रायपुर : छत्तीसगढ़ के गृह मंत्री श्री विजय शर्मा ने एक कार्यक्रम में बोलते हुए कहा था “कोई आतंकवादी पकड़ा जाता है अथवा समर्पण कर देता है तो उसपर आगे विश्वास करना असंभव है लेकिन बस्तर का कोई लड़का जो माओवादी बन गया है, यदि आज आत्मसमर्पण कर देता है तो कल से मैं उसे अपनी सुरक्षा में भी ले सकता हूँ, मुझे इतना भरोसा है कि वह जीजान लगा कर मेरी रक्षा ही करेगा। इस कथन ने मुझे विवेचना के लिए बाध्य किया है कि क्या माओवादी कैडर सवेच्छा से संगठन में है अथवा सत्य कुछ और है?
इसी कड़ी में बताना चाहता हूँ कि पिछले कुछ वर्षों में मैं अनेक माओवादियों-पूर्वमाओवादियों से मिला (इस संबंध में रचना नायडू जी Rachana Yadav Naidu के साथ मिल कर लिखी मेरी एक पुस्तक शीघ्र ही प्रकाशित हो कर आने वाली है)। नक्सल अर्थशास्त्र को उनसे जब जाना-समझा तो एक बात मेरे सामने थी कि मानवाधिकार की चीख पुकार मचाने वाले शहरी नक्सलियों ने कभी इस बात को रेखांकित क्यों नहीं किया कि मानवश्रम के सबसे बड़े शोषक हैं माओवादी।थोड़ी और स्पष्टता से बात करते हैं। नव-माओवादी अधिकतम पंद्रह से अठारह वर्ष की आयु में रिक्रूट किए जाते हैं। इससे पूर्व अधिकांश ग्रामीण बच्चे माओवादी खुफियातन्त्र की प्रथम पंक्ति अर्थात बालसंघम में कार्य कर चुके होते हैं। इस आयु में किस किशोर से क्रांति की बुनियादी समझ की अपेक्षा की जा सकती है? दुनिया की कौन सी मानवअधिकार संस्था इस आयु के बच्चों और किशोरों को मुखबिरी करने और शस्त्र चलाने जैसे कार्यों में झोंके जाने की समर्थक है? यदि कोई नहीं तो दुनिया भर के शहरी नक्सली देश-विदेश में मानवाधिकार के नाम पर सेमीनार करते ही रहते हैं, उन्होंने कभी अपना गिरेबान इस तरह से क्यों झांक कर नहीं देखा?
यह भी जानिए कि माओवादी बाकायदा एक आर्मडफोर्स की तरह कार्य करते हैं, उनकी बटालियन हैं अलग अलग रैंक हैं, पदोन्नति की विधियाँ हैं। दुनिया की कोई आर्मडफोर्स बताईये वह चाहे आतंकवाद का ही पोषण क्यों न् कर रही हो, जो अपने कैडर से मुफ़्त में काम लेती है? यह सही है कि माओवादियों का अर्थतन्त्र बहुत व्यापक है और उगाही करोड़ों की है लेकिन यह भी उतना ही बड़ा सत्य है कि माओवादी अपने कैडरों को उनके श्रम का एक रुपया भी नहीं देते। हां!! मजदूरों-किसानों की बात करने वाली पार्टी अपने मजदूर और किसान वर्ग से आये कैडरों को उनकी मेहनत और जीवन झोंक देने के एवज में कोई राशि नहीं देती। कैडर मुठभेड़ में मर गया तो परिजन को कोई कंपनशेसन नहीं दिया जाता, कैडर या उसके परिवार का कोई गंभीर रूप से बीमार हो गया तो गिनती के अपवाद छोड़ कर बहुत हद तक नीम-हकीमों के भरोसे ही उन्हें छोड़ दिया जाता है और माओवादी पार्टी इलाज का पैसा देने के नाम पर कन्नी काटती रहती है। अगर दिया जाता है तो मासिक कंघी, तेल, साबुन जैसी दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए दल के कमांडर को पैसा, जो अपने समूह की रोजमर्रा की आवश्यकताओ के सामान उन्हें उपलब्ध करा देता है। कोई वेतन न् दिए जाने के पीछे का तर्क है कि क्रांति का सिपाही को तनख्वाह क्यों चाहिए?
सोचिए कि यही तर्क बड़े माओवादी कैडरों पर लागू क्यों नहीं? माओवादीयों ने जो अर्थतन्त्र बना रखा है उसकी मोटी मलाई स्वयं शहरी नक्सली निगलते है। बड़े कैडर भी पीछे नहीं, अन्यथा सोचिए कि एक समय माओवादी संगठन के महासचिव रहे गणपति के सिंगापुर में होने के समाचार हवा में क्यों हैं? कई बड़े माओवादी इकट्ठा किया गया कैशडंप ले कर भी फरार हुए हैं। क्या आपने बालश्रम का ऐसा दोहन कहीं देखा, पढ़ा या सुना है? क्या मानवश्रम का ऐसा दोहन आपकी कल्पना में है? सच यह है कि विचारधारा की चाश्नी चटा कर बंदूख पकड़ने वाले बंधुआ मजदूरों की फौज है नक्सलवाद। मार्क्स और माओ के समानता और अधिकारवादी विचारों की वास्तविकता, थेथरई और नंगई को जानना है तो माओवाद को ठीक से समझिये।