कुमारी अन्नपूर्णा
भारत में क्या वास्तविक धार्मिक अल्पसंख्यकों के अधिकारों की अनदेखी, इस पर अक्सर चर्चा होती है। इस पर थोड़ा गंभीरता से विचार करने की जरूरत है।
भारत एक ऐसा देश है जहां विविधता इसकी पहचान है। धर्म, संस्कृति, भाषा और परंपराओं का यह संगम विश्व में कहीं और देखने को नहीं मिलता। भारतीय संविधान ने इस विविधता को संरक्षित करने के लिए सभी धर्मों और समुदायों को समान अधिकार प्रदान किए हैं। विशेष रूप से, धार्मिक अल्पसंख्यकों को उनके सांस्कृतिक, शैक्षिक और धार्मिक अधिकारों की रक्षा के लिए विशेष प्रावधान दिए गए हैं। हालांकि, जब बात अल्पसंख्यकों की होती है, तो सार्वजनिक विमर्श और नीतिगत चर्चाएं अक्सर मुस्लिम समुदाय के इर्द-गिर्द सिमटकर रह जाती हैं। इस प्रक्रिया में, भारत के अन्य धार्मिक अल्पसंख्यक समुदाय जैसे जैन, पारसी, सिख, ईसाई और यहूदी न केवल उपेक्षित हो जाते हैं, बल्कि उनके अधिकारों और पहचान को भी पर्याप्त महत्व नहीं मिलता। यह लेख इस मुद्दे पर प्रकाश डालता है कि कैसे इन समुदायों के हितों को अनदेखा किया गया है और इसकी वजहें क्या हैं।
भारत में धार्मिक अल्पसंख्यकों की स्थिति
भारत की जनसंख्या में हिंदू बहुसंख्यक हैं, जो लगभग 79.8% हैं, जबकि मुस्लिम 14.2%, ईसाई 2.3%, सिख 1.7%, बौद्ध 0.7%, जैन 0.4%, और पारसी व यहूदी जैसे समुदाय इससे भी कम प्रतिशत में हैं। संख्यात्मक दृष्टिकोण से मुस्लिम सबसे बड़ा अल्पसंख्यक समुदाय है, और यही कारण है कि नीतिगत और सामाजिक चर्चाओं में उनका मुद्दा सबसे अधिक उभरता है। हालांकि, इसका मतलब यह नहीं कि अन्य अल्पसंख्यक समुदायों की समस्याएं कम महत्वपूर्ण हैं। जैन, पारसी, सिख, ईसाई और यहूदी समुदायों ने भारत की सांस्कृतिक, आर्थिक और सामाजिक उन्नति में महत्वपूर्ण योगदान दिया है, फिर भी उनकी आवाजें अक्सर दब जाती हैं।
अन्य अल्पसंख्यकों की अनदेखी के कारण
1. संख्यात्मक और राजनीतिक प्रभाव
मुस्लिम समुदाय की बड़ी जनसंख्या और उनका राजनीतिक प्रभाव नीतिगत चर्चाओं में उनकी प्रमुखता का एक प्रमुख कारण है। राजनीतिक दल अक्सर वोट बैंक की राजनीति के तहत मुस्लिम समुदाय को प्राथमिकता देते हैं, क्योंकि उनकी संख्या और संगठित समुदायिक संरचना चुनावी परिणामों को प्रभावित कर सकती है। इसके विपरीत, जैन, पारसी, यहूदी जैसे समुदायों की जनसंख्या इतनी कम है कि वे राजनीतिक दृष्टिकोण से उतने प्रभावशाली नहीं माने जाते। सिख और ईसाई समुदाय, हालांकि कुछ क्षेत्रों में प्रभावशाली हैं, लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर उनकी आवाज भी मुस्लिम समुदाय के सामने कम सुनाई देती है।
2. मीडिया का एकांगी दृष्टिकोण
मीडिया में अल्पसंख्यक मुद्दों को उठाने का तरीका भी एकांगी रहा है। धार्मिक अल्पसंख्यकों से संबंधित खबरें अक्सर मुस्लिम समुदाय के इर्द-गिर्द ही केंद्रित रहती हैं। उदाहरण के लिए, शिक्षा, रोजगार, या सामाजिक भेदभाव जैसे मुद्दों पर चर्चा में मुस्लिम समुदाय का उल्लेख प्राथमिकता पाता है, जबकि अन्य समुदायों की समस्याएं शायद ही सुर्खियों में आती हैं। पारसी समुदाय की घटती जनसंख्या, जैन समुदाय के शैक्षिक संस्थानों पर बढ़ता सरकारी नियंत्रण, या यहूदी समुदाय की सांस्कृतिक विरासत के संरक्षण जैसे मुद्दे शायद ही चर्चा का हिस्सा बनते हैं।
3. नीतिगत पक्षपात
भारत सरकार ने अल्पसंख्यकों के लिए कई कल्याणकारी योजनाएं लागू की हैं, जैसे अल्पसंख्यक मंत्रालय के तहत छात्रवृत्ति, शैक्षिक संस्थानों को सहायता, और सांस्कृतिक संरक्षण के लिए कार्यक्रम। हालांकि, इन योजनाओं का लाभ अक्सर मुस्लिम समुदाय तक सीमित रह जाता है। उदाहरण के लिए, अल्पसंख्यक शैक्षिक संस्थानों को मिलने वाली सहायता में मदरसों को प्राथमिकता दी जाती है, जबकि सिख, जैन, या पारसी समुदायों के संस्थानों को समान सहायता नहीं मिलती। यह नीतिगत पक्षपात अन्य अल्पसंख्यक समुदायों के लिए अवसरों की कमी का कारण बनता है।
