पूरब का लोक, समाज और शारदा सिन्हा के गीत

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Caption: Jagran

मुझे एक ऐसे विषय पर कुछ कहने केलिए कहा गया है, जो मेरा विषय नहीं है. विषय का तात्पर्य यहाँ संगीत से है. संगीत कभी-कभार सुन लेना या उससे उत्फुल्ल हो जाना, एक बात है, लेकिन उसका मर्मज्ञ होना अलग है. मैं मर्मज्ञ तो क्या, अल्पज्ञ भी नहीं हूँ. बावजूद इसके मैंने आना स्वीकार किया तो इसलिए कि इसके बहाने दिवंगत पद्मभूषण शारदा सिन्हा जी को सार्वजनिक तौर पर श्रद्धांजलि देने का अवसर मिलेगा.

आज का विषय रखा गया है पूरबी लोक, समाज और शारदा सिन्हा के गीत. आयोजकों ने जब विषय तय किया होगा तो उनके मन में पूरबी लोक का कोई खाका रहा होगा. यह पूरब का लोक आखिर है क्या ! स्थान बदलने से पूरब या किसी भी दिशा का भूगोल भी बदलता है. यूरोप से देखें तो पूरा एशियाई समाज पूरब है. अंग्रेजों ने उन्नीसवीं सदी में ओरियन्टलिज़्म का एक फलसफा गढ़ा था, जिससे आप सब परिचित होंगे. हम निश्चित ही आज उस पौर्वत्यवाद की बात नहीं करने जा रहे हैं. हमारा यह पूरबी लोक देसी है. देस के भीतर का पूरबी लोक, जिसे तनिक तत्सम होकर हम पूर्वांचल कहते हैं. हमारा बिहार, बंगाल, असम सब इसके हिस्सा हैं. यह विद्यापति, कबीर, बाउल गीतों और असंख्य अनाम कवियों-कवयित्रियों, गायकों के गीतों पर पली-बढ़ी दुनिया है. जाने कितने कवि लेखकों ने इस दुनिया को संवारा. रवींद्र, शरत, रेणु सब इसी दुनिया की सांस्कृतिक हस्तियां हैँ. शारदा सिन्हा जी ने इसी दुनिया को अपने स्वरों से संवारा था.

मैं कहने की इजाजत चाहूंगा कि हमारा सब कुछ अच्छा ही नहीं है. बंगाल का एक सांस्कृतिक लोक हमारे निकट है, उसका अपना इतिहास है, पहचान है. वह नवजागरण से निमज्जित इलाका है,जहाँ उठने-बैठने, सोचने-विचारने से लेकर भाषा, भाव, साहित्य, संगीत सब पर बहुत गहरे उतर कर बहुत काम हुए हैं. हम उससे भौगोलिक तौर पर निकट होकर भी सांस्कृतिक रूप से बहुत दूर हैं. बंगाल, विशेषकर उसके कोलकाता में ही हमारी बिहारी संस्कृति को पूरबी के नाम से अभिहित किया गया. हमारे गीत-गवनई वहां पूरबी के नाम से जाने जाते थे. यह वहिष्कृत समाज अथवा वर्नाकुलर दुनिया की सांस्कृतिक धड़कन थी, जिसे कोई भिखारी ठाकुर, कोई महेन्दर मिसिर या इसी परंपरा के लोग सहेज रहे थे. कोई धर्मशास्त्र या अगम-निगम इनका केन्द्रक नहीं था, इसकी जगह लोक या जन इनके केन्द्रक थे. उसे ध्यान में रख कर ही एक सांस्कृतिक दुनिया गढ़ रहे थे. कार्ल मार्क्स ने बताया है धर्म ने मध्यकाल में एक आभासी फलसफे से मानव जाति को टूटने से बचाया, उसने उस तरह दुःख दर्द से निजात दिलाने की कोशिश की, जैसे अफीम करता है. ट्रैंकुलाइजर की तरह का काम. लेकिन हम जिस सांस्कृतिक अभियान की बात कर रहे हैं, पुरबिया संस्कृति की, इसने जनता केलिए ट्रैंकुलाइजर बनकर नहीं, चेतना बन कर उसे संभाला. आज भी उस पर अध्ययन की आवश्यकता है.

