कौन सही कह रहा है? भारतीय नौसेना के कैप्टन शिव कुमार या अमेरिकी फाइटर पायलट बोडनहाइमर?

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अनुराग पुनेठा

पहली आवाज़ — भारतीय नौसेना के कैप्टन शिव कुमार की। सिंगापुर के एक सेमिनार में उन्होंने साफ कहा कि इस ऑपरेशन में भारतीय वायुसेना को शायद कुछ नुक़सान उठाना पड़ा। उनका बयान जैसे ही द वायर में छपा, रणनीतिक गलियारों में हलचल मच गई — क्या हमने कुछ फाइटर जेट खो दिए?

वहीं दूसरी तरफ़ — पूर्व अमेरिकी वायुसेना पायलट रयान बोडनहाइमर का दावा। उनकी रिपोर्ट कहती है कि रफाल जेट में लगे AI से लैस X-गार्ड डिकॉय सिस्टम ने पाकिस्तान के एयर डिफेंस को ऐसे चकमा दिया कि दुश्मन की मिसाइलें फुस्स हो गईं। उनके मुताबिक भारतीय वायुसेना ने एक भी जेट गँवाए बिना दुश्मन को पीछे धकेल दिया।

सवाल यही है — किसकी कहानी सच है?

भारत के चीफ़ ऑफ डिफेंस स्टाफ जनरल अनिल चौहान ने भी सीधे-सीधे कुछ नहीं कहा — न पुष्टि, न खंडन। इस खामोशी ने रहस्य को और गहरा कर दिया है।
तो क्या ऑपरेशन सिंदूर एक बेदाग़ टेक्नोलॉजिकल जीत थी या फिर इसमें वीरता की क़ीमत भी चुकानी पड़ी?

सच्चाई अभी धुंध में है —

*सवाल यह नही है कि भारत को कुछ नुकसान उठाना पडा कि नही , सवाल बड़ा तब होता है, कि देश के नुकसान में जश्न तलाशने की मानसिकता का क्या किया जाये*..

दुनियां मे कोई भी जंग बिना कुछ नुकसान उठाये नही जीती गयी, ना महाभारत ना दूसरा विश्वयुद्ध और ना ही ईज़राइल ईरान युद्ध .. जब हम इतिहास की तरफ़ देखते हैं। कोई भी युद्ध बिना ज़ख्म के नहीं जीता गया। न ही भारत ने, न ही दुनिया की महाशक्तियों ने।

अमेरिका वियतनाम से लेकर अफगानिस्तान तक में सुपरपावर होते हुए भी नुकसान उठाता रहा। वियतनाम युद्ध में अकेले अमेरिका के करीब 58,000 सैनिक मारे गए। अफगानिस्तान में बीस साल की लड़ाई ने हज़ारों सैनिक और खरबों डॉलर की कीमत वसूली — और अंत में तालिबान फिर से सत्ता में लौट आया।

दूसरे विश्व युद्ध में मित्र राष्ट्रों ने हिटलर को धूल चटाई, पर क्या नुक़सान नहीं हुए? दूसरे विश्व युद्ध में लगभग 5 करोड़ लोग मारे गए, जिनमें 2.5 करोड़ से ज्यादा सैनिक शामिल थे। मित्र राष्ट्रों के खुद पर युद्ध अपराध के आरोप भी लगे, लेकिन कोई भी देश उस वक़्त खुलकर अपने घाव नहीं दिखाता।

भारत भी इससे अछूता नहीं रहा। 1971 के युद्ध में हमारी जीत ऐतिहासिक थी — पर उसकी भी क़ीमत चुकानी पड़ी। करीब 3,800 से ज्यादा सैनिक शहीद हुए, 9,800 घायल हुए और 2,000 से ज्यादा सैनिक लापता हुए। लेकिन यह सब आँकड़े बाद में इतिहास में दर्ज हुए, जंग के बीच में कभी किसी ने नुक़सान की गिनती नहीं गाई।
कोई भी युद्ध ‘क्लीन’ नहीं होता

युद्ध में एक रणनीतिक सच यही होता है — ‘नो वार इज़ क्लीन’। यानी कोई भी जंग सौ फ़ीसदी बेदाग़ नहीं होती। जो दावा करे कि सब कुछ बिल्कुल परफेक्ट रहा, वो या तो नैरेटिव बना रहा है या फिर मनोबल साध रहा है। यही वजह है कि बड़े-बड़े झटके तुरंत नहीं बताए जाते। वे रणनीतिक गोपनीयता के अंदर बंद रहते हैं, ताकि दुश्मन को फायदा न हो और अपनों का हौसला बना रहे। पर अंत में यही सच भी है — जंग में लगे घाव मायने नहीं रखते, मायने आख़िरी मुक्के के होते हैं। जैसे बॉक्सिंग बाउट में जीत उसी की होती है जो विरोधी को रिंग में गिरा दे।

नॉर्मंडी पर नज़र डालिए — मित्र राष्ट्रों ने जर्मनी पर धावा बोला, हज़ारों सैनिक समुद्र में उतरे, बड़ी संख्या में शहीद हुए और युद्ध अपराधों के साये भी थे। लेकिन आज भी पूरी दुनिया उनकी बहादुरी को सलाम करती है — क्योंकि आख़िरी मुक्का उन्होंने जर्मनी को दिया था।

तो ऑपरेशन सिंदूर में भी सवाल यही नहीं कि पंच पड़े या नहीं — सवाल यह है कि आख़िरी पंच किसका भारी था? और जब तक दुश्मन की हिम्मत टूटती है, तब तक लड़ाई में लगे छोटे-बड़े घाव बस सम्मान के निशान होते हैं।

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