प्रणय विक्रम सिंह
दिल्ली। रक्षा यह शब्द जीवन के हर क्षेत्र में स्थिरता, शांति और संतुलन का आश्वासन है। किंतु यह आश्वासन कोई स्वतःसिद्ध वरदान नहीं। रक्षा की कामना करने वाले को बन्धन स्वीकार करना ही पड़ता है। यह बन्धन ही अनुशासन है, यह बन्धन ही मर्यादा है, और यही बन्धन रक्षा को संभव बनाता है।
जो व्यक्ति अथवा समाज सुरक्षा चाहता है, उसे पहले यह समझना होगा कि रक्षा का आधार केवल बाहरी शक्ति नहीं, बल्कि आंतरिक संयम भी है। बिना बन्धन के रक्षा का कोई अस्तित्व नहीं। जैसे नदी अपने तटों के बन्धन में बहकर ही जीवनदायिनी बनती है, वैसे ही समाज अपने नियमों और मर्यादाओं के बन्धन में रहकर ही सुरक्षित और समृद्ध हो सकता है।
रक्षक का धर्म भी इसी सिद्धांत से बंधा है। चाहे वह सैनिक हो, पुलिसकर्मी हो, गुरु हो, अभिभावक हो या कोई भी संरक्षक। उसकी अपनी प्रतिज्ञाएं होती हैं। अपने आदर्श होते हैं। ये आदर्श ही उसके कार्य को पवित्रता और वैधता प्रदान करते हैं। जिस क्षण रक्षक अपने आदर्शों से विचलित होता है, उसी क्षण उसकी रक्षा-शक्ति क्षीण होने लगती है।
सच तो यह है कि रक्षा और बन्धन, दोनों एक ही सूत्र के दो छोर हैं। रक्षा का अर्थ है अमंगल का निवारण और मंगल का संवर्धन। और यह तभी संभव है, जब रक्षक और संरक्षित दोनों अपने-अपने बन्धनों को हृदय से स्वीकार करें। रक्षक के लिए बन्धन है सत्य, कर्तव्य और त्याग। संरक्षित के लिए बन्धन है विश्वास, अनुशासन और सहयोग।
हमारे शास्त्रों ने भी इस गूढ़ सत्य को अनेक हृदयस्पर्शी रूपों में व्यक्त किया है। रक्षाबंधन का पर्व इसी भाव का उत्सव है जहां एक पवित्र सूत्र बंधता है, जो केवल बहन की कलाई और भाई की प्रतिज्ञा के बीच का संबंध नहीं, बल्कि संपूर्ण जीवन में मर्यादा और सुरक्षा के सहअस्तित्व का प्रतीक है।
अतः यह स्मरण रहे कि रक्षा कोई मुक्त छूट नहीं देती, बल्कि हमें उन नियमों में बांधती है, जो हमारे अस्तित्व को संरक्षित रखते हैं। बन्धन को त्यागकर रक्षा की कल्पना करना ऐसा ही है, जैसे तटों को तोड़कर नदी से जीवन की अपेक्षा करना। जो रक्षा चाहता है, उसे बन्धन स्वीकार करना होगा और यही बन्धन हमारे भविष्य का सबसे दृढ़ कवच है।