समीर कौशिक
(लेखक शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास में पश्चिमी उत्तरप्रदेश(मेरठ-बृज प्रान्त) के संयोजक हैं)
बात 2011 से आरम्भ होती है जब देश में जन लोकपाल हेतु आंदोलन के नए रूप को देखा जिसमें देश भर की कई नामचीन हस्तियां कई राजनैतिक दलों ने अपना भाग्य आजमाया जो इस आंदोलन में परजीवियों की तरह आये जिस प्रकार परजीवी एक स्वस्थ शरीर देखते हैं उस पर चिपकते हैं और रक्त पीकर स्वंय को ह्रष्टपुष्ट करके अगले शरीर को जीर्ण शीर्ण करने की तलाश करते हैं। वैसा ही तब हुआ उस आंदोलन में देश ने परजीवियों को एक नई बिरादरी देखी जिन्होंने आंदोलन को पकड़ा और उसे अपनी राजनैतिक जमीन तैयार करने की प्रयोगशाला बना लिया जिस प्रयोगशाला में से मंत्री, मुख्यमंत्री से लेकर राज्यसभा सांसदों , एवं पूर्णरूपेण आन्दोलनजीवयों का अविष्कार हो गया परंतु आंदोलन जैसा पुण्य भाव कंही समाप्त हो गया । समय बीतता गया देश में सत्ता परिवर्तन हुआ देश अखण्डता और समग्रता की तरफ अग्रसर होने लगा तथापि कुछ लोगों की जीविका का साधन आंदोलन बन गए तो उन्हें रोज भोजन एवं काम के रूप आन्दोलनों की प्रतीक्षा रहने लगी । वो अपनी क्षणिक प्रसिद्धि में ये भूल जा रहे हैं कि देश में रहकर देशवासियों के हित में आंदोलन किया जाए या विदेशी ताकतों की टूलकिट का एक टूल बनकर उपयोग हुआ जाए । एक समय था देश में जब आंदोनलकारी हुआ करते थे वो हमेशा परिधि के भीतर जाकर संघर्ष करते थे । देश और आंदोलन की अस्मिता को बरकरार रखा जाता था । एक द्रष्टान्त यंहा स्मरण आता है कि गाँधी जब असहयोग आंदोलन चला रहे थे । पुलिस एवं आंदोलन में भाग ले रहे जनमानस के बीच टकराव हुआ एवं 4 फरवरी 1922 को आक्रोशित भीड़ द्वारा थाना जला दिया गया । गोरखपुर के समीप चौरा चौरी कांड के नाम से जाना जाता है जिसमें 3 नगरिकों समेत 22 पुलिसकर्मियों की जान गई । तथापि आंदोलन देश की स्वातंत्रय समर का हिस्सा था चूंकि गांधी के जीवन मूल्यों एवं आंदोलन की अस्मिता में अहिंसा समाहित थी । इस घटना में हुई हिंसा से गांधी ने देश भर में ये आंदोलन तत्काल प्रभाव से समाप्त किया । क्योंकि गांधी के चिंतन में आंदोलन एक क्षणिक लाभ लेने वाली फुलझड़ी नही है । गांधी के चिंतन में आंदोलन एक चिंगारी है जो सहज सहज ज्वालामुखी बने वो भी अपने भाव व प्रकृति को विकृत किये बगैर । आज आंदोलनकारी नही रहे आंदोलनजीवीयों की प्रजाति परजीवी के रूप में उतपन्न हो गए हैं । यंहा हमे “जीवी” और “कारी” दोनों का शाब्दिक अर्थ भी समझना होगा जीवी अर्थात किसी पर जीवन यापन करने वाला अपनी जीविका चलाने वाला जैसे श्रमजीवी श्रम से जीवन यापन करता है बुद्धिजीवी बुद्धि ज्ञान आदि के बल पर जीविकोपार्जन करता है । वैसे ही आज के ये आंदोलनजीवी हैं जो आंदोलनों से अपना जीवन यापन कर रहे हैं । “कारी” अर्थात करने वाला उसमें किसी भी प्रकार का लोभ न देखने वाला वो होता है जिसका भाव मात्र ..
