
डॉ. विशाला शर्मा
हमारे हृदय में बसने वाले राम हमारे भीतर का प्रकाश है और रामायण की आत्मा है रामायण जीवन जीने की सबसे उत्तम शिक्षा देता है और विश्व के सम्मुख रामराज्य की अवधारणा को स्थापित करता है रामराज्य की नींव जनक की बेटियां है सही तरीके से जीवन जीना और आंतरिक शांति बनाए रखना रामायण का मूल है जब समाज में बुराई सहनशीलता की रेखा को पार कर जाती है तो एकमात्र तरीका उस व्यक्ति को रोकना है जिसने बुराई मौजूद है बाली हो या रावण जिसने बुराई का प्रतिनिधित्व किया राम ने उन्हें नष्ट कर दिया 24000 श्लोकों के साथ 500 उपखंड तथा सात कांड में विभक्त सनातन संस्कृति का प्रतिनिधित्व ग्रंथ रामायण त्याग ,प्रबंधन कौशल ,प्रेम भाईचारे और संबंधों की घनिष्ठता के साथ हमारी आंतरिक आत्मा को छू लेता है मन की शांति ही सीता है। जिस दिन मन स्वर्णमृग पर आसक्त होगा उसी दिन से कष्टों का प्रारम्भ होगा। जब सीता ने अपने राम से स्वर्ण मृग की अपेक्षा की तो राम सीता से दूर चले गये। क्योंकि मन का गलियारा बहुत छोटा होता है,उसमें दो नहीं रह सकते। राम को रख लो या फिर माया (स्वर्ण) को रख लो। लौकिक दृष्टी से सीता के लिए स्वर्ण मृग प्रथम और राम द्वितीय हो गये।
जब स्वर्ण सहज भाव से आता है तो वह राम की कृपा का प्रसाद होता है, परन्तु जब वह असहज भाव से आता है तो भीतर के राम को उसके स्थान से हटाकर स्वयं विराजित हो जाता है।
सच कहें तो गीता का उपदेश भी यही है कि- यदि उनकी कृपा से सहज होकर स्वर्ण आता है तो वह अलौकिक सुख के साथ लौकिक सुख की रचना करेगा। ऐसे व्यक्ति का शरीर तो मथुरा में होगा परन्तु मन वृंदावन में विचरण करेगा।
नानक ने 550 वर्ष पूर्व 1469 में लिखा है-
संसार के महासागर में अपने को उसी के भरोसे छोड़ दो। न जप, न तप, न ध्यान, न धारणा, न लाभ, न हानि। एक ही विचार है उसकी इच्छा। स्वर्णमृग देना चाहे तो ठीक न देना चाहे तो ठीक, अपनी कोई चाहत नहीं। अर्थात-
लौकिक धरातल पर सीता का शरीर कुटिया के आँगन में है और मन स्वर्ण मृग के पीछे भाग रहा हैं जब भी जीवन में ऐसा होगा तब लक्ष्मण कितनी ही रेखाएँ खींच देे, शांति रूपी सीता का हरण अवश्य होगा।
हनुमान ने लंका जाते समय ऐसे प्रतीक की अपेक्षा की थी जिसमें स्वयं राम हो। इस अपेक्षा को राम समझ गये और उन्होंने राम नाम अंकित अपनी मुद्रिका हनुमान को दी।
’तब देखी मुद्रिका मनोहर ! राम नाम अंकित अति सुन्दर ।
मैं सोचता हूँ मुद्रिका देते समय राम के मुख पर प्रसन्नता के भाव रहे होंगे, वे भाव भंगिमा से यह समझाना चाहते है कि तुम्हे इसकी आवश्यकता नहीं है क्योंकि तुम्हारे भीतर मैं हूँ और मेरे भीतर तुम (शिव स्वरूप) परन्तु जिसका मन स्वर्णमृग के पीछे दौड़ने से मुझसे विरक्त हो गया था वहाँ तुम पुनः मेरे एहसास को स्थापित करना चाहते हो।
प्रभु की मुद्रिका है अर्थात मुद्रिका भी प्रभु ही है। इस देश में निर्गुण राम के उपासक सूफी संत कहते हैं- खुद की उपस्थिति का अहसास ही खुदा है। तेरी चाहता की वेदना ही परमानन्द है।
भीतर मेरे हे राम तेरा एहसास बना रहे।
न मैं रहूँ न मेरी आरजू रहे ।
जब तक हे तन में प्राण रगों में लहू रहे।
बस तू रहे और तेरी जुस्तजू रहे।
…2….
