सत्ता, विवाद और साहित्य: दिल्ली विश्वविद्यालय का एक अनकहा अध्याय

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दयानंद पांडेय

दिल्ली। एक बार डाक्टर नागेंद्र और रामविलास शर्मा के बीच किसी बात पर विवाद हो गया। नागेंद्र अपना आपा खो बैठे। राम विलास शर्मा से बोले , अपने जीते जी तुम्हें कभी भी दिल्ली यूनिवर्सिटी में घुसने नहीं दूंगा। डाक्टर नागेंद्र उन दिनों बहुत पावरफुल थे। हिंदी विभाग के अध्यक्ष थे। तत्कालीन केंद्रीय शिक्षा राज्य मंत्री सैय्यद नुरुल हसन बहुत चाहते थे कि जोधपुर विश्वविद्यालय से बर्खास्त नामवर सिंह को किसी तरह दिल्ली विश्वविद्यालय में एडजस्ट कर दिया जाए। नुरुल हसन भी बहुत पावरफुल थे। इंदिरा गांधी के करीबी थे। लखनऊ के रहने वाले थे। उन के नाना सर सैयद वज़ीर हसन , अवध के न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश और फिर मुस्लिम लीग के जाने-माने अध्यक्ष रहे थे। उन के नाम पर लखनऊ में वज़ीर हसन रोड भी है अब। पॉश इलाक़ा है। आप खोजेंगे तो ऐसे बहुत से मुस्लिम लीग के लोग , पसमांदा मुसलमानों का शोषण करने वाले लोग वामपंथी बन गए मिलेंगे। सैय्यद लोग अभी भी अपने को अरब से आया हुआ मानते हैं। श्रेष्ठ मानते हैं। सैय्यद नुरुल हसन प्रसिद्ध वामपंथी लेखक सैयद सज्जाद ज़हीर के भांजे थे। सैय्यद सज्जाद ज़हीर तो बंटवारे के बाद पाकिस्तान चले गए थे। पर पाकिस्तान में जब रगड़े गए , जेल हो गई तो भाग कर वापस भारत आ गए। मुस्लिम लीग छोड़ कर कम्युनिस्ट बन गए। बहरहाल नुरुल हसन सैय्यद होने के बावजूद मामा सज्जाद ज़हीर की तरह वामपंथी भी थे। रामपुर के नवाब की बेटी से विवाह हुआ था। स्कूल ऑफ ओरिएंटल एंड अफ्रीकन स्टडीज , लंदन में इतिहास के प्रोफ़ेसर रहे थे । अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में इतिहास विभाग में प्रोफेसर व अध्यक्ष भी रहे थे। रोमिला थापर और इरफ़ान हबीब जैसों को पावरफुल बनाने में नुरुल हसन का बड़ा हाथ था। नुरुल हसन बाद में राजनयिक भी हुए। पर ऐसे पावरफुल सैय्यद नुरुल हसन जो तब केंद्रीय शिक्षा राज्य मंत्री भी थे डाक्टर नागेंद्र के आगे उन की एक नहीं चली। और सैय्यद नुरुल हसन नामवर सिंह को दिल्ली विश्वविद्यालय में नियुक्त नहीं करवा सके थे। विवश हो कर नामवर सिंह को कम्युनिस्ट पार्टी के जनयुग अख़बार में संपादक बन कर दिल्ली में गुज़ारा करना पड़ा। राजकमल प्रकाशन के लिए भी काम किया। आलोचना के संपादक भी बने। बाद में जब जे एन यू खुला तो एक हिंदी विभाग क्या सभी भाषाओं के अध्यक्ष बने और उन्हें उत्कर्ष तक पहुंचाया। लेकिन तब के डाक्टर नागेंद्र ने नामवर सिंह को दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में नियुक्त नहीं होने दिया।

