शृंखला आलेख – 13: जब स्कूल तोड़े जा रहे थे

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रायपुर : जनजातीय क्षेत्रों में शिक्षा की स्थिति, स्कूलों  के हालात और मास्टरों की हाजिरी को ले कर तरह तरह के प्रश्न चिन्ह हैं। यहाँ सवाल का उठना  सही भी हैं लेकिन सीधे माओवाद से जब इन कारकों को जोड़ दिया जाता है तब विवेचना अवश्यंभावी हो जाती है। ‘स्कूल नहीं हैं तो बच्चा क्या करेगा नक्सलवादी ही बनेगा’ वाला एक नैरेटिव दिल्ली और इर्दगिर्द के विमर्श जगत में बहुत सामान्य है। यह इतनी आसानी से हजम हो जाने वाली गोली है कि एक दौर में मेरा भी यही मानना था कि चम्बल में डाकू और देश में नक्सल शिक्षण संस्थाओं, विशेष रूप से स्कूलों की कमी की उपज हैं, बहुत बाद में पता लगा कि बागी होना भी एक विचार है जिसकी आड़ में डाकू ने बंदूख उठाई है और लाल-आतंकवादी ने भी वाम विचारधारा के पोषण के लिए हथियार थामें हुए हैं; इनका शिक्षा, स्वास्थ, सड़क जैसी बुनियादी आवश्यकताओं से कोई संबंध नहीं है। इंफ्रास्ट्रक्चर तो डकैतों और नक्सलियों के दुश्मन हैं, उनके अस्तित्व के लिए सबसे बड़ा खतरा हैं। 

रियासतकालीन बस्तर में अंदरूनी क्षेत्रों में भी स्कूल खोले जाने लगे थे। बात वर्ष 1910 के आसपास की है, बस्तर रियासत के दीवान थे पंडा बैजनाथ जिनकी इच्छा तो प्रगतिशील सोच प्रदर्शित करती है लेकिन प्रतिपादन तानाशाही वाला था। उन दिनों बच्चों का स्कूल जाना केवल अनिवार्य ही नहीं किया गया बल्कि नहीं जाने पर बच्चों और उनके पालकों के लिए कठोर सजायें नियत कर दी गयीं। यह तरीका अञ्चल में हुए महानतम आंदोलन भूमकाल के विभिन्न कारकों में से एक गिना जाता है। बाद के राजाओं और अंग्रेजों ने इसके पश्चात अनेक छोटे बड़े शाला भवन बनवाये लेकिन अब बच्चों या पालकों से जोर-जबरदस्ती करने का रिवाज नहीं था। आजादी के बाद अबूझमाड को छोड़ कर शेष बस्तर के आमतौर पर सभी ब्लॉक तक छोटी बड़ी शालायें पहुँचने लगी थी, यद्यपि दुर्गम स्थलों की भरपूर अनदेखी हुई इसमें भी कोई संदेह नहीं है। जनजातीय क्षेत्रों में अध्यापकों की कामचोरी और लापरवाही की भी अनेक कहानियाँ हैं जिसको विषय से अलग कर के नहीं देखा जा सकता। 

अब प्रश्न यह कि माओवादियों की आमद के बाद अचानक स्कूल जनता के शत्रु क्यों बना गये? वर्ष 2004 से 2010 के मध्य असंख्य शाला भवनों को माओवादियों ने बारूद लगा कर उड़ा दिया। इस कुकृत्य के पीछे तर्क दिया गया कि सुरक्षा बल इन स्कूलों में  कर रुकते हैं इसलिए इनको नष्ट किया जा रहा है। मैंने अनेक नष्ट शाला भवनों का उस दौर में दौरा किया है, सोचिए कि तीन चार कमरों के विद्यालय में सुरक्षा बलों को ठहरने पर कैसी और कितनी सुरक्षा मिल सकती थी? तत्कालीन सरकारों ने नक्सलियों और शहरी नक्सलियों के आरोप का तरह तरह से खण्डन करने का प्रयास किया था कि सुरक्षा बलों को विद्यालय में ठहरने से प्रतिबंधित किया जा रहा है अथवा आरोप मिथ्या हैं आदि, इसके बाद भी शाला भवनों का नष्ट किया जाना जारी रहा। उस दौर में छत्तीसगढ़ सरकार ने पक्के शाला भवनों का विकल्प पोर्टा केबिन के रूप में तलाशा जो टाट-चटाई और अस्थाई वस्तुओं से निर्मित हुए थे। यह असुरक्षित संरचना है कई बार आग लग चुकी है, जिनमें बच्चों की मौत भी हुई है।

विद्यालय इसलिए नहीं तोड़े गए थे कि उनमें फोर्स रुकती है, बल्कि इसलिए क्योंकि माओवादी एक व्यवस्था को पूरी तरह से अपने कब्जाये हुए परिक्षेत्र से खदेड़ देना चाहते थे। इससे भीतर क्या हो रहा है वह सूचनातंत्र अवरुद्ध होता, आधारक्षेत्र का विस्तार होता और वे अपना कैडर भी इस तरह बढ़ा सकते थे। कितना आश्चर्य है न कि केरल से भी बड़े भूभाग में दशकों से यह सब होता रहा फिर भी मौन ही पसरा रहा है।     

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राजीव रंजन प्रसाद

राजीव रंजन प्रसाद

राजीव रंजन एक पुरस्कार विजेता लेखक और पर्यावरणविद् हैं। जिन्हें यथार्थवादी मुद्दों पर लिखना पसंद है। कविता, कहानी, निबंध, आलोचना के अलावा उन्होंने मशहूर नाटकों का निर्देशन भी किया है।

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