लेख- कानून की बदलती परिभाषा?

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सोनम लववंशी

न्याय का मकसद केवल कानून के शब्दों की व्याख्या करना नहीं होता, बल्कि पीड़ित को न्याय दिलाना भी होता है। लेकिन जब अदालतें ऐसे फैसले सुनाने लगें, जो अपराधियों के पक्ष में झुके हुए प्रतीत हों, तो यह स्पष्ट हो जाता है कि हमारी न्यायिक व्यवस्था में कोई गंभीर खोट है। इलाहाबाद हाईकोर्ट का यह फ़ैसला कि किसी नाबालिग लड़की के स्तनों को पकड़ना, उसके कपड़ों से छेड़छाड़ करना या उसे जबरन पुलिया के नीचे ले जाने की कोशिश करना ‘बलात्कार’ या ‘बलात्कार के प्रयास’ की श्रेणी में नहीं आता—यह केवल एक न्यायिक भूल नहीं, बल्कि सामाजिक पतन का प्रमाण है। हमारी न्यायिक व्यवस्था का मूलभूत सिद्धांत यह होना चाहिए कि किसी भी निर्णय से पीड़िता को न्याय मिले और अपराधी को दंड मिले, ताकि भविष्य में कोई और ऐसी घृणित हरकत करने से पहले सौ बार सोचे। परन्तु वर्तमान में यह फैसला ठीक इसके उलट जाता है। यह न केवल पीड़िता के घावों पर नमक छिड़कता है, बल्कि अपराधियों को एक नया बहाना भी देता है कि, “हमने तो बस छूकर देखा था!” क्या अब अपराधियों को यह छूट दी जाएगी कि वे लड़की के शरीर के साथ किसी भी हद तक जाएं और जब तक बलात्कार की ‘पूर्णता’ न हो, तब तक वे निर्दोष बने रहें?

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के अनुसार, 2021 में भारत में 32,000 से अधिक बलात्कार के मामले दर्ज हुए थे। इसका मतलब है कि हर 16 मिनट में एक महिला बलात्कार का शिकार होती है। वहीं हालिया घटनाओं पर नजर डालें तो जनवरी 2025 में, केरल राज्य में एक दलित लड़की के साथ पाँच वर्षों तक 60 से अधिक व्यक्तियों द्वारा सामूहिक बलात्कार का मामला सामने आया, जिसमें अब तक 44 लोगों को गिरफ्तार किया गया है। मार्च 2025 में ही कर्नाटक में एक इज़राइली पर्यटक और उसकी भारतीय मेज़बान के साथ सामूहिक बलात्कार की घटना हुई, जिसमें दो संदिग्धों को गिरफ्तार किया गया है। इन घटनाओं से स्पष्ट होता है कि भारत में यौन अपराधों की समस्या गंभीर बनी हुई है, और इस दिशा में प्रभावी कदम उठाने की आवश्यकता है। लेकिन यह सिर्फ वे मामले हैं जो रिपोर्ट हुए। हजारों-लाखों महिलाएँ सामाजिक डर, परिवार के विरोध, और न्यायिक प्रक्रिया की जटिलताओं के कारण शिकायत तक दर्ज नहीं करा पातीं। ऐसे में, जब अदालतें इस तरह के फैसले सुनाती हैं, तो यह एक स्पष्ट संकेत देता है कि अपराधियों को बचाने के लिए हमारे कानून की परिभाषाएँ इतनी जटिल बना दी गई हैं कि न्याय केवल शब्दों की भूलभुलैया में उलझकर रह जाता है।

भारत में यौन अपराधों की संख्या लगातार बढ़ रही है। कई अध्ययन बताते हैं कि 90 फीसदी मामलों में अपराधी पीड़िता का कोई परिचित ही होता है—कभी शिक्षक, कभी रिश्तेदार, तो कभी कोई पड़ोसी। लेकिन इस न्यायिक फैसले से ऐसा प्रतीत होता है कि जब तक अपराधी अपनी ‘नीयत’ को पूरी तरह से अंजाम नहीं दे देता, तब तक वह निर्दोष बना रहेगा। ऐसे में यह किस प्रकार का न्याय है? क्या हमें तब तक इंतज़ार करना चाहिए जब तक कि लड़की की पूरी अस्मिता लूट न ली जाए? बलात्कार या यौन उत्पीड़न केवल शरीर का अपराध नहीं होता, बल्कि यह मानसिक और भावनात्मक यातना भी होती है। पीड़िता का आत्मसम्मान, उसका आत्मविश्वास और उसका पूरा व्यक्तित्व इस अपराध से प्रभावित होता है। लेकिन जब अदालतें ऐसे फैसले सुनाती हैं, तो वे इस बात को पूरी तरह अनदेखा कर देती हैं। कानून का काम केवल कानूनी किताबों में लिखे शब्दों को दोहराना नहीं, बल्कि न्याय को वास्तविकता में उतारना भी होता है।

