मनोज श्रीवास्तव
दिल्ली। यह भी दिलचस्प है कि लोकमान्य तिलक ने अपनी कई पुस्तकें The Orion या Arctic Home in the Vedas अंग्रेजी में लिखीं पर गीता रहस्य के लिए उन्हें एक भारतीय भाषा ही, उनकी अपनी मातृभाषा ही उचित जान पड़ी। वह इसलिए भी था कि गीता के शब्द एक भौतिक निर्मिति नहीं थे बल्कि एक सांस्कृतिक सृजन थे। जिसे आज रौलाँ बार्थ स्पिरिचुअल ग्लोरी ऑफ द टेक्स्ट’ कहते हैं, उसकी रक्षा अंग्रेजी में नहीं हो सकती थी। पहले मराठी संस्करण के छपने के डेढ वर्ष बाद ही इसके हिन्दी और गुजराती संस्करण आ गये, 1914 तक तेलुगू और कन्नड़ संस्करण आ गये। गीता रहस्य के के बहुत से ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक अर्थ का सफल संवहन भारतीय भाषाएं ही कर सकती थीं। शायद इसीलिए जुलिया क्रिस्तेवा ने पाठ की सांस्कृतिकता की बात की थी जब उन्होंने वह सिद्धान्त स्थापित किया था कि the text is not an individual isolated object, but a compilation of cultural texuality. यों तो जेल में तिलक ने जर्मन और फ्रेंच भी सीख ली थी फिर भी गीता रहस्य की अभिव्यक्ति के लिए उन्हें अपने दूध और रक्त की भाषा ही श्रेयस्कर लगी।
नारायणी धर्म के एक श्लोक को तिलक ने उद्धृत करते हुए गीता रहस्य के बारहवें प्रकरण में कहा था कि एकान्तिनो हि पुरुषा दुर्लभा बहवो नृपः। वाक़ई तिलक जैसे पुरुष दुर्लभ ही थे। पर मेरा ध्यान इस एकान्त पर अटक गया ।
गीता जब कही गई तो वह भू-राजनीतिक, सार्वजनिक मंच था, पर गीता-रहस्य जब लिखी गई तो वह मांडले जेल का एकांत प्रकोष्ठ था।
कृष्ण जेल में ही पैदा हुए थे पर उनकी गीता की व्याख्या भी जेल में ही होनी थी। जिस तरह से मांडले जेल में तिलक ने गीता रहस्य लिखी, उसी जेल में रहते हुए लाला लाजपत राय ने ‘मैसेज ऑफ भगवद्गीता’ लिखी। मनुष्य की मूलभूत मुक्ति का यह ग्रंथ कैद में आस्था की एक मनोविकासकारी भूमिका का निर्वाह तो करता ही आया। फाँसी के फंदे पर चढ़ते समय मदनलाल धींगरा जी के हाथ में गीता थी जिनके अंतिम शब्द थे कि देश की सेवा श्रीकृष्ण की सेवा है। यही गीता खुदीराम बोस के, उनके पहले दामोदर चाफेकर के और हेमू कालानी के हाथ में भी थी जब वे फाँसी चढ़े। रोशनसिंह के हाथ में भी थी। और उन राजेंद्र नाथ लाहिड़ी के हाथ में भी थी जिन्होंने अंतिम समय में कहा कि मृत्यु शरीर का परिवर्तन मात्र है, पुराने कपड़ों को फेंककर नये कपडे पहन लेना। तब क्या ‘वासांसि जीर्णानि’ वाले गीता के श्लोक का ध्यान नहीं आता? फाँसी पर चढ़ने की पूर्वरात्रि गीता पढ़ने वाले रामप्रसाद बिस्मिल हों या भगवद्गीता के नित्यपाठी मर्मज्ञ यतींद्रनाथ मुकर्जी हों-गीता का कारागृह से कोई विशेष रिश्ता रहा।