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि॥ गीता जी (2-47)
की जैसी पवित्रता से उद्धत है ।
जो अनेकता में एकता को संचारित करते हुए राष्ट्र समाज को एक सुत्र में बांधे । दिन भर आपस में वैचारिक मतभेद करते हुए द्वंद करे परंतु रात्रि को सामने के पक्ष के पास जाकर उनकी कुशल क्षेम भी करें ।आज हमारे सामने एकता में अनेकता करने वाले चेहरे हैं । जो सुनियोजित प्रायोजित आंदोलन करते हैं गांधी और बाबासाहेब के झण्डे लगाते हैं परंतु गांधी के असहयोग आंदोनल से सिखते नही । अपितु देश की अस्मिता सुरक्षा अखण्डता से खिलवाड़ करते हैं गणतंत्र दिवस पर देश मे गण और तंत्र दोनों का अपमान करते हैं । गांधी इन आन्दोलनजीवों के सिर्फ पोस्टर ब्वाय हैं बाकी सब तो टूलकिट जैसी पोस्टल सेवाओं पर निर्धारित है । ये सब अनेक स्थानों पर दिखने वाले वही व्यवसायी आन्दोलनजीव हैं जिनका व्यवसाय आंदोलन है इनमें मेगा पाटकर जैसा कोई स्वयं को पर्यावरण कार्यकर्ता कहता है परंतु पर्यावरण इनके लिये अंशकालिक कार्य है । मुख्यत: ये देश में आंदोलन भक्षण से अपनी क्षुदा शांत करती हैं । ऐसे ही एक राजनैतिक विश्लेषक हैं योगेंद्र यादव जो अन्ना आंदोलन के बाद अपना विश्लेषण भी नही कर पाए और समाजिक राजनैतिक रूप से हाशिये पर जाने के बाद इन्होंने भी आंदोलन पर्यटन आरम्भ किया हुआ है । चाहे कहने को अधिवक्ता प्रशांत भूषण हों या अन्य कोई भी ऐसे चेहरे जो सिर्फ आंदोलन घुमन्तु हैं । जिन्हें कोई भी आंदोलन देश में दिखे ये अपना तंबू वंहा गाड़ लेते हैं और आदोंलन को दिशा हीन तर्क हीन तथ्य हीन करके सिर्फ टूलकिट के आधार पर उसे चलाते हैं । जिसका परिणाम हमेशा हिंसा है चाहे CAA के विरोध में , 370 हो या किसान के नाम पर ये सब जगह पाए जाते हैं । किसान के नाम पर जीवन यापन करने वाले एक साहब हैं जिनकी खुद की सम्पत्ति इन्हीं आंदोलनों के चलते चलते आज कई सौ गुना है । किसानी जिनका अंशकालिक कार्य है पूर्णरूप से तो वो भी आंदोलन की तलाश में ही रहते हैं । घ्यान में आता है कि आंदोलनों से पूर्व उनके पास कोई 8-10 बीघा जमीन थी वर्तमान में करोडों की संपत्ति कई सौ बीघा जमीन पैट्रोल पंप, होटल लग्ज़री गाड़ियां आलीशान बंगले हैं । देश को अराजकता के मुँह में धकेल कर राजधानी में अराजकता करवा कर अपने डंडे के झंडे में गांधी की आत्मा को लपेटकर अब पुनः एक बार लाखों ट्रेक्टर दिल्ली में लाने की धमकियां सरकार को दे रहे हैं सामान्य मानस को भयभीत कर रहे हैं । आज आंदोनल के नाम पर देश में सिर्फ भय अराजकता हिंसा का वातावरण निर्माण करके देश की चुनी हुई सरकारों को दबाव में लेकर अपनी राजनीति खड़ी करने के अवसर तलाशे जा रहे हैं । अन्यथा संवाद में हर विवाद का समाधान है परंतु ये लोग संवाद नही उत्पात चाहते हैं । आज इन आन्दोलनजीवियों का बस एक ही काम है कि किस प्रकार से स्वयं पर जमी धूल हटे । हमें कैमरा मिले अखबार में छपें अपनी बातों में जनसामान्य को भावुकता के आधार पर बहकाकर उनके आवेश को अपने राजनैतिक हितपूर्तियों के लिए उपयोग कर स्वयं के लिए राजनैतिक जमीन खड़ी करना । जिनकी जमीन खड़ी हो चुकी है वो इसे और विस्तारित करने में लगे हैं । इन्हें देश से देश की अखण्डता सुरक्षा से कोई लेना देना नही क्योंकि इनकी टूलकिट ही विदेशी है । ऐसे आन्दोलनजीवियों से हमे सावधान रहना होगा ये कालनेमि हैं जो देश को आत्मनिर्भरता रूपी संजीवनी देने वाले सामान्य करदाता सामान्य व्यवसायी नौकरीपेशा हनुमान को विचलित दिगभर्मित एवं दुर्बल करने में लगे हैं ।