गुरुकुल पद्धति के माध्यम से आत्मनिर्भर शिक्षक छात्र एवं आत्मनिर्भर भारत

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समीर कौशिक

यह कहने में कोई अतिरेक नही है कि भारत की प्राचीन शिक्षा पद्धति में गुरुकुलों का महत्वपूर्ण एवं सर्वोच्च स्थान था। गुरुकुलों में शिक्षा, संस्कार, राष्ट्रबोध, धर्म, सँस्कृति का विवेक और जीवन कौशल प्रबंधन द्वारा आत्मनिर्भरता का समावेश होता था, जो विद्यार्थियों को आत्मनिर्भर और समाज के प्रति जिम्मेदार नागरिक बनाता था। यह प्रणाली केवल शैक्षिक ज्ञान तक सीमित नहीं थी, बल्कि यह जीवन के हर क्षेत्र में आत्मनिर्भरता की भावना को प्रोत्साहित करती थी। आज भी, यदि हम गुरुकुलों की परंपरा को समझें और उसे समकालीन शिक्षा व्यवस्था में लागू करें, तो हम आत्मनिर्भर भारत के निर्माण में अहम योगदान दे सकते हैं।

गुरूकुल रोजगार के कई प्रकार के अवसर भी प्रदान करते थे। गुरुकुल समाज के लिए मात्र न शैक्षिक केंद्र होते थे, बल्कि वे एक प्रकार के सामुदायिक और सामाजिक विकास एवं चिंतन केंद्र भी थे, जहाँ से विभिन्न प्रकार के कार्यों और रोजगार के अवसर उत्पन्न होते थे।

प्राचीन समय में गुरुकुलों से जुड़ी रोजगार की संभावनाएं असीम थी जिसमें से कुछ वर्तमान में व्यवहारिक पक्षों को प्रकाशित करने का प्रयास इस लेख में करने का किया गया है

शिक्षक का रोजगार गुरुकुलों में शिक्षा देने के लिए गुरु की आवश्यकता होती थी। जो व्यक्ति वेद, शास्त्र, धर्म, दर्शन, आध्यत्म गणित, विज्ञान, भूगोल, खगोल, ज्योतिष, संस्कार शास्त्रों और संस्कृत एवं अन्य स्थानीय भारतिय भाषाओं के ज्ञाता होते थे, वे गुरुकुलों में शिक्षा प्रदान करते थे। गुरु का कार्य न केवल छात्रों को शास्त्रों का ज्ञान देना, बल्कि उन्हें जीवन की नैतिकता, धर्म और संस्कारों का पालन भी सिखाना था। विद्यार्थियों को कौशल, आत्मनिर्भरता स्वावलंबी और रोजगार के अवसरों से भी जोड़ना था। गुरुकुलों में शिक्षा के साथ-साथ आत्मनिर्भरता की अवधारणा को महत्वपूर्ण माना जाता था।
गुरुकुलों में केवल धार्मिक आध्यात्मिक या दार्शनिक शिक्षा नहीं दी जाती थी, बल्कि विद्यार्थियों को विभिन्न शिल्पों और तकनीकी कौशलों में भी पारंगत किया जाता था। जैसे कि ताम्र शिल्प, धातु विज्ञान, भस्म निर्माण, खनिज, अयस्कों हस्तशिल्प, निर्माण कार्य, औषधि निर्माण, और वास्तुकला, धातु विज्ञान, वस्त्र निर्माण, अभियांत्रिकी आदि का प्रशिक्षण गुरुकुलों के माध्यम से दिया जाता रहा है ।

1.*गुरुकुल पद्धति से आत्मनिर्भर भारत का संकल्प कौशल विकास*

आत्मनिर्भर भारत का उद्देश्य केवल आर्थिक विकास नहीं है, बल्कि यह सामाजिक, सांस्कृतिक और शैक्षिक क्षेत्रों में भी आत्मनिर्भरता को बढ़ावा देना है। आत्मनिर्भर भारत का निर्माण उन व्यक्तियों और संस्थाओं द्वारा संभव है, जो स्वयं में निर्णय करने में सक्षम हों और जो अपने प्रयासों से समाज और देश की प्रगति में भागीदार बन सकें। गुरुकुलों की शिक्षा पद्धति ने न केवल शैक्षिक ज्ञान दिया, बल्कि यह जीवन के हर आयाम में आत्मनिर्भर बनने की प्रेरणा भी दी।

