पटना। बिहार के पूर्व डिप्टी सीएम तेजस्वी यादव ने जब ‘सूत्र को मूत्र’ कहकर चुनाव आयोग और टीवी न्यूज चैनलों पर तंज कसा, तो हंगामा मचना ही था। उनके इस बयान ने न सिर्फ सियासी गलियारों में हलचल मचाई, बल्कि पत्रकारों की दुनिया में भी तूफान खड़ा कर दिया। वरिष्ठ टीवी पत्रकार संजय सिन्हा ने इस मौके को लपकते हुए भड़ास फॉर मीडिया पर एक ऐसा लेख ठोका कि पढ़ने वाला हंसते-हंसते लोटपोट हो जाए। मैं संजय सिन्हा को निजी तौर पर नहीं जानता, लेकिन उनका ये लेख पढ़कर लगा कि किसी ने तो हिम्मत दिखाई और मीडिया की नब्ज को उलट-पुलट कर देख लिया। तो आइए, इस कहानी को मेरे अंदाज में, थोड़ा चुटीला, थोड़ा चटपटा, और बिल्कुल देसी ढंग से सुनाते हैं।
तेजस्वी यादव ने जब ‘सूत्र को मूत्र’ कहा, तो मानो उन्होंने पत्रकारों की पूरी जमात को एक ही तीर से निशाना बना लिया। उनका कहना था कि चुनाव आयोग ‘सूत्रों’ के हवाले से खबरें प्लांट करवाता है, ताकि सियासी खेल खेल सके। ये वही ‘सूत्र’ हैं, जिन्होंने ऑपरेशन सिंदूर के दौरान इस्लामाबाद, लाहौर और कराची पर कब्जा कर लिया था—कम से कम खबरों में तो! तेजस्वी ने इन सूत्रों को ‘मूत्र’ यानी अपशिष्ट पदार्थ करार दिया, जो दुर्गंध फैलाता है। अब भाई, ये बात तो माननी पड़ेगी कि तेजस्वी का ये तंज बड़ा रसीला था, लेकिन इसने पत्रकारों की टोली को भी कटघरे में खड़ा कर दिया।
संजय सिन्हा ने इस मौके को भुनाया और अपनी लेखनी से नेताओं और पत्रकारों के उस अनोखे रिश्ते को उधेड़ दिया, जो कभी गोदी में बैठकर अठखेलियां करता है, तो कभी पालने में झूलता है। उन्होंने लिखा कि कुछ पत्रकार तो ऐसे हैं, जो नेताओं की गोद में बैठकर लड्डू खाते हैं। और सिर्फ तेजस्वी या लालू यादव ही नहीं, कई और नेता भी हैं, जो पत्रकारों को पालने में झुलाने के लिए मशहूर रहे हैं। लालू प्रसाद अलग हैं, क्योंकि वे पालने में झुलाने में नहीं, सीधा पत्रकारों को पालने में ही यकिन करते थे।
नाम लेने की बात आई, तो संजय सिन्हा ने बिना हिचक कुछ नेताओं के नाम गिनाए, जिनके साथ पत्रकारों की खास ‘जुगलबंदी’ रही है। अब मजेदार बात ये है कि जो पत्रकार यूपीए की पिछली केंद्र सरकार में पालने में झूल रहे थे, वही आज “गोदी मीडिया” का राग अलापते फिर रहे हैं।
और मौजूदा सरकार? वो तो कुछ पत्रकारों को डिज्नी लैंड की सैर करा रही है, और ये पत्रकार बड़े गर्व से अपनी कहानियां सोशल मीडिया पर बांचते हैं। लेकिन संजय सिन्हा का कहना है कि 80-90% पत्रकार तो इस गोदी-पालने की दौड़ से कोसों दूर हैं। ये बेचारे बस अपना असाइनमेंट पूरा करने में जुटे रहते हैं। उनके सवालों को अगर कोई नेता सत्ता का सवाल समझकर नाक-भौं सिकोड़ ले, तो ये उनकी नासमझी है।
सवाल पूछना तो पत्रकार का धर्म है। अगर कोई नेता इन सवालों से चिढ़ जाता है, तो वो अपनी कमजोरी उजागर कर रहा है। संजय सिन्हा की मानें, तो ऐसे सवाल नेताओं के लिए सुनहरा मौका हैं। क्यों? क्योंकि जनता, जो विपक्ष के नरेटिव पर यकीन करती है, वो इन्हीं सवालों के जवाब सुनना चाहती है। अगर आप सवाल सुनकर भड़क गए, असंसदीय भाषा में ‘मूत्र’ जैसे शब्द उछालने लगे, तो जनता को लगता है, “अरे, इनकी दुखती रग तो यही है!” और अगर सवाल पसंद नहीं, तो थोड़ा व्यंग्य, थोड़ा हास्य, थोड़ी चतुराई से जवाब दो भाई! मूत्र-सूत्र की बहस में क्यों पड़ना?
