प्रयागराज, हरिद्वार, उज्जैन और नासिक—जहाँ भी कुंभ का आयोजन होता है, वहाँ करोड़ों श्रद्धालु उमड़ते हैं। यह केवल एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि भारतीय संस्कृति की गहराई, व्यापकता और एकता का महोत्सव है। यह सनातन परंपराओं का जीता-जागता प्रमाण है, जहाँ साधु-संतों से लेकर आमजन तक, आस्था के इस महासागर में डुबकी लगाने पहुँचते हैं। लेकिन जब देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी, जिसने दशकों तक सत्ता चलाई, इस महापर्व से स्वयं को दूर कर ले, तो यह केवल राजनीतिक चूक नहीं, एक गहरी वैचारिक खाई का संकेत देता है।
कुंभ में हर बार राजनीतिक दलों के प्रतिनिधि आते रहे हैं। प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री, मंत्रीगण और अन्य नेता संतों का आशीर्वाद लेने पहुंचते हैं, लेकिन कांग्रेस के किसी भी बड़े नेता का वहाँ न पहुँचना महज संयोग नहीं, बल्कि एक सोची-समझी रणनीति जान पड़ती है। आखिर क्या वजह है कि कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व इस आयोजन से दूरी बना लेता है? क्या कुंभ केवल एक धार्मिक आयोजन है, या फिर यह भारत की आत्मा से जुड़ा एक सांस्कृतिक पर्व भी है? दरअसल, कांग्रेस के अंदर पिछले कुछ दशकों में एक विचारधारा विकसित हुई है, जिसमें हिंदू प्रतीकों और आयोजनों से दूरी बनाने को ‘धर्मनिरपेक्षता’ समझा जाता है। यह पार्टी एक समय में सर्वसमावेशी हुआ करती थी, जिसने स्वतंत्रता संग्राम में सभी समुदायों को साथ लिया। लेकिन आज यह अपने ही मूल स्वरूप से भटक गई है। यह वही कांग्रेस है, जिसने कभी राम जन्मभूमि आंदोलन का विरोध किया, रामसेतु के अस्तित्व पर प्रश्नचिह्न लगाया, और हिंदू आतंकवाद जैसा शब्द गढ़कर सनातन आस्थाओं को कटघरे में खड़ा किया।
यदि कुंभ किसी विशेष राजनीतिक दल का आयोजन नहीं है, तो फिर कांग्रेस इसे अपने कार्यक्रमों की सूची से बाहर क्यों रखती है? क्या उसे यह भय है कि यदि वह ऐसे आयोजनों में शामिल हुई तो उसकी धर्मनिरपेक्ष छवि धूमिल हो जाएगी? लेकिन धर्मनिरपेक्षता का अर्थ धर्म से दूरी बनाना तो कतई नहीं होता, बल्कि सभी धर्मों का सम्मान करना होता है। जब कांग्रेस के नेता ईद की शुभकामनाएँ देने मस्जिदों में जा सकते हैं, क्रिसमस के मौकों पर चर्चों में प्रार्थना कर सकते हैं, तो फिर कुंभ में शामिल होने में कैसी हिचकिचाहट? क्या हिंदुओं के पर्वों से दूरी बनाकर ही वह अपनी ‘समावेशी राजनीति’ को बचाए रखना चाहती है? कुंभ केवल एक धार्मिक आयोजन नहीं, बल्कि सांस्कृतिक पहचान का प्रतीक है। इसका महत्व किसी भी मेले या राजनीतिक सभा से कहीं अधिक है। यहाँ आकर केवल स्नान नहीं होता, बल्कि संत-समागम के माध्यम से समाज को दिशा मिलती है, आध्यात्मिक चिंतन होता है, संस्कृति का संरक्षण होता है। जब राजनेता और शासक यहाँ आकर संतों का आशीर्वाद लेते हैं, तो यह केवल व्यक्तिगत आस्था का विषय नहीं रहता, पूरे समाज के प्रति एक सकारात्मक संकेत होता है। लेकिन कांग्रेस का इससे विमुख रहना उसके वर्तमान वैचारिक संकट को उजागर करता है। इसका असर भी स्पष्ट दिखता है।
कांग्रेस, जो कभी देश के हर वर्ग की पार्टी मानी जाती थी, आज हिंदू समाज के एक बड़े वर्ग की नज़र में अविश्वसनीय बन चुकी है। मंदिरों में दर्शन करना उसे राजनीतिक मजबूरी लगती है, जबकि दूसरी ओर अन्य दल इसे सहज रूप में अपनाते हैं। क्या यह अजीब नहीं कि जिस देश में बहुसंख्यक हिंदू हैं, वहाँ की सबसे पुरानी पार्टी हिंदू प्रतीकों से कतराने लगी है? क्या यह महज संयोग है कि कांग्रेस का समर्थन आधार दिनोंदिन सिकुड़ता जा रहा है? यहाँ एक और सवाल उठता है—क्या हिंदू समाज कांग्रेस के इस व्यवहार को समझ नहीं रहा? क्या वह नहीं देख रहा कि कांग्रेस का झुकाव किस दिशा में बढ़ रहा है? जब हिंदू आस्थाओं की बात आती है, तो कांग्रेस अक्सर या तो चुप्पी साध लेती है या फिर उसका स्वर आलोचनात्मक हो जाता है। जबकि अन्य समुदायों के मामलों में वह फौरन सक्रिय हो जाती है। यह भेदभाव स्पष्ट है और यही वजह है कि हिंदू समाज अब कांग्रेस को शक की नजर से देखने लगा है।
कुंभ से दूरी बनाकर कांग्रेस यह संकेत देती है कि वह अब अपने ही देश की सांस्कृतिक धारा से कट चुकी है। लेकिन क्या किसी भी राजनीतिक दल के लिए यह स्थिति लाभकारी हो सकती है? इतिहास गवाह है कि जो दल जनता की आस्थाओं को समझने में चूक करता है, वह धीरे-धीरे अप्रासंगिक हो जाता है। कांग्रेस का अस्तित्व भी इसी मोड़ पर खड़ा है—क्या वह अपने इस रवैये से कोई सबक लेगी? या फिर वह अपने ही ऐतिहासिक विरासत को भूलकर एक ऐसे मार्ग पर बढ़ती रहेगी, जो उसे राजनीतिक हाशिए पर ला खड़ा करेगा? कुंभ का आयोजन किसी सरकार या राजनीतिक दल की पहल पर नहीं होता, यह भारत की सनातन परंपरा का हिस्सा है। इसे किसी पार्टी के चश्मे से देखने की भूल करना कांग्रेस के लिए घातक साबित हो सकता है। अगर वह अपनी जड़ें बचाना चाहती है, तो उसे इस कटु सत्य को समझना होगा कि हिंदू समाज को नकारकर, हिंदुत्व से दूरी बनाकर, और अपनी विचारधारा को महज तुष्टीकरण तक सीमित करके वह न तो धर्मनिरपेक्ष रह पाएगी और न ही राजनीतिक रूप से प्रासंगिक। कुंभ तो हर बार आएगा, लेकिन क्या कांग्रेस को इसमें कोई स्थान मिलेगा? यह सवाल कांग्रेस के लिए सबसे बड़ा है।