मुद्रिका धातु की है, लौकिक है। राम के स्पर्श के कारण अलौकिक हो गई। यही भाव केवट का अपनी नौका के प्रति था। जिस नौका में राम विराजे वह नौका केवट के लिए वंदनिय हो गयी। उस नौका के भीतर वह सदैव राम की उपस्थिति की अनुभूति करता है। यहाँ गौस्वामी तुलसीदास कहते है-
’’जड़ चेतन सब जीव जग, सकल राम मय जानि।’’
जिस दिन हनुमान ने यह मुद्रिका पेड़ के ऊपर बैठकर सीता की झोली में डाली उसी दिन से कष्टों का हिमालय गलने लगा और गंगा सागर स्वयं गंगौत्री के पास आ गया। आत्मा और परमात्मा का विछोह समाप्त हो गया। यहाँ गंगोत्री सीता का प्रतीक है और गंगा सागर राम का।
संत कबीर कहते है- मैं का विगलन (गलजाना) ही हरि है। ज्ञान भक्ति और कर्म तीनों का सार है- अहंकार के हिमालय का विगलन।
‘‘बूंद बनने को समन्दर की हिमालय गल रहा है।’’ मैं तो बर्फ का ढैला है जिस दिन गल जायगा उस दिन शून्य हो जायेगा। बुध्द कहते हैं- जब तुम शून्य हो जाओगे तभी तुम्हारे भीतर का अंतरमन ज्ञान के प्रकाश से भर जायगा। अर्थात –
जब मैं था तब हरि नहीं,
अब हरि है मैं नहीं।
अहंकार एक आवरण है। यह घना कोहरा है जिसने सत्य को ढक लिया है। गीता ने इसे तमोगुण कहा है। दूसरी ओर जीवन का सतोगुण स्वयं राम है। उसके विश्वास का प्रकाश ही तमोगुण का नाश कर सकता है। जिस दिन सीता ने मुद्रिका को मस्तक से लगाया उसी दिन से सर्वत्र जड़ और चेतन में उसकी उपस्थिति का ऐहसास होने लगा।
दूसरी ओर राम दूत ने अनुभव करा दिया कि जिसका दूत अपराजितों को भी पराजित कर सकता है। उसकी इच्छा के बिना संसार की कोई भी दिव्य शक्ति उसे बाँध नहीं सकती। महावीरों की उपस्थिति में भी वह लंका दहन कर सकता है अर्थात दूत भी साधारण नहीं है, तब हे ! लंकेश श्री राम को असाधारण कैसे समझ रहे हो।
हर व्यक्ति को परमात्मा ने शुभ और अशुभ के सोच के कई आधार दिये हैं। रावण के पास इसके दस आधार थे इसलिऐ उसे दशानन कहते हैं परन्तु शुभ का सोच भी उसकी उपस्थिति के ऐहसास से ही संभव है। बिना उसकी कृपा के अशुभ से नहीं बचा जा सकता। उसका ऐहसास तो घने अंधकार के मध्य आत्मा में जलने वाले उस दीप की तरह है जो हमारा मार्ग प्रशस्त करता है।
लोग कहते है वह करोड़ या अबरपति है अर्थात धनपति है। पति का अर्थ स्वामी है। इसलिए धन उसका दास है। यदि दास चला जाय तो स्वामी को फर्क नहीं पड़ता। भारत में इस दास को चंचला कहते है। जाना और आना उसकी प्रकृति है। फिर भी इस दास के जाने पर हार्ट अटैक आता है। इस सत्य को समझकर मीरा ने सब कुछ त्याग दिया। केवल उसकी उपस्थिति को भीतर और बाहर अनुभव करते हुए उस युग के सम्राट अकबर की उपस्थिति में कहा-पायो जी मैंने राम रतन धन पायो।
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परम तत्व को ही जिसने अपनी सम्पत्ति मान लिया, उसके लिए फिर संसार में क्या शेष रह जाता है। मीरा हो या तुलसी दोनों के लिए आराध्य ही परम तत्व थे।
लंका में अशोक वाटिका है। अशोक का अर्थ होता है जहाँ शोक न हो। परन्तु नाम में क्या रखा है ? नाम की सार्थकता भी उसकी अनुभूति में निहीत हैं। मातुश्री की प्रसन्नता हनुमान के सामर्थ और मुद्रिका के भीतर से प्रवाहित राम के दिव्य प्रकाश में निहीत है। इसी समन्वय ने शोक का हरण किया।
दूसरी ओर जनक वाटिका है जिसमंे सीता राम का पाने के लिए व्याकुल है। राम से मिलने के लिए गौरी से प्रार्थना करती है, जो परम तत्व विचरण करते हुए बाहर दिखलाई दे रहा है, उसे भीतर स्थापित करना चाहती है। सार इतना है कि शुभ की चाहत ही शुभ को फलित करती है। भक्त और भगवान के बीच जो अवरोध है उसे सूफी संतों ने आवरण कहा है। इसके लिए हिज़ाब शब्द का प्रयोग किया है। हिज़ाब हटने पर वह दिखलाई देने लगता है उसकी उपस्थिति का ऐहसास होने लगता हे।
हुस्न भी हो हिज़ाब में और इश्क भी हो हिज़ाब में
या खुद आश्गार हो या मुझ को आश्गार कर।
भक्त सूरदास नैत्रहीन थे। एक बार वे किसी गर्त में गिर गये। बाहर निकलना उनके लिए संभव नहीं था। ऐसे में सूर के सखा कृष्ण ने स्वयं आकर उनकी बाँह पकड़ी और बाहर निकाला। सूर कृष्णा की उपस्थिति का ऐहसास करने लगे और बोले-
बाँह छुड़ाए जात हो, निबल जानिके मोही,
हृदय ते तब जाहिगो, सबल जानुंगो तोही।
कृष्ण को चेलेंज कर दिया और कहते हैं बालकृष्ण माँ यशोदा का हृदय पाने वाले सूर के भीतर सदैव मौजूद रहे। कृष्ण हो या राम सार इतना सा है-
राम की उपस्थिति का ऐहसास ही राम है।
(लेखिका प्रोफेसर एवं हिंदी विभागाध्यक्ष छत्रपति संभाजी नगर महाराष्ट्र)