लखनऊ। ग्यारह अगस्त को एक अनोखा नजारा देखने को मिला, जब देश के तमाम “निष्पक्ष” पत्रकार एक मंच पर जुटे। ये वो महारथी हैं, जो हमेशा दावा करते हैं कि ना जाति, ना धर्म, ना पंथ—बस सत्य की सैर! लेकिन इस बार, एक खास जाति के पत्रकारों का जमावड़ा देखकर मन में एक सवाल उठा—क्या निष्पक्षता भी अब जातिगत रंग में रंग गई है?
ये पत्रकार, जो हर रोज टेलीविजन और ट्विटर पर “सबका साथ, सबका विश्वास” का झंडा बुलंद करते हैं, उस दिन एक खास समुदाय के गौरव में डूबे नजर आए। बिना अनुमति के नाम तो नहीं छपे होंगे, पर मंच पर चेहरों की चमक बता रही थी—यहां “निष्पक्षता” की परिभाषा कुछ अलग ही लिखी जा रही है।
कहते हैं पत्रकारिता का धर्म है बिना पक्षपात के सच दिखाना। लेकिन जब “निष्पक्ष” लोग एक खास बैनर तले इकट्ठा हों, तो क्या समझा जाए? क्या ये नया “निष्पक्षता का सिद्धांत” है, जहां एकजुटता का आधार जाति हो? खैर, इस महाकुंभ को बधाई! आखिर, निष्पक्षता का तमगा लिए अपनी जड़ों का गौरव गाना भी तो कला है।
बस एक सुझाव—अगली बार ऐसे आयोजन में सभी जातियों के पत्रकारों को बुलाएं। तब शायद निष्पक्षता का असली रंग दिखे। कार्यक्रम की सफलता के लिए शुभकामनाएं, पर सच का दर्पण थोड़ा और साफ हो, तो बेहतर!