यह पुरबिया लोक-समाज और संस्कृति मध्यकाल में नहीं, औपनिवेशिक काल में विकसित हुई. उस ज़माने को हमें याद करना चाहिए. भारत के इतिहास में पहली बार विदेशी पश्चिम के बजाय पूरब से आये थे. यह यूरोप द्वारा समुद्री रास्तों की खोज का परिणाम था. पुर्तगालियों, फ्रांसीसियों और अंततः अंग्रेजों ने भारत में जगह बनाई. कोलकाता एक महानगर के रूप में विकसित होने लगा. उसके शीर्ष पर तो विलायती लोग और उनकी संस्कृति थी, लेकिन उनके नीचे हिंदुस्तानी व्यापारी, जमींदार और दूसरे बड़े लोग थे,जो अंग्रेजी संस्कृति से तेजी से प्रभावित हो रहे थे. बगल के सिरामपुर में ईसाई मिशनरियां सक्रिय थीं. विलियम केरी (1764-1834) और दूसरे लोग पश्चिम और पूरब में एक सांस्कृतिक वैचारिक सेतु स्थापित करने की कोशिश कर रहे थे. मुगलिया राज का सांस्कृतिक उत्कर्ष तवायफ संस्कृति थी, जिसका अवध के पतन के साथ पूरी तरह पतन हो गया था. अपने बिखराव के बाद यह बाई जी की संस्कृति बनकर फ़ैल गई थी. बाद में यह लौंडा नाच के रूप में भी आया.

लगभग इसी दौर में बंगाल का विभाजन हुआ. 1905 में कर्जन के द्वारा सांप्रदायिक आधार पर, जिसे बाद में ब्रिटिश हुकूमत को रद्द करना पड़ा. लेकिन 1911 के दिल्ली दरबार में बिहार और उड़ीसा को बंगाल से अलग करने की घोषणा कर दी गई और इसका कार्यान्वयन भी हुआ. 1912 में बिहार अलग प्रान्त बना. बिहारी अस्मिता के उन्नायक और बिहार आंदोलन के प्रमुख सच्चिदानंद सिन्हा, जिनके प्रयास से बिहार अलग प्रान्त बना था, को बिहारी संस्कृति की बड़ी चिंता थी. उन्होंने हिन्दी को अपनी जुबान नहीं माना. भोजपुरी और अन्य बोलियों को भाषा रूप देने के वह हिमायती रहे. वह हमारी संविधानसभा के प्रथम अध्यक्ष थे. उन्होंने जनगणमन को राष्ट्रीय गान के रूप में स्वीकार किये जाने पर एतराज जताया था. रघुवीर नारायण का बटोहिया उन्हें अधिक प्रिय था. भिखारी ठाकुर के महत्त्व को भी उन्होंने ही पहली बार स्वीकार किया था. भले ही उन्होंने कोई नाम न दिया हो ,लेकिन बाद में जिसे पुरबिया संस्कृति कहा गया उसके वह मौन प्रस्तावक थे.

