दिल्ली। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) को लेकर भारतीय पत्रकारिता और अकादमिक क्षेत्र में व्याप्त गलतफहमियां चिंता का विषय हैं। पत्रकारों और बुद्धिजीवियों के बीच आरएसएस की समझ को लेकर एक गंभीर कार्यशाला की आवश्यकता लंबे समय से महसूस की जा रही है। तथ्यों को तोड़-मरोड़कर प्रस्तुत करना और जानबूझकर गलतियां करना कई पत्रकारों की आदत बन चुकी है, जो न केवल गैर-जिम्मेदाराना है, बल्कि समाज में भ्रम भी पैदा करता है।
उदाहरण के लिए, ‘पाञ्चजन्य’ और ‘ऑर्गनाइजर’ को आरएसएस का मुखपत्र कहना तथ्यात्मक रूप से गलत है। ये पत्रिकाएं स्वतंत्र रूप से संचालित होती हैं, परंतु पत्रकारों की थोथली समझ उन्हें बार-बार यह गलती करने को मजबूर करती है। इसी तरह, गांधी हत्याकांड को लेकर आरएसएस को दोषी ठहराने की प्रवृत्ति, कोर्ट के निर्णय को नजरअंदाज कर मीडियाट्रायल को बढ़ावा देती है। यह एक खतरनाक चलन है, जो तथ्यों से ज्यादा पूर्वाग्रहों पर आधारित है।
हाल ही में, द रेड माइक नामक यूट्यूब चैनल पर प्रस्तोता संकेत उपाध्याय ने संस्कार भारती को आरएसएस की ‘सांस्कृतिक इकाई’ कहकर अपनी अज्ञानता का परिचय दिया। यह नहीं पता कि आरएसएस स्वयं एक सांस्कृतिक संगठन है। ऐसी गलतियां केवल हास्यास्पद ही नहीं, बल्कि समाज में गलत धारणाएं भी स्थापित करती हैं।
सीएसडीएस द्वारा अभय दुबे के संपादन में प्रकाशित आरएसएस विशेषांक भी इस गंभीरता की कमी को दर्शाता है। अभय दुबे, राम पुनियानी, योगेंद्र यादव जैसे तथाकथित विशेषज्ञों ने आरएसएस को समझने में सतही और पूर्वाग्रहपूर्ण दृष्टिकोण अपनाया। इनके लेखों में तथ्यों की कमी और वैचारिक पक्षपात साफ झलकता है। यह भारतीय समाज के लिए क्षमायोग्य नहीं है।
इन गलतियों को सुधारने के लिए पत्रकारों और अकादमिकों के लिए कम से कम तीन महीने का गहन प्रशिक्षण आवश्यक है। यह प्रशिक्षण न केवल आरएसएस के स्वरूप, बल्कि उसके सामाजिक योगदान और सांस्कृतिक दर्शन को समझने में मदद करेगा। जब तक ऐसी पहल नहीं होगी, तब तक पत्रकारिता और अकादमिक जगत की विश्वसनीयता पर सवाल उठते रहेंगे।