और वही डाक्टर नागेंद्र , डाक्टर रामविलास शर्मा से कह रहे थे , तुम्हें दिल्ली विश्वविद्यालय में घुसने नहीं दूंगा। वैसे भी रामविलास शर्मा हिंदी में लिखते ज़रूर थे पर अंगरेजी के आदमी थे। अंगरेजी ही पढ़ाते थे आगरा में। उन्नाव के रहने वाले रामविलास शर्मा भी लखनऊ विश्वविद्यालय में पढ़े थे। अमृतलाल नागर के पारिवारिक और प्रिय मित्र थे। एक दिन डाक्टर नागेंद्र के एक शिष्य ने उन्हें बताया कि रामविलास शर्मा तो एक व्याख्यान में दिल्ली विश्विद्यालय में आ रहे हैं। इतिहास विभाग ने उन्हें बुलाया था। रामविलास शर्मा ने इतिहास पर भी पर्याप्त लिखा है। वामपंथी हिप्पोक्रेटों ने बाद के दिनों में कामरेड रामविलास शर्मा को भी हिंदू कह कर धकेल दिया। जैसे कभी राहुल सांकृत्यायन को हिंदू कह कर धकेल दिया था। तब के दिनों हिंदू नाम की ही गाली इन हिप्पोक्रेटों को मिल पाई थी। संघी , जनसंघी और भाजपाई नाम की गाली का तब तक अनुसंधान नहीं हुआ था। बाद के दिनों में निर्मल वर्मा को भी हिंदू कह कर धकियाया गया। तब जब कि निर्मल वर्मा भी वामपंथी रहे थे। कार्ड होल्डर रहे थे। खैर , रामविलास शर्मा तय तिथि पर दिल्ली विश्विद्यालय आए और जब आए तो उन का स्वागत करने के लिए डाक्टर नागेंद्र गेट पर न सिर्फ़ पहले से उपस्थित थे बल्कि धधा कर उन से गले मिले। रामविलास शर्मा भी डाक्टर नागेंद्र से उसी गर्मजोशी से मिले। ऐसे जैसे उन दोनों के बीच पहले कभी कुछ घटा ही न हो। इतना ही नहीं , पूरे कार्यक्रम में डाक्टर नागेंद्र उपस्थित रहे और रामविलास शर्मा को विदा कर के ही घर लौटे। लेखकीय सदाशयता और सदभाव का यही तकाज़ा है। पर आप ने क्या मुझ पर अपनी फ़ेसबुक पोस्ट पर की गई टिप्पणियों पर ध्यान दिया ? कमेंट की भाषा पर ध्यान नहीं दिया ? दिया तो है। लाइक तो किया है। क्या आप ने किसी से अभद्र और अश्लील भाषा पर ऐतराज भी जताया क्या ? स्पष्ट है कि नहीं जताया। इतना ही नहीं , मैं ने पाया कि आप ने दबाव में आ कर ही अपनी पोस्ट को कम से कम दो-तीन बार एडिट किया है। आप ने शुरू में लिखा कि भाजपा विरोधी , फिर लिखा शायद भाजपा विरोधी। फिर यह पूरा ही हटा दिया। आप की पोस्ट है। आप हज़ार बार संपादित कीजिए। क्या हटाइए , क्या जोड़िए , यह आप का अपना विवेक है। कोई हर्ज नहीं है ! लेकिन यह सब देख कर नामवर सिंह की बरबस याद आ गई है।

एक समय दिल्ली पुस्तक मेले में राजेंद्र यादव के बीमार आदमी के स्वस्थ विचार किताब की सहयोगी लेखिका ज्योति कुमारी के कहानी संग्रह के विमोचन पर बतौर अध्यक्ष नामवर सिंह ने कहा कि दस्तखत पर मेरे दस्तखत नहीं हैं। यानि दस्तखत कहानी संग्रह में नामवर सिंह के नाम से छपी भूमिका , उन्हों ने नहीं लिखी है। फिर हफ्ते भर में नामवर सिंह का बयान आया कि दस्तखत में छपी भूमिका उन से बातचीत पर आधारित है। अगले हफ़्ते फिर नामवर सिंह की भूमिका पर सफाई आई। नामवर ने कहा , भूमिका मेरी ही है। तब के समय ठंड बहुत थी। हाथ कांप रहे थे। सो बोल कर लिखवाई है। सो हो जाता है विष्णु जी ऐसा भी कभी-कभार। कोई बात नहीं। पर चित्रकूट के रहने वाले वालीवुड के फ़िल्मकार कमल पांडेय के भतीजे राहुल पांडेय दिल्ली में रहते हैं। मेरे अनन्य पाठक और प्रशंसक हैं। कमल पांडेय भी , राहुल पांडेय भी। राहुल पांडेय ने कुछ कमेंट पर प्रतिवाद भी किया है। राहुल पांडेय ने बताया कि दस बरस पहले लिखे मेरे लेखों के लिंक भी आप की पोस्ट के कमेंट बॉक्स में बार-बार पोस्ट किए। आप ने बार-बार मिटाया। कोई बात नहीं। आप की वाल है , फ़ैसला आप का है। कोई आपत्ति नहीं। हर बिंदु पर हर कोई लोकतांत्रिक भी हो , ज़रूरी तो नहीं। बस ज़िक्र है बरक्स तुलसीदास , मैं बैरी सुग्रीव पियारा ,अवगुण कवन नाथ मोहि मारा ! ठीक है मैं बालि नहीं , और कोई सुग्रीव नहीं। फिर तुलसीदास से आप सहमत भी नहीं होंगे भरसक। आप का नहीं जानता , पर आप के कई मित्र तो तुलसी के घनघोर निंदक हैं। फिर भी अपनी अभद्र और अश्लील टिप्पणी में मुझे अपमानित करने के लिए आप को सलाह देते हुए तुलसीदास का ही सहारा लिया है : तजिये ताहि कोटि बैरी सम, जद्यपि परम सनेही। ऐसे नफ़रती और घृणा में डूबे व्यक्ति का ज़िक्र भी क्या करना।

