सन्दर्भ में यदि हम किसी भी जनजातीय समाज में देखें तो यह साफ-साफ परिलक्षित होता है कि उनकी पूजा पध्दतियां गैर जनजातीय समाज के समान ही हैं। केवल इनके स्वरुप अथवा नामों में अंतर देखने को मिलता है। जनजातीय समाज में
भगवान शिव का त्रिशूल ,डमरू ,स्वास्तिक, देव और देवी की उपासना , श्रीफल (नारियल) ,तुलसी ,तांत्रिक क्रियाओं में नींबू-मिर्च ,गोबर से लिपाई-पुताई इत्यादि के प्रयोग होते हैं। क्या ये प्रतीक किसी भी प्रकार से हिन्दू समाज से अलग अस्तित्व को दर्शाते हैं? इसी प्रकार जनजातीय समाज जिन देवताओं को महायदेव, ठाकुरदेव, बूढ़ादेव, पिलचूहड़ाम के स्वरूप में स्मरण और पूजन करते हैं । उन्हीं देवताओं को गैर जनजातीय समाज शिव, महेश, नीलकंठ आदि नामों से जानते और पूजते हैं।

उत्तर -पूर्व भारत में सीमांत जनजातियों की भाँति ‘मिशमिश’ जनजाति के लोग सूर्य व चन्द्रमा की पूजा ‘दान्यी-पोलो’ के स्वरूप में करते हैं। इस पर उनका मानना है कि — सूर्य और चन्द्र सत्य के पालनकर्ता भगवान हैं। ठीक इसी परम्परा को अरुणाचल प्रदेश की लगभग सभी पच्चीसों जनजातियां मानती हैं। सनातन हिन्दू धर्म में प्रकृति को माँ के स्वरूप में पूजने और पंच तत्वों की पूजन परंपरा सर्वत्र देखने को मिलती है।
प्रकृति के तत्वों यथा — भू, जल,अग्नि, आकाश ,सूर्य, चन्द्र ,नदी-तालाब, समुद्र ,वृक्षों यथा-पीपल ,नीम ,तुलसी ,आम , गुग्गुल ,बरगद इत्यादि की पूजा करने की परम्पराएँ समूचे भारतीय समाज में देखने को मिलती हैं। क्या यह सब हमारी जनजातीय संस्कृति के अभिन्न अंग एवं मूलस्वरूप को नहीं दर्शाती हैं? इसी प्रकार धार्मिक अनुष्ठानों में यज्ञ वेदी का निर्माण वैदिक कालीन समाज में रहा है। हड़प्पा और मोहनजोदड़ो से चिन्हों यथा- यज्ञ वेदी ,पशुपति की मूर्ति प्राप्त होना। भारतीय संस्कृति के ही तो प्रमाण हैं जिनके ध्वंसावशेष समय – समय पर देश- विदेश के विभिन्न स्थानों से प्राप्त होते रहे हैं।

भारत के जनजातीय समाज में कुल देवी-देवताओं के पूजन की पध्दति और पूजन में हवन (होम) किया जाना‌। हिन्दुत्व की पूजन प्रक्रिया का ही हिस्सा हैं जो सनातन की अक्षुण्ण अखण्ड परम्पराओं की द्योतक हैं। चाहे जनजातीय समाज के द्वारा नागों की पूजा करना हो। याकि नागों के भित्तिचित्र, शैल चित्रों को उकेरना हो । ये सभी चीजें गैर जनजातीय समाज में भी हैं। नागपंचमी का त्यौहार इसी का प्रतीक है। इस दिन हिन्दू समाज नाग देवता की पूजा कर अपने घरों के मुख्य द्वार में नाग देवता का प्रतीकात्मक चित्रण करते हैं। लोकमंगल की कामना करते हैं। यह वही विशुद्ध सांस्कृतिक विरासत ही तो है जिसे संपूर्ण हिन्दू समाज हर्षोल्लास के साथ मनाता है।