2012 में हुए निर्भया कांड ने पूरे देश को झकझोर दिया था। उस वक़्त ऐसा लगा कि भारत की न्यायिक व्यवस्था और समाज दोनों बदलेंगे। जनता के भारी दबाव के बाद सरकार को बलात्कार के कानूनों में संशोधन करने पड़े, कड़े दंड तय किए गए, लेकिन क्या अपराध रुके? एनसीआरबी के आंकड़े बताते हैं कि 2012 के बाद से भारत में बलात्कार के मामलों में लगातार वृद्धि हुई है। हाथरस केस को ही ले लीजिए, जहाँ एक दलित लड़की के साथ गैंगरेप हुआ और फिर प्रशासन ने बिना परिवार की अनुमति के उसका अंतिम संस्कार कर दिया। कठुआ केस को याद करिए, जहाँ एक मासूम बच्ची के साथ मंदिर में बलात्कार किया गया और कुछ लोग अपराधियों के समर्थन में रैलियाँ निकाल रहे थे। ऐसे माहौल में जब हमारी अदालतें यह तय करने में लग जाए कि कौन-सा अपराध ‘पूरी तरह’ अपराध है और कौन-सा नहीं, तब यह समझना कठिन नहीं कि हमारी न्याय प्रणाली किस दिशा में जा रही है।

जब कोई पीड़िता शिकायत दर्ज कराती है, तो उसे न्याय मिलने में सालों लग जाते हैं। भारत में बलात्कार के मामलों की सजा दर सिर्फ 28 प्रतिशत है। इसका मतलब यह है कि हर 100 में से 72 अपराधी या तो छूट जाते हैं या फिर उन पर कोई ठोस कार्यवाही नहीं होती। कारण? सुस्त न्याय प्रक्रिया, लचर जांच, और समाज में व्याप्त पितृसत्तात्मक मानसिकता। आरोपी को बचाने के लिए ‘नीयत’ और ‘पूरी घटना’ जैसी दलीलें दी जाती हैं, जबकि पीड़िता को उसके कपड़ों, चरित्र और परिस्थितियों को लेकर कटघरे में खड़ा कर दिया जाता है। न्याय की ऐसी परिभाषा, जहाँ पीड़िता को ही दोषी ठहरा दिया जाए, क्या सच में न्याय है? कई बार यह दलील दी जाती है कि महिलाओं द्वारा झूठे मुकदमे दर्ज कराए जाते हैं, लेकिन एनसीआरबी के ही आंकड़े बताते हैं कि 90 प्रतिशत से अधिक मामलों में पीड़िताओं की शिकायतें सही पाई जाती हैं। इसके बावजूद, जब भी कोई महिला न्याय की गुहार लगाती है, तो सबसे पहले उस पर संदेह किया जाता है। क्या यह समाज और न्याय व्यवस्था का पाखंड नहीं है?

ऐसे में यह सुनिश्चित करना होगा कि कानून में यौन उत्पीड़न और बलात्कार के प्रयास की परिभाषाएँ इतनी स्पष्ट हों कि कोई अपराधी कानूनी पेचीदगियों का फायदा न उठा सके। फास्ट-ट्रैक अदालतों की संख्या बढ़ाई जाए और ऐसे मामलों में त्वरित सुनवाई सुनिश्चित की जाए। न्यायधीशों को जेंडर सेंसिटिविटी पर प्रशिक्षण दिया जाए, ताकि वे अपराध को केवल ‘शारीरिक संपर्क’ तक सीमित करके न देखें, बल्कि मानसिक और सामाजिक प्रभाव को भी समझें। कई बार पीड़िता को धमकाया जाता है, उसे चुप रहने के लिए मजबूर किया जाता है। ऐसे मामलों में सरकार को सुनिश्चित करना चाहिए कि पीड़िताओं को पर्याप्त सुरक्षा मिले। समाज में यह जागरूकता लानी होगी कि यौन अपराधों को सहना कोई समाधान नहीं है। महिलाओं को सशक्त बनाना और उनकी सुरक्षा सुनिश्चित करना हमारी सामूहिक जिम्मेदारी है।

आज जब देश डिजिटल इंडिया, आत्मनिर्भर भारत और वैश्विक नेतृत्व की बातें कर रहा है, तब हमारी न्यायिक व्यवस्था ऐसे शर्मनाक फैसले सुना रही है। यह न केवल न्यायपालिका की संवेदनहीनता को दर्शाता है, बल्कि अपराधियों को खुली छूट भी देता है। न्याय में निष्पक्षता होनी चाहिए, लेकिन जब यह निष्पक्षता अपराधियों को बचाने लगे, तो यह अन्याय में बदल जाती है। अगर हमने अब भी आवाज़ नहीं उठाई, तो कल हमारे घर की मां, बेटियाँ और बहनें इसी न्याय प्रणाली के आगे गिड़गिड़ाती नज़र आएँगी। न्याय केवल किताबों में लिखे कानूनों से नहीं मिलता, बल्कि इसे महसूस करने की ज़रूरत होती है, और जब अदालतें इस भावना से अछूती हो जाएँ, तो समाज को खुद अपनी लड़ाई लड़नी पड़ती है। इतिहास यह ज़रूर दर्ज करेगा कि जब न्याय के मंदिरों में अन्याय की आरती उतारी जा रही थी, तब समाज कहाँ खड़ा था? हम चुप रह गए, तो न्याय की यह चिता और भी भड़क उठेगी और अब तो न्याय की देवी की आँखों पर पट्टी भी नहीं, फिर कैसे यह अन्याय हो रहा। यह समझ से परे है।

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