हमारी शारदा सिन्हा जी इसी संस्कृति को विकसित करती हुई मील का पत्थर हैं. कोई अनुमान कर सकता है 1970 के दौर के बिहारी समाज का. पारम्परिक कुलीन परिवार की एक महिला हारमोनियम के साथ मंच पर उतरती हैं अपने गीतों के साथ. लोक गीतों को प्रतिष्ठा दिलाने में बिंध्यवासिनी देवी की महती भूमिका है,लेकिन वह सार्वजानिक मंच पर कभी नहीं उतरीं. शारदा जी केलिए अन्य अवसर भी थे. वह फिल्मों में जा सकती थीं या रेडियो दूरदर्शन में सिमटकर रह सकती थीं. लेकिन उन्होंने अपने को व्यापक किया. कई स्तरों पर. उन्होंने पारम्परिक भजन गाये, छठी मैया को स्वरांजलि दी और उससे आगे बढ़ कर लोकतान्त्रिक मूल्यों और चेतना को जगाने केलिए प्रयास किये. उन्होंने जगदम्बा घर में दियरा तो जलाये ही, रजरतिया की पाती भी लिखी. लिखवले रजरतिया पतिया रोइ-रोइ ना. दुःख में डूबी रजरतिया करे तो क्या करे. पति को चिट्ठी लिखने के अलावे उसे कुछ सूझ नहीं रहा है. गोतनी से चिट्ठी लिखवानी है. पति को बताना है कि पड़ोस की समुद्री सर्दी से ठिठुर कर मर गयी. रज़ाई के बिना बच्चों को बचाना मुश्किल है. बिटिया बुधनी सयानी हो चुकी है. उसे अब पहनने केलिए साड़ी चाहिए. उसका दुःख कालिदास के यक्ष का दुःख नहीं है जो प्रेमविरह से तप रहा है. रजरतिया दुःख में डूबी है. एक दूसरे गीत में उसकी नवविवाहिता का दुःख है. अपने देवर द्वारा की जा रही छेड़खानी और ननद के तानों से ऊब कर वह कभी सास तो कभी पति का गुहार लगा रही है. लेकिन इन सब से आगे बढ़ कर वह एक बनिहार का घोषणापत्र भी रखती हैं.
हमसे न होइ बनिहरिया ए मालिक ! हमसे ना होइ .
अपने लड़िकवा के इस्कूल भेजाइला
हमारा लड़िकवा से भैंसी चरवाइला
ए मालिक! हमसे न होइ बनिहरिया. ..

नहीं होगी हमसे तुम्हारी बनिहारी ओ मेरे मालिक ! यह अब नहीं होगी. मुझे तुम्हारा भेद पता लग चुका है. अपने बेटे को स्कूल भेजते हो और हमारे बेटे से भैंस चरवाते हो. एक बनिहार के इस घोषणापत्र गाने का साहस कितने लोगों में है? निश्चय ही इसे गाने पर उन्हें न धन मिला होगा, न शाबाशी मिली होगी. लोकतंत्र को जाग्रत करने का उनका यह आत्मसंकल्प था. यह शारदा जी थीं, जिन्होंने इसे स्वर देना जरूरी समझा था.

बातें निकलती हैं तो दूर तक जाती हैं. जानी चाहिए. शारदा जी आज नहीं हैं. लेकिन उन्होंने जो सांस्कृतिक दुनिया गढ़ने की कोशिश की उसे याद रखा जायेगा. बिहारी समाज जरूरत से अधिक राजनीतिकृत है. इस समाज में ढंग से कोई सामाजिक सांस्कृतिक नवजागरण नहीं हुआ. यहाँ का नगर जीवन आज भी बहुत छोटा है. नगरीकरण राष्ट्रीय औसत का आधा है. जो नगर जीवन है भी, वह ग्रामीण संस्कारों से खचित है. यहाँ तक की पटना तक का सांस्कृतिक जीवन बहुत संक्षिप्त है. थियेटर, नृत्य संगीत साहित्य को यहाँ के समाज में कोई प्रतिष्ठा नहीं है. ऐसे समाज को सुसंस्कृत बनाने केलिए शारदा सिन्हा जी ने आजीवन तपस्या की. आज का यह समारोह कृतज्ञ समाज की एक श्रद्धांजलि है. इस बात का प्रतीक भी कि उनका बिहारी समाज अब इतना संस्कृत तो हुआ ही है कि उन्हें याद कर सके.

( 22 दिसंबर 2024 की शाम बिहार म्यूजियम, पटना में दिवंगत शारदा सिन्हा पर आयोजित एक कार्यक्रम में दिया गया वक्तव्य )

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