अनूप कुमार
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न जाने कितने ही भारत माँ के वीर सपूतों ने हमारे देश भारत को आजाद कराने के लिए अपना सर्वोच्च बलिदान दिया है।तब जाकर हमारा देश अंग्रेजी दासता से मुक्त हुआ और आज हम खुली हवा में सांस ले रहे हैं। 17 जुलाई को पूर्वोत्तर भारत के मेघालय राज्य के एक वीर सपूत उ तिरोत सिंह जो खासी जनजाति से आते हैं अंग्रेजी दासता को ठुकराकर 33 वर्ष की अल्पायु में अपना सर्वोच्च बलिदान दिया था।
अविभाजित असम (मेघालय व असम के विभाजन के पूर्व) के भूतपूर्व महामहिम राज्यपाल श्री जयरामदास दौलतराम ने 15 दिसम्बर 1952 को मयरांग में उ (खासी भाषा में नाम के आगे सम्मानपूर्वक उ लगाते हैं) तिरोत सिंह के स्मारक का आधारशिला रखते हुए कहा था कि उ तिरोत सिंह एक बहुत हीं कुशल व महान राजा थे और अन्ततः स्वतंत्रता के लिए अपना सर्वस्व बलिदान कर दिया। मैं आशा करता हूँ कि उनके नाम को भारतीय स्वतंत्रता के इतिहास में उचित स्थान मिलेगा। उ तिरोत सिंह नंग्ख्लाऊ के राज्य के राजा थे जो खासी पहाड़ में स्थित है।नंग्ख्लाऊराज्य का गौरवशाली इतिहास उ शाजेर और उ सेनट्यू के समय से हीं था। उन्होंने नंग्ख्लाऊ राज्य पर शासन बहुत हीं उत्कृष्टता एवं बुद्धिमत्ता से किया। यह उनके राज्य कुशलता व योग्यता का हीं प्रमाण था कि उनका साम्राज्य गुवाहाटी के पास बोरदुआर से लेकर आज के बांग्लादेश के सिल्हट तक था। यह काल था सोलहवीं शताब्दी के आधा बीत जाने के बाद का काल। उ तिरोत सिंह को विरासत में अपने पूर्वजों से कुछ विशिष्ट गुण प्राप्त हुए थे। उन्होंने अंग्रेजों से अपनी मातृभूमि की रक्षा करते हुए अदम्य साहस व स्वाभिमान का परिचय देते हुए मृत्यु को गले लगा लिया लेकिन कभी भी अंग्रेजी आधिपत्य के सामने सर नही झुकाया।
अपने मामा उ हेन सिंह के मृत्यु के पश्चात उ तिरोत सिंह नानखलाऊ राज्य के उत्तराधिकारी नियुक्त हुए। खासी जनजाति मातृ प्रधान समाज होने के कारण राजा के छोटी बहन का पुत्र यानी भांजा हीं राजा होता हैं। बाध्यकारी नियम, कानून एवं परंपरा जो उस भू-भाग पर लागू होते थे उसके कारण उनकी पकड़ को राज्य पर मजबूत करता था। खासी रीति के अनुसार राज्य की सुरक्षा के लिए एक मुखिया की आवश्यकता थी। उ तिरोत सिंह को नानखलाऊ राज्य का मुखिया यानी राजा मात्र 12 वर्ष की अल्पायु में 1814 ई० में घोषित किया गया। उनकी सरकार का संचालन उ तिरोत सिंह की माँ कसान सियम किया करती थी। प्रशासनिक कार्य और वहाँ की संसद जिसे दरबार हीमा कहा जाता है उसका संचालन कैबिनेट जो कि अनेक मंत्रियों का समूह हुआ करता था उसके माध्यम से होता था।
