महेंद्र शुक्ल
सोराब जी भारत और ब्रिटेन में कानून का अभ्यास करने वाली पहली महिला।कोर्नेलिया का जन्म नवंबर, 1866 में नाशिक में हुआ था. भारत में तब ब्रिटिश राज था. उनके माता-पिता पारसी थे लेकिन बाद में उन्होंने ईसाई धर्म ग्रहण कर लिया. वो ब्रिटिश राज से प्रभावित थे और उन्हें लगता था कि उनके बच्चों की कामयाबी का रास्ता इंग्लैंड से होकर ही जाएगा.
कोर्नेलिया पढ़ाई में अच्छी थीं और तब बॉम्बे यूनिवर्सिटी में दाख़िला पाने वाली वो पहली महिला बन गईं. उन्होंने वहाँ ब्रिटेन में आगे की पढ़ाई करने के लिए स्कॉलरशिप भी हासिल की.किसी भी ब्रिटिश विश्वविद्यालय में अध्ययन करने वाली पहली भारतीय राष्ट्रीय थीं
वो ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी में क़ानून पढ़ने वाली पहली महिला बनीं लेकिन अंतिम परीक्षा में उन्हें मर्दों के साथ बैठकर परीक्षा देने की इजाज़त नहीं दी गई. उन्होंने इसके ख़िलाफ़ अपील की।
आख़िरकार परीक्षा शुरू होने से चंद लम्हों पहले ही यूनिवर्सिटी ने अपने नियमों में बदलाव करके उन्हें परीक्षा देने की इजाज़त दे दी. इस तरह से 1892 में ब्रिटेन में वो पहली महिला थीं जिन्हें बैचलर ऑफ़ सिविल लॉ परीक्षा में बैठने की अनुमति मिली।
1894 में भारत लौटने पर, सोराबजी ने पर्दानाशीन महिलाओं की ओर से सामाजिक और सलाहकार के रुप में कार्य शुरू कर दिया उस समय औरतों का बाहरी पुरुष दुनिया के साथ संवाद वर्जित होता था पर उस समय भी भारतीय महिलाओं की काफी संपत्ति होती थी, लेकिन उनकी रक्षा के लिए स्त्रीय आवश्यक कानूनी विशेषज्ञता तक पहुंच नहीं थी चुकी कोई महिला अधिवक्ता का न होना!सोराबजी को काठियावाड़ और इंदौर के शासकों के ब्रिटिश एजेंटों से पर्दानशीन की ओर से अनुरोध करने के लिए विशेष अनुमति दी गई थी।
सोराबजी ने 1897 में बॉम्बे यूनिवर्सिटी की एलएलबी परीक्षा के लिए खुद को प्रस्तुत किया और 1899 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के वकील की परीक्षा में भाग लिया। फिर भी, उनकी सफलताओं के बावजूद, सोरबजी को वकील के तौर पर मान्यता नहीं मिली चुकी तब तक कोई भी महिला अधिवक्ता के रुप में विधि के कार्य नही कर सकती थी।
1924 में, भारत में महिलाओं के लिए कानूनी पेशा खोला गया था, पंरतु सोरबजी ने कोलकाता में अभ्यास करना शुरू कर दिया था। हालांकि, पुरुष पूर्वाग्रह और भेदभाव के कारण, वह अदालत के सामने पेश करने के बजाय मामलों पर राय तैयार करने तक ही सीमित थीं।
प्रांतीय न्यायालयों में महिलाओं और नाबालिगों का प्रतिनिधित्व करने एक महिला कानूनी सलाहकार प्रदान करने के लिए सोराबजी ने 1902 के शुरू में भारत कार्यालय में याचिका दायर करने की शुरुआत की थी।
1904 में, बंगाल की कोर्ट ऑफ वार्ड में लेडी असिस्टेंट नियुक्त किया गया था और 1907 में इस तरह की प्रतिनिधित्व की आवश्यकता के कारण, सोराबजी बंगाल, बिहार, उड़ीसा और असम के प्रांतों में काम कर रही थीं।
अगले 20 साल की सेवा में, अनुमान लगाया गया है कि सोराबजी ने 600 से अधिक महिलाओं और अनाथों को कानूनी लड़ाई लड़ने में मदद की, कभी-कभी कोई शुल्क नहीं लिया।
एक लम्बी जद्दोजहद के बाद 1924 में महिलाओं को वकालत से रोकने वाले कानून को शिथिल कर उनके लिए भी यह पेशा खोल दिया गया। 1929 में कार्नेलिया हाईकोर्ट की वरिष्ठ वकील के तौर पर सेवानिवृत्त हुयीं।
पंरतु उसके बाद महिलाओं में इतनी जागृति आ चुकी थी कि वे वकालत को एक पेशे के तौर पर अपनाकर अपनी आवाज मुखर करने लगी थीं।
सोरबजी उच्च न्यायालय से सेवानिवृत्त होकर लंदन में बस गयीं, सर्दियों के दौरान भारत की यात्रा पर आतीं। 6 जुलाई 1954 को लंदन के मैनोर हाउस में ग्रीन लेन्स पर नॉर्थम्बरलैंड हाउस में अपने लंदन के घर में निधन हो गया आज भी उनका नाम वकालत जैसे जटिल और प्रतिष्ठित पेशे में महिलाओं की बुनियाद है।
उनके संघर्ष और हिमालय जैसे निर्णय जिसके कारण बिना रजिस्ट्रेशन मात्र एक सलाहकार के रुप में 20 साल अनवरत लड़ाई लड़ी जब तक 1923 में महिला अधिवक्ता भी आदालत में पैरवी कर सकती हैं का कानून नहीं पास करा लिया, विचार करे गर उन्होंने अपना हौसला हार दिया होता तो क्या होता।
वे भारत और ब्रिटेन में कानून की प्रैक्टिस करने वाली पहली भारतीय महिला वकील बनीं जिन्हें परीक्षा में सबसे ज्यादा अंक मिलने के बाद भी सिर्फ महिला होने के कारण स्कॉलरशिप भी नहीं मिल सकी।
उनके सम्मान में 2012 में, लंदन के लिंकन इन में ब्रिटिश सरकार द्वारा उनकी प्रतिमा का अनावरण किया गया था। चुकी हमें जरूरत नही थी चुकी हमें तो दे दी आजादी बिना खड्ग बिना ढाल,” गैंग ने कभी जानने नही दिया हर चौराहे पर इंद्रा खड़ी कर के! क्या सोराब जी मूर्ति हर कोर्ट के बार में नहीं होनी चाहिए थी। वे मदर ऑफ ऑल वूमेन एडवोकेट्स ऑफ वर्ल्ड है।