मुजफ्फरपुर की एक साहित्यकार ने हाल ही में एक विचारोत्तेजक घटना साझा की, जो सामाजिक अपेक्षाओं और व्यक्तिगत आजादी के बीच के तनाव को उजागर करती है। उनकी एक मुस्लिम महिला मित्र, जो दिल्ली जैसे महानगर में रहती हैं, वहां पूरी तरह आधुनिक जीवन जीती हैं। वे पर्दा या बुर्का नहीं अपनातीं और अपनी स्वतंत्रता का पूर्ण उपयोग करती हैं। लेकिन जब वे अपने गांव लौटती हैं, तो वे एक ‘टिपिकल’ मुस्लिम महिला की छवि में ढल जाती हैं। वे वहां सामाजिक और सांस्कृतिक अपेक्षाओं के अनुरूप व्यवहार करती हैं, जो उनके शहरी जीवन से बिल्कुल विपरीत है।
यह दोहरा व्यवहार केवल उनकी व्यक्तिगत पसंद तक सीमित नहीं रहता, बल्कि इसका व्यापक सामाजिक प्रभाव पड़ता है। गांव में उनकी इस छवि को एक आदर्श के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। परिवारों की बेटियों और बहुओं को उनके उदाहरण के जरिए यह सिखाया जाता है कि चाहे वे शहर में कितनी भी आजादी क्यों न ले लें, उन्हें अपनी ‘संस्कृति’ और ‘तौर-तरीके’ नहीं भूलने चाहिए। यह उदाहरण न केवल सामाजिक रूढ़ियों को मजबूत करता है, बल्कि गांव की उन लड़कियों पर भी दबाव डालता है, जो अपने लिए बेहतर अवसर और स्वतंत्रता की उम्मीद रखती हैं।
इस स्थिति ने मुझे यह सोचने पर मजबूर किया कि इस महिला मित्र को अपनी इस दोहरी भूमिका के बारे में गंभीरता से विचार करना चाहिए। साहित्यकार से मैंने अनुरोध किया कि वे अपनी मित्र से इस विषय पर खुलकर बात करें। उन्हें यह समझाना चाहिए कि यह व्यवहार न केवल उनके व्यक्तित्व की सत्यनिष्ठा को कम करता है, बल्कि उन अनगिनत लड़कियों के लिए भी हानिकारक है, जो उनके उदाहरण से प्रभावित होती हैं। उन्हें यह कहना चाहिए, “आप जैसे शहर में अपनी आजादी का आनंद लेती हैं, वैसे ही गांव में भी रहें। चार दिन के लिए गांव जाकर अपने परिवार और समाज की महिलाओं को जीवन भर की कैद में धकेलना उचित नहीं है। आप जिस गांव से आती हैं, वहां की लड़कियों को आपके उदाहरण के कारण सताया जाता है। यह निश्चित रूप से आप भी नहीं चाहेंगी।”
मुस्लिम समुदाय में, विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में, पुरुष-प्रधान मानसिकता का प्रभाव अभी भी गहरा है। कई परिवारों में लड़कियों को शिक्षा, करियर और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अवसर देने में हिचकिचाहट होती है। जिन लड़कियों को ये अवसर मिलते भी हैं, उन पर कई तरह की पाबंदियां थोपी जाती हैं। यह सच है कि कुछ अपवाद मौजूद हैं, जहां लड़कियों को प्रोत्साहन और समर्थन मिलता है, लेकिन ऐसे उदाहरण दुर्लभ हैं। अधिकांश मामलों में, सामाजिक और पारिवारिक दबाव लड़कियों की आकांक्षाओं को दबा देते हैं।
यदि इस पुरुष-प्रधान मानसिकता को चुनौती दी जाए और लड़कियों को थोड़ी-सी भी आजादी दी जाए, तो ऐसी मुस्लिम लड़कियों की संख्या सामने आएगी, जो बाहर निकलना चाहती हैं, अपनी पहचान बनाना चाहती हैं और अपने सपनों को साकार करना चाहती हैं। लेकिन वर्तमान में, उन्हें अपनी लैंगिक पहचान के कारण कई बाधाओं का सामना करना पड़ता है। यह स्थिति केवल मुस्लिम समुदाय तक सीमित नहीं है; यह भारतीय समाज के कई हिस्सों में व्याप्त है, जहां लड़कियों को अपनी स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करना पड़ता है।
इस दोहरे मापदंड का प्रभाव केवल व्यक्तिगत स्तर पर ही नहीं, बल्कि सामाजिक स्तर पर भी गहरा है। जब एक महिला शहर में आजादी का आनंद लेती है, लेकिन गांव में रूढ़िगत व्यवहार को अपनाती है, तो वह अनजाने में उन सामाजिक मानदंडों को मजबूत करती है, जो अन्य महिलाओं को बांधे रखते हैं। यह एक दुष्चक्र बन जाता है, जहां स्वतंत्रता केवल कुछ के लिए सुलभ होती है, और दूसरों को उसी पुरानी व्यवस्था में जकड़े रहने के लिए मजबूर किया जाता है।
इस स्थिति को बदलने के लिए हमें व्यक्तिगत और सामूहिक स्तर पर प्रयास करने होंगे। हमें उन मुस्लिम महिलाओं को प्रोत्साहित करना होगा, जो अपनी स्वतंत्रता का उपयोग करती हैं, कि वे इसे हर जगह एकसमान रूप से अपनाएं। साथ ही, हमें सामाजिक जागरूकता बढ़ानी होगी ताकि पुरुष-प्रधान मानसिकता को चुनौती दी जा सके। शिक्षा, संवाद और सामुदायिक सहयोग के माध्यम से हम एक ऐसी संस्कृति का निर्माण कर सकते हैं, जहां हर लड़की को अपनी क्षमता को पहचानने और उसे साकार करने का अवसर मिले।
अंत में, यह कहना गलत नहीं होगा कि आजादी एक ऐसी चीज है, जिसे आधे-अधूरे ढंग से अपनाना किसी के लिए भी उचित नहीं है। यदि हम एक समावेशी और प्रगतिशील समाज का निर्माण करना चाहते हैं, तो हमें अपने व्यवहार और अपेक्षाओं में एकरूपता लानी होगी। केवल तभी हम उन लड़कियों के सपनों को साकार कर पाएंगे, जो अपनी आजादी की राह तलाश रही हैं।