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उस जमाने में भी खासी राज्य का संविधान पूरी तरह से लोकतांत्रिक था। ब्रिटिश आने से पूर्व खासी पहाड़ में कुल 30 राज्य थे। इन राज्यों के राजा स्वायत व बहुत हीं अधिक शक्तिशाली थे। सभी के पास उनके स्वयं के मंत्रिमंडल थे जिनकी अनुमति के बगैर कोई भी व्यापार नही हो सकता था। खासी राज्य में वस्तुतः ऐसी एक लोकतांत्रिक व्यवस्था थी जिसमें कोई भी ऊँचा नीचा नही था,अपितु सभी का बराबरी का सहभाग था। अगर कभी विवाद या उत्तराधिकारी को लेकर प्रश्न भी खड़ा होता था तो उस विषय की चर्चा सदन में होती थी,जहाँ सभी को अपना मत प्रकट करने व वोट देने का अधिकार था। अंग्रेज अधिकारी डेविड स्कोट के सहायक कैप्टन वाइट एक बार ऐसे ही मौके पर दरबार में उपस्थित थे। वे दो दिनों तक चली एक चर्चा की व्यवस्था, शालीनता व शिष्टाचार देखकर वो आश्चर्यचकित हो गए।
अंग्रेजी शासन को यह महसूस होने लगा कि अगर ब्रह्मपुत्र वैली से आगे हमें राज्य विस्तार करना है तो असम वैली से सुरमा वैली (सिल्हट) तक सीधा रास्ता तैयार करना होगा। इसके लिए 1827 में डेविड स्काउट ने नानखलाऊ के राजा उ तिरोत सिंह से संपर्क किया व संधि किया जो कि दोनों राज्यों के बीच से नानखलाऊ से होकर सड़क निर्माण कि अनुमति देता है। अंग्रेजों की चाल भोले भाले खासी समझ नही पाए।
उ तिरोत सिंह को थोड़े ही समय में समझ आ गया कि अंग्रेजों की संधि ऑगलाल टेटन सिओक्स के प्रमुख रेड क्लाउड के कथन के अनुसार है जिन्होंने कहा था कि “उन्होंने हमसे बहुत सारे वादे किए। इतने सारे वादे कि हम उतने याद भी नही रख सकते। पर सिर्फ उन्होंने एक ही वादा निभाया जो उन्होंने हमारी जमीन लेने का किया था। अन्ततः उन्होंने हमारी जमीन ले ली।” अप्रैल 1829 यानी संधि के दो वर्ष के भी पहले नानखलाऊ राज दरबार ने निर्णय लिया कि धोखेबाज अंग्रेज एवं उनके समर्थकों को यहाँ से खदेड़ा जाय एवं संधि को तत्काल प्रभाव से निरस्त किया जाय। यह निर्णय अंग्रेज अधिकारियों के बदले रवैये, उनका नानखलाऊ राज्य कि शासक कि तरह व्यवहार एवं खासी जनता पर शोषण व अत्याचार के कारण लंबी चर्चा के बाद लिया गया। जनता पर अत्याचार की खबरें लगातार सिल्हट व गुवाहाटी से भी प्राप्त हो रहीं थी।
अंग्रेजों से संधि टूटने के बाद अपरिहार्य संघर्ष के लिए मंच सज चुका था क्योंकि दोनों पक्ष समझौते के लिए तैयार नही थे। युद्ध की घोषणा हो गयी थी व अन्य खासी राज्य ने भी युद्धनाद कर दिया था। तीर धनुष से सुसज्जित खासी जनजाति ने सबसे पहले एक ब्रिटिश सैन्य दुर्ग पर हमला किया जिसकी सुरक्षा बंगाल फौज के लेफ्टिनेंट बेफिंगफील्ड और लेफ्टिनेंट बुरीटोन कर रहे थे। अंग्रेजों के ऊपर हुए अचानक हमले से उनका काफी नुकसान हुआ, जिसमें बहुत ही बड़े बड़े अधिकारी मारे गए। अंग्रेजों ने इसे नानखलाऊ हत्याकांड नाम दिया। स्वाभाविक रूप से ब्रिटिश ने इसकी जबाबी कार्यवाही की। 44 वी असम लाइट इन्फेंट्री जिसका नेतृत्व कैप्टन लिस्टर कर रहे थे एवं 43 वीं असम लाइट इन्फेंट्री जिसका नेतृत्व नेतृत्व लेफ्टिनेंट वेच कर रहे थे उन्हें खासी पहाड़ पर हमले के लिए आदेश दिया गया। खासी राज्य के लोग संख्या व अस्त्र-शस्त्र के मामले में अंग्रेजों से कम थे,परंतु कभी भी सिपाहियों का साहस व उत्साह उ तिरोत सिंह ने कम नही होने दिया।