पर यह भी देखें कि इन सभी का गन्तव्य स्वतंत्रता है, मुक्ति है, निर्बन्धता है। तिलक ने गीता का रहस्यान्वेषण ही नहीं किया, गीता में स्वतंत्रता का रहस्योद्घाटन भी किया था। इसका भी कि देह को बन्धन में रखा जा सकता है कि पर बुद्धि, प्रज्ञा, विवेक को नहीं। आज जब हम औपनिवेशिक मानस के क्रीतदास देखते हैं तब तिलक के गीता-रहस्य की मुक्ति-साधना का महोत्सव समझ आता है। तिलक ने बताया कि गीता के शब्दों का अयन कितना विशाल, कितना अनन्त, कितना असीम है और पार्थिव कारावास की सीमाओं का उन्मोचन उनके सहारे कितनी सफलता पूर्वक किया जा सकता है।
स्वतंत्रश्च स्वतंत्रेण स्वतंत्रत्मवाप्नुते वाले महाभारत के श्लोक की याद तिलक ने गीता रहस्य के आत्मस्वातंत्र्य वाले अध्याय में की है। गीतागायक कृष्ण इस आधुनिक भारत में और प्रासंगिक हो गये थे, तो उसके पीछे कारण थे। जैसे स्वयं कृष्ण बंदीगृह में पैदा हुए थे, वैसे ही यह देश बंदी बनाया हुआ था। इस हद तक कि बंदी-युग को आधुनिक युग का नाम दे दिया गया था। गुलामी पीछे ले जाती है, गुलामी मनुष्य के विकास की मुक्त गति में बाधा है, लेकिन औपनिवेशिक युग ने परतन्त्रता को ही आधुनिकता के रूप में देखना सिखा दिया था। एक बंदी भारत को कृष्ण की जरूरत थी, क्योंकि वे बंदीगृह में अपने माता-पिता को देख चुके थे, उनकी पीड़ा पहचानते थे। राम फिर भी राजकुमार की तरह जन्मे थे, कृष्ण कारावास में जन्मे। भारत को अंग्रेजों ने एक विशाल कारागृह में बदल ही दिया था। सिर्फ मांडले, कालापानी, डेविल्स आइलैंड, न्यू केलिडोनिया, साइबेरिया की जेलें ही जेल नहीं थीं। उपनिवेशवाद पूरे देश को जेल बना रहा था।डोना वी जोंस अपने निबंध ‘द प्रिज़नहाउस ऑफ मॉडर्निज्मः कॉलोनियल स्पेसेज़ एंड द कंस्ट्रक्शन ऑफ द प्रिमिटिव’ में इसी की ओर महत्वपूर्ण संकेत करती हैं। तिलक के गीता रहस्य के साथ ऐसी भाषा आई, जिसे भारत के अपूर्वकल्पित कारागृहों की नई परिभाषा करनी थी। 1964 में Chinua Achebe आधुनिक लेखक का यह कर्तव्य निर्धारित करते हैं कि उसे उपनिवेशवाद के जेलखाने से नये देशों को मुक्त कराना है। उपनिवेश सिर्फ भौतिक रूप से ही जेल निर्मित नहीं करते थे. बल्कि देशवासियों के भीतर एक ऐसे वातावरण की रचना करते थे कि जो जेल में होती है, कि जहां आप सभी अपनों से टूट जाते हो, जहां आपका जो भी अपना है, आपसे अलग हो जाता है। उस उदासी में सम्बन्ध के पार का सत्य देखने की कोशिश तिलक ने की ही पर राजद्रोह के आरोप में मांडले की जेल काटते हुए तिलक को उस द्रोह की चिन्ता थी जो गीता के श्लोक ३५(अध्याय (11) में भगवान श्रीकृष्ण ने उल्लिखित किया था – द्रौपदीं च पाण्डवाश्च सर्वान् एतान् शरणागतान् । द्रोहं च वेत्स्यसि यत्र किम् ? यानी तुम पांडवों और द्रौपदी सहित सभी शरणागतों का द्रोह करोगे।