पूछिएगा कभी मन करे तो उन से भी कि उन की अश्लील और अभद्र टिप्पणी में कहीं दस बरस पहले उन पर लिखे चार लेखों की श्रृंखला का फोड़ा क्या अब फूटा है ? इस फोड़े का मवाद तो नहीं बह गया है ? क्या यह किसी पढ़े-लिखे आदमी की भाषा है ? वह आदमी जो ख़ुद को आलोचक भी मानता हो। क्या आलोचना ऐसे ही होती है ? पूछिएगा उन से कि दस बरस पहले लिखे उन पर लेखों में कहीं मैं ने तू-तकार भी किया है क्या ? कहीं अभद्र , अश्लील या बिलो द बेल्ट भी हुआ हूं क्या ? वैचारिकी और आलोचना के अलावा कुछ और पर भी बात की है क्या ? कोई निजी हमला भी किया है क्या उन पर ? निजी हमला , बिलो द बेल्ट होने का अभ्यास कभी नहीं रहा मुझे। अब भी ख़ैर क्या होगा।

आदि शंकराचार्य और मंडन मिश्र के शास्त्रार्थ का प्रसंग याद आता है। मंडन मिश्र के बहुत दबाव के बाद आदि शंकराचार्य शास्त्रार्थ के लिए तैयार हुए। शस्त्रार्थ के लिए निर्णायक तय हुई मंडन मिश्र की पत्नी भारती। शास्त्रार्थ जब लंबा खिंच गया तो भारती दोनों के गले में ताज़े फूलों की माला पहना कर किसी काम से निकल गईं। कहा कि आप लोग शास्त्रार्थ जारी रखिए। मैं आ कर निर्णय सुना दूंगी। शास्त्रार्थ समाप्त होने के पहले ही वह वापस भी आ गईं। शस्त्रार्थ समाप्त होने पर भारती ने मंडन मिश्र को पराजित और आदि शंकराचार्य को विजेता घोषित किया। लोगों ने इस पर ऐतराज किया। मंडन मिश्रा ने सब से ज़्यादा। कहा कि पूरे समय रहीं भी नहीं और निर्णय भी ग़लत सुना दिया। यह तो ठीक बात नहीं है। भारती ने कहा कि , मैं पूरे समय उपस्थित नहीं थी , यह सत्य है। पर आप दोनों के गले में मैं ने ताज़ा फूलों की माला जो पहनाई थी , निर्णय उसी के आधार पर दिया है। इन फूलों ने निर्णय दिया है। उन्हों ने उन दोनों माला को दिखाते हुए बताया कि आदि शंकराचार्य के गले में पड़ी माला के फूल अभी भी ताज़ा हैं। जब कि मंडन मिश्र के गले की माला के फूल सूख गए हैं। क्यों कि शस्त्रार्थ के समय यह बार-बार क्रोधित और उत्तेजित हुए हैं। सो माला के फूल उस क्रोध और उत्तेजना के ताप में सूख गए हैं। जब तथ्य और तर्क नहीं होता तब ही आदमी क्रोध में आता है। उत्तेजित होता है। अलग बात है कि बाद में यही आदि शंकराचार्य इसी भारती से शास्त्रार्थ में पराजित हो गए थे। हो सकता है यह प्रसंग आप को और तमाम मित्रों को न पसंद आए। न समझ आए। हिंदू , संघी , भाजपाई आदि-इत्यादि कह कर नाक-भौं सिकोड़ लें। खारिज कर दें। पर अभद्र और अश्लील भाषा के मद्देनज़र मुझे यही प्रसंग याद आया।

आदमी के पास जब तर्क और तथ्य नहीं होते तो उत्तेजित और क्रोधित ही होता है।
(हिप्पोक्रेट वामपंथी कबीले की कैफ़ियत लेख से)

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