उ मोन भुट्ट, उ लूरशाई जारेन और उ खेन खारखंगोर उ तिरोत सिंह के कुछ खास सिपहसलार थे, जो उनके कुशल नेतृत्व में अंग्रेजी सेना से लोहा ले रहे थे। यह युद्ध चार वर्षों तक लंबा चला और खासी सिपाहियों के निरंतर संघर्ष के कारण खासी पहाड़ अंग्रेजी आधिपत्य से अप्रभावित रहा। खासी पहाड़ पर शिकंजा कसने के लिए अंग्रेजों द्वारा आर्थिक नाकेबंदी की गई। जिसके कारण अन्न का आयात निर्यात थम सा गया। किन्तु इसके बावजूद खासी सिपाहियों के हौसले बुलंद थे। यहाँ तक कि का फान नोंगलेट जो महिला सैन्य टुकड़ी का नेतृत्व कर रही थी उन्होंने अपने साथियो के साथ अनेक ब्रिटिश सिपाहियों को मार गिराया। उ तिरोत सिंह बहुत हीं तेजी से जब भी मौका मिलता तो अंग्रेजों को अपने गृह पहाड़ियों पर छापामार युद्ध से दांत खट्टे करते रहते।
आर्थिक प्रतिबंध का दुष्प्रभाव खासी राज्य पर पड़ने लगा था और यह युद्ध का एक नया मोड़ साबित हुआ। इस मौके का फायदा अंग्रेजों ने तोलमोल व धमकाने के लिए उठाया। डेविड स्कोट के परवर्ती आये अधिकारी ओबर्स्टन ने गोआलपाड़ा, सिहबंदीश , मॉन्स (बर्मा के बंदूकधारी) और मणिपुरी घुड़सवारों को अधिकृत किया और उसी समय आर्थिक नाकेबंदी को और भी कड़ा किया। सारी खेती बारी बंद हो गयी और अन्न का आयात भी पूरी तरह से बंद हो गया। इंग्लिश नाम का एक अधिकारी जो खासी पहाड़ के ही मिलयम पोस्ट का कमांडर था उसने देखा कि खासी लोग आर्थिक रूप से बहुत हीं कमजोर हो चुके हैं और यही सही मौका है उ तिरोत सिंह को बंदी बनाने का। उसने 13 जनवरी 1833 को उ तिरोत सिंह से बातचीत का प्रस्ताव रखा और खासी रीति के अनुसार तलवार की धार पर नमक रखकर कसम भी खाया कि वह राजा को कोई भी क्षति नही पहुंचाएगा। भोले भाले खासी लोगों को धोखे में रखा गया। 13 जनवरी 1833 को उ तिरोत सिंह मिलयम के लूम मैदान इंग्लिश से बातचीत के लिए गए।इंग्लिश ने उन्हें अभिवादन किया एवं एक बार फिर तलवार की धार से नमक खाकर विश्वास दिलाया। लेकिन अपनी योजना अनुसार अंग्रेजों ने छल से उ तिरोत सिंह को बंदी बना लिया।
राबर्टसन की योजना फलीभूत होने वाली थी। उनका असली उद्येश्य खासी पहाड़ को एक यूरोपियन उपनिवेश बनाने का था और इसके लिए वर्मा के बंदूकधारियों एवं तेजतर्रार मणिपुरिओं को खासी पहाड़ में तैनात करने की योजना बनाई ताकि मणिपुरिओं एवं खासी में संघर्ष बना रहे और इसका लाभ अंग्रेज उठाये। लेकिन खासी मुखिया एवं वहाँ के लोग बड़े ही दूरदर्शी थे उन्होंने इस असमान युद्ध को जारी न रखने में ही अपनी भलाई समझी। अपने लोगों से ही युद्ध का परिणाम हार या पूरे खासी पहाड़ का खोना हो सकता था।