तिलक ने जेल में रहते हुए देश को जेल बनाने की कोशिशों के विरुद्ध गीता का रहस्यमय उपयोग किया। रहस्यमय इसलिए कि जो बात गीता-रहस्य को पढ़ते समय मेरा ध्यान सबसे ज्यादा खींचती रही, वह यह कि मांडले जेल में अंग्रेजों की कैद काटते हुए भी तिलक ने गीता के अपने निर्वचन को तमाम तात्कालिकताओं से, दिक और काल की किन्हीं भी विशिष्टताओं से मुक्त रखा। वे किन्हीं सांदर्भिकताओं और परिप्रेक्ष्यों में नहीं उलझे।
उन्हें स्वयं गीता की टीकाओं में संप्रदाय – सिद्धि की प्रवृत्ति पर आपत्ति रही थी, जैसी कि उन्होंने अपनी इस पुस्तक की प्रस्तावना में व्यक्त भी की है। इसलिए गीतार्थ का विशदीकरण उन्होंने एक आवश्यक कर्तव्य की तरह देखा। उनका गीता-रहस्य एक अवसादित, अनुशयी और विषण्ण मन की रचना नहीं है। तिलक इसमें अपने प्रसंग के पार जाते हैं। उनकी कोई भग्नचित्तता यहां गवाही देने नहीं आती। मांडले की जेल तिलक की शुद्ध बुद्ध चेतना का अवसन्नीकरण नहीं कर सकी थी। उन्हें अपना प्रेरणा- पुरुष मानने वाले सुभाष भी अपने को भाग्यशाली मानते थे कि वे भी उसी मांडले जेल में बंद किए गए जहां तिलक ने गीता-रहस्य लिखी। उसी मनोबल से, उसी मनोतेज से सुभाष ने भी अपनी prison writings कीं।
पर तिलक की गीता रहस्य का प्रतिपाद्य ही इतना सार्वभौम और इतना सर्वातिचारी था कि वे उसे अपने अनुभव की किसी क्लिष्टि से, किसी उत्ताप से भी दूषित नहीं करना चाहते थे। न गीता के संदेश में कोई अवकुंचन था और न तिलक की अक्षोभ्यता में कोई संदेह था, इसलिए गीता -रहस्य उनकी नैष्ठिकता की, उनकी समशीलता की, उनकी ध्रुवता की अद्वितीय साक्षी है। उसमें तिलक जिस तरह से अपने व्यक्ति का वर्जन करते हैं और उसे एक अननुभव की सिद्धि तक ले जाते हैं। गीता यदि अनासक्त कर्मयोग सिखाती है तो गीता – रहस्य उसी अनासक्ति, उसी अनीहा, उसी निरीहा में किया गया कर्म है। गीता-रहस्य के लेखक की यह निस्पृहता भावहीनता के रूप में नहीं ली जा सकती। यह तो एक तरह के निर्वैयक्तिक कथ्य की गवेषणा थी जो इस पुस्तक में संपूर्ण हुई। उसका ग्रंथकार अपने ग्रंथ से पृथक है। तिलक के लिए गीता एक ऐसा text थी जिसका अर्थ और मूल्य उसी पाठ से निःसृत होता था, न कि स्वयं तिलक की जीवनी या निजी संवेद्यताओं से। गीता के साथ सब्जेक्टिव नहीं हुआ जा सकता था, वह अपनी भाषा, अपनी संरचना और अपनी अंतर्वस्तु में एक सार्वजनिक पाठ थी। इसलिए मांडले जेल की तमाम असुविधाओं-जिनमें उन्हें लिख ने के लिए स्याही और पेन भी नहीं उपलब्ध कराया गया, पेंसिल से लिखे गये अपने ही ग्रंथ की मूल प्रति तक उन्हें