यदि हम आधुनिक इतिहास (हिस्ट्री) के बोध से अलग होकर देखें। अपने सनातन कालक्रम की ओर दृष्टिपात करें तो सनातन हिन्दू संस्कृति अपनी साहचर्यता ,बन्धुता और समन्वय के साथ विश्व की अनूठी संस्कृति की मिसाल के तौर पर स्थापित है। सनातन परंपरा में ईश्वरीय अवतारों ,संत-महात्माओं की जाति देखने की परंपरा कभी नहीं रही है। किन्तु जब इस पर अध्ययन किया जा रहा है तो उसका विभिन्न कोणों से विश्लेषण करना आवश्यक ही प्रतीत होता है।

त्रेतायुग में भगवान श्रीराम के वनवास काल में चित्रकूट से दण्डकवन और लंका युध्द से विजय तक उनके सहयोगी वनांचलों में निवास करने वाला जनजातीय समाज ही रहा है। इस कड़ी में श्रृंग्वेरपुर के राजा निषाद राज गुह ने भगवान के वनवास की जानकारी लगते ही अपना राज्य अपने आराध्य को सौंपने की बात कही। किन्तु भगवान राम ने उन्हें मित्र की पदवी देकर अपने समतुल्य बतलाया । मैत्रीबोध का श्रेष्ठतम् मानक स्थापित किया। फिर चाहे गंगा पार उतारने के समय का केवट और भगवान राम का मधुर ,स्नेहिल संवाद हो। याकि भगवान राम की भक्ति में लीन शबरी भीलनी माता के जूठे बेर फल का सेवन करना हो। उन्हें माँ के तौर में प्रतिष्ठित करना हो । यह सब सनातन हिन्दू संस्कृति की ही विशेषता है। माता शबरी को आज भी समूचा हिन्दू समाज माँ के रुप में पूजता है। भला, इससे अनूठा -अनुपम उदाहरण विश्व में और कहाँ मिलेगा? यही तो सनातन संस्कृति और उसकी सदा प्रवाहित होने वाली स्नेह ,सामंजस्य ,श्रेष्ठता की अविरल धारा है। जो अमृत का संचय कर राष्ट्र को पोषित कर रही है।

सनातन संस्कृति के महानायकों यथा- निषादराज गुह ,माता शबरी ,बिरसा मुंडा , टंट्या भील, जात्रा भगत ,कालीबाई ,गोविन्दगुरू ,ठक्कर बापा ,गुलाब महाराज, राणा पूंजा,भीमा नायक ,भाऊसिंह राजनेगी और राजा विश्वासु भील हों‌ । याकि तुंडा भील, रानी दुर्गावती ,सरदार विष्णु गोंड जैसे अनेकानेक वीर-वीरांगनाएं हों। इन्होंने सनातन हिन्दुत्व की रक्षा और राष्ट्र के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया है। उस महान परम्परा के संवाहकों के वंशजों को हिन्दू समाज से अलग बतलाना षड्यंत्र नहीं तो और क्या हो सकता है ? इसी प्रकार जनजातीय समाज को विभिन्न तरीकों से उनकी सांस्कृतिक विरासत से काटने के षड्यंत्र निरंतर हो रहे हैं। जो जनजातीय समाज के गौरवशाली अतीत और महान पुरखों की परिपाटी को नष्ट कर रहे हैं। क्या स्वप्न में भी कल्पना की जा सकती है कि जनजातीय समाज ,सनातन हिन्दू धर्म से अलग है ? यदि जनजातीय समाज हिन्दू संस्कृति से अलग होता तो न तो एकात्मकता के सन्दर्भ मिलते । न ही जनजातीय समाज के महान पूर्वज कन्वर्जन (धर्मान्तरण) के विरोध और संस्कृति की रक्षा के लिए अपना प्राणोत्सर्ग करते।

उपनिवेशवाद की त्रासदी से से चले आ रहे षड्यंत्रों के बावजूद भी जनजातीय समाज हमेशा सनातन हिन्दू समाज का अविभाज्य मूल अंग रहा आया है । जनजातीय समाज के बिना सम्पूर्ण हिन्दू समाज की कल्पना नहीं की जा सकती है। आखिर वह कौन सा केन्द्र है? जब जनजातीय समाज के बंधु-बांधव कष्ट में होते हैं । उनके साथ षड्यंत्र होते हैं ,तब समूचा हिन्दू समाज स्वयं को पीड़ित और चोटिल समझता है। क्या यह अपनेपन की पीड़ा नहीं है ? यदि जनजातीय समाज को कोई हिन्दू समाज से अलग करने की कुचेष्टा करता है तो शेष हिन्दू समाज का रक्त क्यों खौल उठता है?यह इसीलिए न!क्योंकि वे जनजातीय समाज के हिन्दू बंधु- बान्धव हैं। जनजातीय समाज, सनातन हिन्दू समाज की परम्परा के वे संवाहक हैं, जो सदैव सनातन हिन्दुत्व के लिए प्राणोत्सर्ग करने का साहस रखते रहे आए हैं।