2.*छात्रों की आत्मनिर्भरता*

गुरुकुलों में शिक्षा का उद्देश्य केवल परीक्षा पास करना नहीं था, बल्कि विद्यार्थियों को जीवन में सही निर्णय लेने, समाज में अपनी भूमिका निभाने, और स्वयं के जीवन के प्रति उत्तरदायी नागरिक बनाने का था। एक आत्मनिर्भर छात्र वह है जो न केवल पुस्तकीय ज्ञान में परिपूर्ण हो, बल्कि वह अपनी सोच, कार्य और निर्णयों में स्वतंत्र हो। उसे अपने कार्यों के परिणामों का बोध हो और वह दूसरों पर निर्भर रहने की अपेक्षा स्वयं मार्ग तय करने में सक्षम हो । रोजगार करने खोजने के स्थान पर रोजगार दाता बनें ।

गुरुकुलों में विद्यार्थी को संस्कार, नैतिक शिक्षा और जीवन कौशल सिखाए जाते थे। यह शिक्षा उसे जीवन के विभिन्न संघर्षों और समस्याओं का समाधान ढूंढने की क्षमता देती थी। आत्मनिर्भर छात्र वही है, जो न केवल आत्मनिर्भरता की ओर बढ़े, बल्कि दूसरों को भी प्रेरित करें और समाज में बदलाव लाने का कार्य करें।

वेदों और शास्त्रों की शिक्षा के माध्यम से वेदों और उपनिषदों के अध्ययन से विद्यार्थियों में भाषायी कौशल, विचारशीलता, तर्कशक्ति, और काव्य रचनात्मकता का विकास होता था। इसके अतिरिक्त संस्कृत साहित्य, गणित, खगोलशास्त्र, चिकित्सा शास्त्र, और अन्य शास्त्रों का अध्ययन भी किया जाता था।

गुरुकुलों में आयुर्वेद और चिकित्सा, आत्मरक्षा, युद्धकला, शस्त्र विद्या शस्त्रनिर्माण, वाणिज्य व्यवसाय , विदेश नीति, आंतरिक सुरक्षा, देश की सीमा सुरक्षा, हर व्यक्ति का सैन्य प्रशिक्षण, तर्क शास्त्र, खेल कूद, कृषि विज्ञान, मौसम विज्ञान की शिक्षा भी दी जाती थी। आयुर्वेदाचार्य, वैद्य, और चिकित्सक शल्य चिकित्सक के रूप में रोजगार प्राप्त करने के अवसर थे। इस प्रकार के विशेषज्ञ व्यक्ति गुरुकुलों से प्रशिक्षित होकर स्वास्थ्य सेवाओं में कार्य करते थे। वस्तुतः प्राचीन भारत गुरुकुलों के माध्यम से ही अपनी सामाजिक व्यवस्थाओं का निर्माण करता था, एवं समाज के सामूहिक प्रयास से गुरुकुलों का संचालन भी होता था हर क्षेत्र में अपने स्वायत्त गुरुकुलों की व्यवस्था होती थी । गुरुकुलों के माध्यम से ही भारत मे लघु एवं कुटीर उधोगों का एक व्यापक प्रसार था । वस्तुतः भारत कृषि प्रधान देश नहीं एक रोजगार प्रधान, उत्पादक एवं वस्तु निर्यातक देश था इन्हीं गुरुकुलों की शिक्षा पद्धति ने भारत को विश्वगुरु के पद पर हज़ारों लाखो वर्षों तक आसीन रखा ।

इस प्रकार, प्राचीन गुरुकुल न केवल शिक्षा का केंद्र थे, बल्कि रोजगार के विभिन्न अवसर भी प्रदान करते थे, जिससे समाज के हर वर्ग को अपनी दक्षताओं का उपयोग करने का अवसर मिलता था।

वर्तमान में भी कुछ गुरुकुल आयुर्वेद, योग और स्वस्थ जीवनशैली से जुड़े शिक्षा प्रदान करते हैं, जिसके द्वारा चिकित्सक, योग प्रशिक्षक, और आयुर्वेदिक सलाहकार के रूप में रोजगार प्राप्त किया जा सकता है। इस तरह गुरुकुलों से रोजगार के विभिन्न मार्ग खुल सकते हैं, यदि सही दिशा में कार्य किया जाए।