नेता, चाहे सत्ता में हों या सत्ता से बाहर, उनका अहंकार तो बनता है। सत्ता में बैठे लोग सोचते हैं, “हम हैं तो सब कुछ है,” और जो बाहर हैं, वो कहते हैं, “हम फिर आएंगे और दिखा देंगे!” लेकिन पत्रकार? बेचारा पत्रकार तो सबसे निरीह प्राणी है। वो न तो सत्ता का हिस्सा है, न ही विपक्ष का, बस खबरों की दुनिया में भटकता रहता है। ऐसे में पत्रकारों को चाहिए कि वो उन लोगों का पर्दाफाश करें, जो ‘गोदी मीडिया’ का तमगा दूसरों को बांटते हैं। नाम लेकर, सबूत के साथ, उनकी कहानियां दुनिया के सामने लानी चाहिए। आखिर, सास भी कभी बहू थी, और गोदी में बैठने वाले भी कभी सवाल पूछने वाले निरीह पत्रकार ही थे और जो गोदी मीडिया का तमगा आज बांट रहे हैं, वे पिछली यूपीए की केन्द्र सरकार में अपने अपने नेताजी के गोद में बैठ कर मलाई खा रहे थे। माफ कीजिएगा कुछ पत्रकार नेताजी के खर्चे पर मटन, भात खा रहे थे और रेड लेबल पी रहे थे। उनकी कहानियों की पूरी श्रृंखल हो सकती है। कई की तो रिकॉर्डिंग सामने आ गई थी नीरा राडिया टेप में।
अब बात 80-90% पत्रकारों की। ये वो लोग हैं, जो न तो किसी की गोद में बैठते हैं, न ही किसी के पालने में झूलते हैं। ये बस अपनी ड्यूटी निभाते हैं-सवाल पूछते हैं, खबरें बनाते हैं, और सच को सामने लाने की कोशिश करते हैं। लेकिन नेताओं को लगता है कि हर सवाल उनके खिलाफ साजिश है। अरे भाई, अगर सवाल कड़वा है, तो जवाब में चाशनी डाल दो!
असंसदीय भाषा का सहारा लेकर आप सिर्फ अपनी कमजोरी दिखाते हैं। और हां, तेजस्वी के ‘मूत्र’ वाले बयान पर अगर हंगामा हो रहा है, तो इसमें पत्रकारों का क्या दोष? वो तो बस खबर दिखा रहे हैं।
संजय सिन्हा ने अपने लेख में एक जरूरी बात कही-पत्रकारों को चाहिए कि वो इस गोदी-पालने की गपशप को उजागर करें। जिन्होंने कभी गोद में बैठकर लड्डू खाए, वो आज दूसरों को गोदी मीडिया बता रहे हैं। ऐसे में सच को सामने लाना जरूरी है। और जो 80-90% पत्रकार इस दौड़ से बाहर हैं, उन्हें तो बस अपना काम ईमानदारी से करना है। बाकी, जो गोदी में हैं, वो आपस में निपट लें। जनता तो बस सच जानना चाहती है, और सच वही है, जो न तो गोद में बैठता है, न ही पालने में झूलता है। तो तेजस्वी जी, अगली बार सवाल आए, तो ‘मूत्र’ की जगह थोड़ा ‘अमृत’ बरसाइए। जनता को जवाब चाहिए, न कि तंज।