विश्व प्रसिद्ध उड़ीसा का जगन्नाथपुरी मंदिर का इतिहास उसी एकात्मता का साक्षी है। वहां भगवान जगन्नाथ की मूर्ति जनजातीय समाज के महान राजा विश्वासु भील को ही प्राप्त हुई थी। उन्होंने ही नीलगिरि की पहाड़ियों में भगवान जगन्नाथ की स्थापना की थी। इसी तरह भुवनेश्वर के भगवान लिंगराज को बाड जनजाति के पुजारियों द्वारा ही स्नान करवाया जाता है। कुल्के एवं रॉथरमुंड नामक विद्वानों ने अपने विभिन्न शोधों एवं अध्ययनों से पाया कि — “कुरुबा, लंबाडी,येरूकुल,येनाडी एवं चेंचू जनजातियों के तिरुपति के भगवान वेंकटेश्वर से गहरे सम्बन्ध हैं।”

इसी तरह दक्षिण मेघालय में मासिनराम के निकट मावजिम्बुइन गुफाएं हैं । यहां गुफा की छत से टपकते हुए जल मिश्रित चूने के जमाव से शिवलिंग बना हुआ है । ऐतिहासिक तथ्यों के अनुसार वहां लगभग 13 वीं शताब्दी से बहुमान्य एक मान्यता प्रचलित है। उसके अनुसार जयन्तिया पर्वत की गुफा में स्थापित ‘हाटकेश्वर नामक शिवलिंग’ वहाँ की रानी सिंगा के समय से विराजमान हैं। इसी हाटकेश्वर धाम में जयन्तिया जनजाति समाज के लोग प्रति वर्ष ‘शिवरात्रि महोत्सव’ बड़े ही हर्षोल्लास के साथ उत्साहपूर्वक मनाते हैं।

वहीं वैष्णों देवी और केरल के भगवान अय्यप्पम से जनजातीय समाज के आत्मिक एवं आध्यात्मिक सम्बन्ध की प्रतिष्ठा है। जनजातीय समाज भगवान नरसिंम्ह की स्तंभीय शांकवीय प्रतिमाओं को पूजते हैं। इसी प्रकार विन्ध्य का जनजातीय समाज, हिन्दू परम्पराओं, पूजा पध्दतियों का लगभग उसी तरह पालन और निर्वहन करता है ; जिस प्रकार शेष हिन्दू समाज करता है । छ.ग.का रामनामी समाज तो भगवान राम के लिए समर्पित होने के लिए ही जाना जाता है । रामनामी समाज का। विस्तार छ.ग.,म.प्र. और झारखंड के विविध क्षेत्रों में है। रामनामी समाज पूर्णरूप राममय है । रामनामी समाज के बन्धु अपने सम्पूर्ण शरीर में राम नाम का गोदना गुदवा लेते हैं। मोरपंख धारण करना,राम नाम संकीर्तन करना। यह इस बात का प्रमाण है कि – भगवान राम के प्रति अगाध श्रध्दा रखने वाला यह समाज सनातन हिन्दू धर्म का वटवृक्ष है।

