दिल्ली। Liasoner शब्द पर आपत्ति हो सकती है लेकिन जितने पैसे बतौर पेशेवर मोतीजी को मिल रहे थे, उससे कम पैसे में अंग्रेज वकील उपलब्ध हो सकते थे। कोई तो बात थी कि मोतीलालजी पर अधिक विश्वास किया गया। उनकी जीवनशैली एक अंग्रेज जैसी ही थी। बस उनकी चमड़ी का रंग भारतीय था लेकिन उनकी जीवनशैली,भाषा, विचारधारा सब अंग्रेजी हो चुकी थी। विषय अध्ययन और शोध का है इसलिए इस टिप्पणी को किसी निष्कर्ष के तौर पर नहीं देखा जाना चाहिए लेकिन सवाल तो उठता है।
मोतीलाल ने अपने जीवन में अंग्रेजी जीवनशैली को अपनाया और उनकी शानोशौकत-जैसे आनंद भवन में बिजली, टेलीफोन, और यूरोपीय ढंग का रहन-सहन-उस समय के औसत भारतीय से बिल्कुल अलग थी। उनकी वकालत की सफलता और धन-संपत्ति ने उन्हें उस दौर के भारतीय समाज में एक अभिजात्य वर्ग (elite) का हिस्सा बना दिया था।
यह भी सच है कि उस समय भारत में गरीबी, अकाल और भुखमरी व्यापक थी – खासकर 19वीं सदी के अंत और 20वीं सदी की शुरुआत में अंग्रेजी शासन के दौरान हुए कई अकालों (जैसे 1896-97 और 1899-1900 के अकाल) में लाखों लोग मारे गए थे। इस पृष्ठभूमि में मोतीलाल का ऐश्वर्यपूर्ण जीवन निश्चित रूप से विरोधाभासी दिखता है।
उनकी इस जीवनशैली ने उन्हें आम जनता से दूर रखा, और यह आलोचना स्वाभाविक है कि जब देश भुखमरी और गुलामी से जूझ रहा था, तब वे और उनके जैसे लोग ऐशोआराम में थे।
उनके क्लाइंट्स में उत्तर प्रदेश और आसपास के क्षेत्रों के बड़े जमींदार और रियासतों के प्रतिनिधि प्रमुख थे। जितना पैसा वकालत के लिए उस दौर में वे ले रहे थे, यह जानना किसी के लिए भी हैरान करने वाला हो सकता है। क्या इतना पैसा वे दलील के लिए ले रहे थे या अंग्रेज जजों और जमींदारों के बीच वे एक कड़ी का काम कर रहे थे। अपने व्यवहार से उन्होंने अंग्रेज अफसरों से लेकर जज तक का दिल जीत कर रखा था। इसीलिए उनका बेटा जब भी जेल गया, उसकी सुख सुविधा में अंग्रेजों ने कभी कोई कमी नहीं रखी। उन्होंने जो भी चाहा, उन्हें जेल में मिला। जेल भी कई बार उनकी पसंद से ही दी जाती थी। जो अंग्रेजों के सामने कथित माफीवीर थे, उन्हें तो कालापानी मिल रहा था। जो कथित तौर पर अंग्रेजों से लोहा ले रहे थे, उन्हें अंग्रेज समोसा और चाय पेश कर रहे थे। उनसे जेल में मिलने के लिए आने जाने वालों पर भी कोई विशेष पाबंदी नहीं थी।
मोतीलाल एक केस के लिए कितना पैसा लेते थे? इस संबंध में यह दर्ज है कि 1894 में उन्होंने इटावा जिले के लखना राज का एक केस लड़ा, जिसके लिए उन्हें 1 लाख 52 हजार रुपये की फीस मिली थी। यह उस समय की बहुत बड़ी रकम थी, जब सोने का भाव लगभग 45 रुपये प्रति तोला और एक कलेक्टर की मासिक तनख्वाह करीब 100 रुपये हुआ करती थी।
मोतीलाल की फीस के बारे में ठोस जानकारी अलग-अलग स्रोतों में भिन्न-भिन्न मिलती है, लेकिन यह माना जाता है कि उनकी रोजाना की फीस 2500 रुपये से अधिक हो सकती थी, खासकर उनके करियर के शीर्ष पर। कुछ जगह यह भी कहा जाता है कि वे प्रति सुनवाई (per appearance) के लिए हजारों रुपये वसूलते थे। उस समय यह राशि इतनी बड़ी थी कि उनकी शानोशौकत और यूरोपीय जीवनशैली—का मुकाबला करने वाले भारतीय उंगलियों पर गिने जा सकते थे।
मोतीलाल की अंग्रेजी सरकार से नजदीकी और उनके बेटे को मिल रही विशेष सुविधाएं, क्या इसलिए थी क्योंकि मोतीलाल और उनका परिवार अंग्रेजी सरकार के लिए ‘उपयोगी’ थे। इस दिशा में अध्ययन अभी शेष है।
एलन ऑक्टेवियन ह्यूम (ए. ओ. ह्यूम) ने 1885 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना की। नौ सालों तक उन्होंने कांग्रेस के उदारवादी स्वरूप को बनाकर रखा। 1894 में उनके जाने के बाद धीरे धीरे कांग्रेस का उदारवादी स्वरूप खतरे में आने लगा था। गोपाल कृष्ण गोखले, बाल गंगाधर तिलक के प्रभाव में कांग्रेस का रुझान अधिक आंदोलकारी धारा की तरफ था। ऐसे समय में मोतीलाल नेहरू कांग्रेस के उदारवादी स्वरूप को बचाने के लिए पार्टी में सक्रिय होते हैं।
कांग्रेस ने अपने पिट्ठुओं से इतिहास लिखवाया है। एक कथित इतिहासकार बिना शर्मिन्दा हुए खुद को नेहरूवादी बताते हैं। जब इतिहासकार मोती और जवाहर के प्रभाव में होगा फिर वह इतिहास लिखेगा या नेहरू परिवार का जयगान! यह समझना कोई रॉकेट साईंस है क्या?
इतिहास को लेकर बहुत सारा पढ़ने और झूठ को हटाकर सच को स्थापित करने की जरूरत है। हमारा इतिहासकार जिनका महिमागान कर रहा है, वह डिजर्व भी करते हैं इसे। यह सवाल अब भी देश के सामने है!