अन्य अल्पसंख्यक समुदायों के सामने चुनौतियां
1. जैन समुदाय
जैन समुदाय, जो भारत में लगभग 0.4% है, ने शिक्षा, व्यापार, और सामाजिक कार्यों में उल्लेखनीय योगदान दिया है। हालांकि, उनके शैक्षिक संस्थानों पर बढ़ता सरकारी नियंत्रण और धार्मिक स्थलों के संरक्षण में कमी उनकी प्रमुख समस्याएं हैं। जैन मंदिरों और तीर्थ स्थलों को पर्यटन स्थल के रूप में प्रचारित करने की प्रक्रिया में उनकी धार्मिक भावनाओं को अनदेखा किया जाता है।
2. पारसी समुदाय
पारसी समुदाय, जो भारत में अब केवल कुछ हज़ार की संख्या में बचा है, एक गंभीर जनसांख्यिकीय संकट का सामना कर रहा है। उनकी घटती जनसंख्या, सांस्कृतिक विरासत का संरक्षण, और सामुदायिक संपत्तियों पर विवाद जैसे मुद्दे नीतिगत चर्चाओं में शायद ही शामिल होते हैं। पारसी समुदाय ने भारत की औद्योगिकीकरण और शिक्षा में महत्वपूर्ण योगदान दिया है, लेकिन उनकी समस्याओं को उचित मंच नहीं मिलता।
3. सिख समुदाय
सिख समुदाय ने भारत की रक्षा, कृषि, और अर्थव्यवस्था में अपार योगदान दिया है। हालांकि, 1984 के सिख विरोधी दंगों के बाद से उनके साथ न्याय और पुनर्वास के मुद्दे अभी भी अनसुलझे हैं। इसके अलावा, सिख धार्मिक स्थलों और परंपराओं को संरक्षित करने में सरकारी सहायता की कमी उनकी एक बड़ी शिकायत है।
4. ईसाई समुदाय
ईसाई समुदाय, विशेष रूप से पूर्वोत्तर और दक्षिण भारत में, शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं में महत्वपूर्ण योगदान देता है। हालांकि, उनके धार्मिक स्थलों पर हमले और धर्मांतरण से संबंधित विवादों ने उनके समुदाय को असुरक्षित महसूस कराया है। इन मुद्दों को नीतिगत स्तर पर गंभीरता से नहीं लिया जाता।
5. यहूदी समुदाय
भारत में यहूदी समुदाय की संख्या अब कुछ सौ में सिमट गई है। उनकी सांस्कृतिक और धार्मिक विरासत को संरक्षित करने के लिए कोई विशेष नीति नहीं है। उनके प्राचीन सभाओं (synagogues) और सामुदायिक संपत्तियों का रखरखाव एक बड़ी चुनौती है।
समाधान के लिए सुझाव
1. संतुलित नीतिगत दृष्टिकोण: सरकार को सभी अल्पसंख्यक समुदायों के लिए समान नीतियां बनानी चाहिए। अल्पसंख्यक कल्याण योजनाओं का लाभ सभी समुदायों तक पहुंचना चाहिए, न कि केवल एक समुदाय तक सीमित रहना चाहिए।
2. जागरूकता और समावेशी विमर्श: मीडिया और सामाजिक मंचों पर सभी अल्पसंख्यक समुदायों की समस्याओं को समान महत्व देना चाहिए। जैन, पारसी, सिख, ईसाई, और यहूदी समुदायों की सांस्कृतिक और धार्मिक विरासत को प्रचारित करने के लिए विशेष अभियान चलाए जा सकते हैं।
3. सांस्कृतिक संरक्षण: प्रत्येक अल्पसंख्यक समुदाय की धार्मिक और सांस्कृतिक विरासत को संरक्षित करने के लिए विशेष कोष और नीतियां बनाई जानी चाहिए। उदाहरण के लिए, पारसी समुदाय की जनसंख्या वृद्धि के लिए प्रोत्साहन और यहूदी सभाओं के संरक्षण के लिए सहायता।
4.शिक्षा और अवसर: सभी अल्पसंख्यक समुदायों के लिए शिक्षा और रोजगार के समान अवसर सुनिश्चित किए जाने चाहिए। जैन और सिख समुदायों के शैक्षिक संस्थानों को सरकारी सहायता और स्वायत्तता दी जानी चाहिए।
भारत के धार्मिक अल्पसंख्यक समुदायों—जैन, पारसी, सिख, ईसाई, और यहूदी—ने इस देश की सांस्कृतिक और सामाजिक ताने-बाने को समृद्ध किया है। हालांकि, नीतिगत और सामाजिक चर्चाओं में मुस्लिम समुदाय की प्रमुखता ने इन समुदायों की समस्याओं और योगदानों को पृष्ठभूमि में धकेल दिया है। यह समय है कि भारत एक समावेशी दृष्टिकोण अपनाए, जहां सभी अल्पसंख्यक समुदायों की आवाज सुनी जाए और उनके अधिकारों की रक्षा हो। केवल मुस्लिमों को अल्पसंख्यकों का प्रतिनिधि मानकर सारे अधिकार देना उचित नहीं होगा। मुसलमान भारत में अल्पसंख्यकों के बीच बहुसंख्यक है। ऐसा करके ही हम सच्चे अर्थों में भारत की विविधता को संरक्षित और सम्मानित कर पाएंगे।