इस प्रकार अनेकानेक उदाहरणों और जनजातीय समाज की पध्दति ,सनातन हिन्दू धर्म के लिए योगदान देने की शौर्य की कहानियां सर्वत्र व्याप्त है। इन समस्त सन्दर्भों से यही सिद्ध होता कि जनजातीय समाज हिन्दू परम्पराओं का आदि प्रवर्तक है। राष्ट्र के पूर्व से लेकर पश्चिम, उत्तर से लेकर दक्षिण चारो दिशाओं में निवास करने वाला जनजातीय समाज – सनातन हिन्दू धर्म की धर्मध्वजा का पालन करने वाला है। बल्कि यह कहना भी अतिशयोक्ति भी नहीं होगी कि – जिस कठोरता और नियमबद्धता के साथ जनजातीय समाज सनातन हिन्दू धर्म का पालन करता है। अपनी परंपराओं के के प्रति दृढ़ रहता है। उस अनुरूप शेष गैर जनजातीय हिन्दू समाज थोड़ा कमतर ही सिध्द होता दिखता है। जनजातीय समाज विशुद्ध तौर पर सनातन हिन्दू समाज का अभिन्न अंग है। जो सनातनी मूल्यों एवं धर्मनिष्ठा के लिए जाने जाता है। जो अपनी परंपरागत विविधता के साथ उत्सवधर्मिता और लोक का मानक है।

( लेखक साहित्यकार, स्तम्भकार एवं पत्रकार हैं)

Design Meets Innovation & Purpose: WUD’s Fresher Induction Program is a Game Changer

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DELHI-NCR / August 09, 2024: The World University of Design (WUD) redefined the concept of student orientation with its groundbreaking “Immersive Inception” program, held from August 2 to August 9, 2024, at its Sonipat campus. This innovative initiative goes beyond traditional academic introductions, offering a holistic approach to university life that not only aligns with UGC mandates but sets a new benchmark for student induction in India.

The week-long program welcomed students for seven diverse schools: Architecture, Performing Arts, Visual Arts, Fashion, Design, Communication, and Business. Uniquely structured, “Immersive Inception” blended critical themes such as environmental sustainability, health and fitness, Indian knowledge systems, and universal human values with cutting-edge technology advancements.

Dr. Sanjay Gupta, Vice Chancellor of WUD, emphasized the program’s significance: “At World University of Design, we are committed to providing our students with a holistic education that empowers them to thrive in a globalized world. Our Immersive Inception program exemplifies this commitment by offering a comprehensive introduction to university life that extends beyond academics. By incorporating expert talks, workshops, and cultural activities, we aim to foster well-rounded individuals prepared to make a positive impact on society.”

The orientation featured an impressive lineup of industry leaders and creative pioneers. Dadi Pudumjee, founder of the Ishara Puppet Theatre Trust, delivered a captivating session titled “The Voice of Dreams,” exploring India’s rich puppetry traditions. Pudumjee remarked, “Just as each state’s puppetry tradition is distinct, every student’s journey through college will offer unique insights and experiences, enriching their personal and artistic development.” His insights provided students with a deeper appreciation of cultural and artistic traditions, emphasizing the collaborative nature of art.

Shivani Mehta, co-founder of Daakroom and a Shark Tank success story, inspired students with her entrepreneurial journey. She shared her experience of transforming a college stall into a successful enterprise focused on reviving handwritten communication. Mehta’s talk highlighted the importance of combining design thinking with entrepreneurship and encouraged students to pursue innovative and effective communication strategies.

Other notable speakers included Amit Kumar, a caricature expert and art practitioner; Rashmi Khanna, a Bharatnatyam performer and guru; and Akash Upadhyay, a photographer and architect. Their diverse expertise provided students with a multifaceted view of creative industries and career possibilities.

WUD’s innovative approach extended to hands-on workshops covering craft, performing arts, mental well-being, design thinking, and ethical practices. These sessions were designed to foster active learning and skill development, preparing students for the challenges of their chosen fields.

The program also facilitated peer bonding and cultural assimilation through student council-organized events and club activities. Open stage performances and introductions to clubs focusing on fashion, music, dance, and drama allowed students to explore their interests beyond academics. Sports trials and workshops on mental well-being highlighted WUD’s commitment to holistic student development, aligning with UGC guidelines for a well-rounded education.”Immersive Inception” concluded with in-depth sessions tailored to each academic school, providing students with a comprehensive understanding of their chosen fields.

By seamlessly integrating academic insights, cultural exploration, and practical skill development, WUD’s Immersive Inception program has redefined the concept of student orientation. It not only fulfills UGC requirements but also sets a new standard for holistic education in India, preparing students to become innovative leaders and global citizens. As the education landscape continues to evolve, WUD’s “Immersive Inception” stands as a testament to the power of reimagining traditional academic practices to meet the needs of today’s students and tomorrow’s industries.

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