वापस करने में सरकारी टालमटोल भी शामिल थी – के बीच तिलक ने अपने इस लोक – दायित्व को पूरे धैर्य और स्थैर्य के साथ निबाहा। विक्टर फ्रैंकल ने नाज़ी कैंपों में रहते हुए ” मैन्स सर्च फॉर मीनिंन” पुस्तक एक कैदी के रूप में अपने अनुभवों का वर्णन करते हुए लिखी। तिलक ने भी गीतार्थ खोजे, लेकिन तजुर्बों से नहीं, तर्क से। और इस प्रक्रिया में उन्होंने अंग्रेजी नीतिशास्त्र की जगह जगह खबर ली। गीता की बहिरंग परीक्षा में उन्होंने उन तत्कालीन दावों की हवा निकाल दी जो गीता को बाइबल – प्रेरित बताते थे। मांडले जेल में अपनी इस नानापुराणनिगमागमसम्मत पुस्तक को लिखने के लिए उन्होंने पुणे से 350 पुस्तकें बुलाई थीं। इसलिए उनका गीतार्थ उनके बहु अधीत अध्यवसाय की परिणति है जिसमें वे बहुत से भ्रामक एजेन्डाओं को ध्वस्त करते चलते हैं। उनका गीतारहस्य कर्मयोग का ही नहीं, कर्मोत्साह का है। वे स्पष्ट कहते हैं कि वासना का क्षय हो जाए तो भी कर्म नहीं छूटते। अपने श्रीमद्भगवद्गीता रहन्य का उपनाम उन्होंने इसीलिए कर्मयोगशास्त्र रखा। शंकराचार्य का गीता पर भाष्य ज्ञानाधारित है, रामानुजाचार्य का भक्ति आधारित जबकि तिलक ने अपनी पुस्तक को स्वयं ही कर्मयोगकहा। अर्जुन गीता से पूर्व उसी कर्मोत्साह से रहित होकर बैठ गया था, और गीता सुनने के बाद उसने अपनी कर्तव्यनिष्ठा का निनाद किया।
आज जबकि तिलक को वामाचारियों द्वारा एक पुनरुत्थानवादी बताया जाता है और भारतीय राष्ट्रवाद को अंग्रेजी नेशनलिज़्म से समीकृत किया जाता है तब हमें याद करना चाहिए कि कैसे हमारे स्वतंत्रता संग्राम को तिलक ने अपनी जातीय स्मृतियों के पुनर्गठन के जरिए उस समय एक नई चेतना दे दी जब शिक्षित भारतीयों द्वारा अंग्रेजी राज को An Act of abundant mercy of Divine providence बताया जा रहा था। गीता रहस्य के लेखन से पहले तिलक ने गणेश- मंडपों और गणेश-जुलूसों के जरिए mimic men या अनुकर्ता मनुष्यों की जगह मनुष्यता के मूल या दृष्टि की मौलिकता स्थापित कर दी थी। जब लोग greatest gift of providence to my race ब्रिटिश राज को बता रहे थे, मेरी जात को नियति की सर्वोत्तम भेंट, तब तिलक ने ही वह चेतना जगाई जो गणेश जी के मोदकों को ही वास्तविक प्रसाद मानती थी, जब लार्ड रोज़बेरी Writ by the finger of the divine में साम्राज्यवाद का औचित्य खोज रहे थे तो वे आम भारतीय को वे संस्कार ही दे रहे थे जिसमें वे अपनी गरीबी और दुरवस्था को ईश्वरेच्छा मान लेता है। गणेश और गीता के कृष्णार्जुन के रूप में तिलक ने प्रतिरोध और संघर्ष की चेतना को भारतीय चित्त में बोना शुरू किया। गणेश देवताओं से लड़े ही थे तो इन लॉर्ड्स से लड़ना भी जरूरी हो गया था।