अंग्रेजी हुकूमत की यह योजना जिसमे पूरे पूर्वोत्तर को अपना उपनिवेश बनाया जाय इसका प्रयास आज भी जारी है। हाल फिलहाल में नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा FCRA: Foreign Contribution Regulation Act को निरस्त किया गया। जिसका विरोध पूर्वोत्तर राज्यों के कुछ तथाकथित बुद्धिजीवियों द्वारा की जाती है। इस एक्ट के माध्यम से वे बे-रोकटोक विदेशी धन पूर्वोत्तर में भारत विरोधी गतिविधियों में खर्च हो रहा था। इसके विरोध का स्वर हमें फिर से राबर्टसन ने जो स्वप्न देखा था उसको पूरा करने के लिए ताकतें प्रयासरत प्रतीत होती हैं।
उ तिरोत सिंह को बंदी बनाये जाने के बावजूद खासी राज्य के ज्यादातर भाग को आजाद करा लिया गया था। यद्यपि उन्हें मजबूरीवश रास्ता बनाने के लिए एक अंग्रेजी एजेंट को अनुमति देनी पड़ी। कैप्टन लिस्टर जो सिल्हट के लाइट इन्फेंट्री से था वो उ तिरोत सिंह के अंग्रेजों की ओर से मध्यस्त थे। अंग्रेजी में कहा जा सकता है: Discretion is the perfection of reason ,and guide to us all in all the duties of life, It is only found in men of sound sense and good understanding.
चेन से बांधकर बन्दी बनाकर उ तिरोत सिंह को गुवाहाटी लाया गया। जहाँ उनके मध्यस्त को टेनासेरिम (वर्मा) सुपुर्द करने का आदेश दिया गया। लेकिन कलकत्ता काउंसिल ने उन्हें निर्वासन के लिए डेक्का भेज दिया गया। एक उपयुक्त लेकिन मजबूत घर उनके लिए ढूंढा गया एवं उन्हें महीने का तिरेसठ रुपये और दो नौकर साथ रखने की अनुमति दी गयी। उन्हें कैद में बहुत यातना दी गयी। यहाँ तक कि यातना के पश्चात अंग्रेज अधिकारियों ने उन्हें प्रलोभन भी दिया और उनके समक्ष पेशकश की कि आप वापस अपने राज्य जा सकते हैं और अंग्रेजी हुकूमत को सर्वोच्च मानकर शासन कर सकते हैं। लेकिन उन्होंने इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया और कहा कि “गुलाम राजा के जीवन से बेहतर है मैं आजाद रहकर मरूँ।” उ तिरोत सिंह अंतिम स्वतंत्र राजा थे, जिन्होंने अपनी शहादत 1835 के पूर्व अपना जीवन कैद एवं एकाकीपन में व्यतित किया। इस तरह से एक बहुत हीं वीर लेकिन भारतीय इतिहास के किसी पन्ने में खोए हुए स्वतंत्रता सेनानी की जीवन यात्रा समाप्त होती है।
उनकी शहादत के 186 वर्ष पूरे हो चुके हैं। नमन है मेघालय के खासी जनजाति का जिन्होंने ऐसे वीर सपूत को जन्म दिया जिन्होंने देश कि संस्कृति,परंपरा और अपना भारतीय धर्म बचाने के लिए अपना सर्वोच्च बलिदान दिया। आज भी देश के बहुत से नागरिक ऐसे वीर हुतात्मा के बारे में नही जानते। आइये हम सब मिलकर उ तिरोत सिंह सियम की जीवन से प्रेरणा ले व उनके संदेश को जन-जन तक पहुँचाए।