गुरुकुलों के माध्यम से आध्यात्मिक पर्यटन को भी बढ़ाया जा सकता है अपितु यदि प्रयोग आरम्भ किये जाएं तो सामान्य विद्यालयों में गुरुकुल के अनुशासन एवं आचरण का आरंभ करके इसे वर्तमान में भी क्रियान्वित किया जा सकता है और कुछ स्तरों पर देश मे इसका आरम्भ शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास जैसे स्वयंसेवी संगठनों एवं शैक्षिक संस्थाओ के माध्यम से आरम्भ भी हो चुका है । गुरुकुलों में शिक्षा लेने आने वाले छात्रों या श्रद्धालुओं के लिए, स्थानीय स्तर पर रोजगार के अवसर पैदा हो सकते हैं, जैसे- यात्रा मार्गदर्शक, अतिथियों पर्यटकों तीर्थयात्रियों के लिए ठहरने की व्यवस्था आदि।
हस्तशिल्प और कला कुछ गुरुकुल पारंपरिक कलाओं और हस्तशिल्प को सिखाते हैं, जिससे रोजगार के अवसर उत्पन्न होते हैं। छात्र अपने कौशल को बाजार में बेच सकते हैं या शिल्प उत्पादों की बिक्री के लिए बाज़ारों में काम कर सकते हैं।

3.*शिक्षक की आत्मनिर्भरता*

गुरुकुलों में शिक्षक का कार्य केवल पढ़ाना नहीं था, बल्कि विद्यार्थियों को जीवन के सही मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करना था। वह एक मार्गदर्शक, एक मित्र और एक संरक्षक के रूप में कार्य करते थे। आत्मनिर्भर शिक्षक वह होता है, जो न केवल शैक्षिक ज्ञान प्रदान करता है, बल्कि विद्यार्थियों के भीतर आत्मविश्वास और आत्मनिर्भरता का निर्माण करता है। ऐसे शिक्षक विद्यार्थियों को इस बात का एहसास कराते हैं कि शिक्षा सिर्फ नौकरी पाने के लिए नहीं, बल्कि जीवन में सफलता और संतुष्टि पाने के लिए है।

आत्मनिर्भर शिक्षक वह है, जो अपने ज्ञान के साथ-साथ अपनी शिक्षा की विधियों में भी नवाचार सृजन करता है और विद्यार्थियों को अपने प्रयासों से समाज और राष्ट्र की प्रगति में योगदान देने के लिए प्रेरित करता है। शिक्षक का यह दायित्व है कि वह विद्यार्थियों को केवल पढ़ाई में ही नहीं, बल्कि जीवन के अन्य पहलुओं में भी सफलता के मंत्र सिखाए।

4.*गुरुकुलों से शिक्षा और आत्मनिर्भरता का संबंध*

गुरुकुलों की शिक्षा पद्धति में हर विद्यार्थी को स्वतंत्र रूप से सोचने, जीवन के विभिन्न पहलुओं में संतुलन बनाने, और समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारी को समझने की प्रेरणा मिलती थी। यहां पर विद्यार्थियों को अपने हाथों से काम करने, कठिनाइयों का सामना करने और आत्मनिर्भर बनने की शिक्षा दी जाती थी। गुरुकुलों का यह संदेश आज भी प्रासंगिक है। यदि हम इस परंपरा को अपनाएं और शिक्षा के प्रत्येक क्षेत्र में आत्मनिर्भरता को बढ़ावा दें, तो हम न केवल अपने विद्यार्थियों को सफल बना सकते हैं, बल्कि एक सशक्त और आत्मनिर्भर भारत का निर्माण भी कर सकते हैं।

आत्मनिर्भर भारत का सपना तभी साकार हो सकता है, जब हम अपने विद्यार्थियों को आत्मनिर्भर बनाएंगे और उन्हें अपने जीवन के सभी पहलुओं में स्वतंत्रता और जिम्मेदारी का अहसास कराएंगे। गुरुकुलों से प्राप्त शिक्षा पद्धति को आज के समय में अपनाकर हम आत्मनिर्भर छात्र और आत्मनिर्भर शिक्षक तैयार कर सकते हैं, जो अंततः एक आत्मनिर्भर और समृद्ध भारत का निर्माण करेंगे।

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