पास्कल ट्रँगल’ नही, ‘मेरु प्रस्तर’ !

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प्रशांत पोळ

सोलहवीं – सत्रहवीं शताब्दी में यूरोप के विद्वज्जनों को गणित की जो बातें समझ में आई, वह भारतीय गणितज्ञों को हजार – डेढ़ हजार वर्ष पहले से ही मालूम थी।

उदाहरण के लिए – पास्कल ट्रँगल। यह पास्कल त्रिकोण यानी एक बड़े त्रिकोण में बने छोटे-छोटे खानों (बक्सों) की रचना हैं। इस त्रिकोण में शीर्ष स्थान पर, अर्थात सबसे ऊपर, 1 इस अंक से शुरुआत होती हैं। बाद में त्रिकोण के दोनों बाजुओं में 1 का आंकड़ा अंत तक आता है। बीच की प्रत्येक संख्या, यह उसके ऊपर की दो संख्याओं का जोड़ होती हैं।

इस त्रिकोण की संख्याओं की विशिष्ट रचना के कारण और उसके जोड़ से होने वाली मजेदार बातों के कारण, यह गणित की एक गूढ रचना समझी जाती हैं। विश्व की सारी गणित की पुस्तकों में इसको खोजने वाले वैज्ञानिक का नाम दिया है – ‘ब्लेज पास्कल’ (19 जून 1623 – 19 अगस्त 1662)। यह फ्रेंच गणितज्ञ, वैज्ञानिक और दार्शनिक था।

*इस खोज के हजार – बारह सौ वर्ष पहले, पिंगल ऋषि ने, उनके ‘छंदशास्त्र’ इस ग्रंथ में, इस जादुई त्रिकोण का विस्तार से वर्णन किया हैं।* ये पिंगल ऋषि, प्रसिद्ध व्याकरणकार पाणिनि के छोटे भाई थे। इनका कार्यकाल ईसा पूर्व 300 से 200 वर्ष का हैं। अर्थात आज से बाईस सौ – तेईस सौ वर्ष पहले, एक भारतीय गणितज्ञ ऋषि पिंगल ने, गणित की विभिन्न शाखाओं में उपयोगी ऐसा जादूई त्रिकोण बनाया। बाद के अनेक भारतीय गणितज्ञों ने इसका उपयोग भी किया।

*किंतु हम ऐसे अभागी हैं, कि सवा दो हजार वर्ष की हमारी उन्नत ज्ञान परंपरा भूल कर, उस त्रिकोण को ‘पास्कल ट्रँगल’ के नाम से, सर पर रखकर नाच रहे हैं..!*

पिंगल ऋषि ने ‘मेरु प्रस्तर’ नाम से यह त्रिकोण तैयार किया। आगे चलकर अनेक प्रकार के गणित में, अनेक भव्य-दिव्य मंदिरों, विशाल राजप्रासाद आदि के डिजाइन में, नगर नियोजन की रचना में, इस मेरु प्रस्तर का उपयोग होता रहा। विश्व का सबसे बड़ा प्रार्थना स्थल, कंबोडिया का ‘अंगकोर वाट’ मंदिर भी इसी मेरु प्रस्तर की रचना पर आधारित हैं।

*इन्ही पिंगल ऋषि ने, उनके छंदशास्त्र इस पुस्तक में ‘बाइनरी सिस्टम’ का परिचय करवाया हैं। जी, हां। आज की सारी डिजिटल प्रणाली का आधार, बाइनरी सिस्टम..!* 0 और 1। अर्थात लघु और गुरु। किंतु पिंगल ऋषि की बाइनरी सिस्टम में 1 लघु हैं, तो 0 गुरु। इस प्रणाली के आधार पर पिंगल ऋषि ने ‘बाइनरी टू न्यूमेरिकल डिजिट’ ऐसी जो रचना हम करते हैं, वैसी रचना करके अक्षर तैयार किए हैं।

कितना अद्भुत है यह..!

पाश्चात्य विश्व में इस बाइनरी संकल्पना को खोज निकाला, वर्ष 1689 में। गाटफ्रेड लिबनीज इस वैज्ञानिक ने, इन बाइनरी अंको की संकल्पना सामने रखी और बाद में उसका आधार लेकर, आज की आधुनिक कंप्यूटर / डिजिटल प्रणाली तैयार हुई।

*पर लगभग बाईस सौ वर्ष पहले, अपने देश में पिंगल ऋषि ने ऐसी ही बाइनरी प्रणाली का प्रयोग किया था, इसका हमें विस्मरण हो गया..!*

प्राचीन समय में, अपने देश में महान गणितज्ञों की परंपरा रही हैं। आर्यभट्ट जैसे गणितज्ञ चौथी शताब्दी में हो गए। सातवीं शताब्दी में भास्कराचार्य, सातवीं सदी में ही ब्रह्मगुप्त, नौवी सदी में महावीराचार्य, आर्यभट्ट (द्वितीय), दसवीं शताब्दी में श्रीपति, ग्यारहवीं सदी में श्रीधर और भास्कराचार्य (द्वितीय) यह बारहवीं सदी में। यह सब महत्व के गणितज्ञ हैं। इनके सिवाय, पुरानी गणित की संकल्पनाओं में नया कुछ जोड़ने वाले, पहले के गणितीय सूत्रों पर भाष्य लिखकर उसमें से कुछ नया निकलने वाले… ऐसे अनेक गणितज्ञ हो गए।

इस्लामी आक्रांता भारत में आने के बाद यह क्रम टूटा। इन आक्रांताओं ने बड़े-बड़े विश्वविद्यालय तहस-नहस किए, ध्वस्त किए। मात्र गणित ही नहीं, तो विद्या की, ज्ञान की अन्य शाखाओं में हो रहा शोध रुक गया। किंतु ऐसी विषम परिस्थिति में भी कुछ गणितज्ञ अपनी साधना कर ही रहे थे।

वर्ग, वर्गमूल, घनमूल, वृत्त / त्रिकोण / चतुर्भुज का क्षेत्रफल, किसी गोल वस्तु का / सिलैंड्रीकल वस्तु का आयाम, पिरामिड की रचना, उसका आकारमान, गणितीय / ज्यामितीय श्रेणी… ये सारी बातें, आज से डेढ़ – दो हजार वर्ष पूर्व, अपने पूर्वजों को मालूम थी। इन सब का व्यवहार में उपयोग होता था। इसके अतिरिक्त अत्यंत कठिन और जटिल ऐसे ज्यामिति के प्रमेय, त्रिकोणमिति के सूत्र ऐसी अनेक बातें भी अपने पुरखों को अच्छे से आती थी। तात्कालिक पश्चिमी जगत का विचार किया, तो हम समय से बहुत ज्यादा आगे थे।
_(दिनांक 26 जुलाई को प्रकाशित होने जा रहे खजाने की शोधयात्राइस पुस्तक के अंश)

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