फिल्म उदयपुर फाइल्स कन्हैया लाल की हत्या की कहानी को एक सिनेमाई रूप देने का दावा करती है। ट्रेलर के अनुसार, यह फिल्म उस क्रूर घटना को पुनर्जनन करती है, जिसमें कन्हैया लाल का सिर कलम कर दिया गया था। निर्माताओं का कहना है कि यह फिल्म किसी समुदाय विशेष को निशाना नहीं बनाती, बल्कि एक अपराध की कहानी कहती है। सेंट्रल बोर्ड ऑफ फिल्म सर्टिफिकेशन (सीबीएफसी) ने भी दावा किया कि फिल्म के 55 हिस्सों में बदलाव या कटौती की गई है, जो लगभग 11 मिनट के हिस्से को प्रभावित करता है। फिर भी, जमीयत उलेमा-ए-हिंद और अन्य याचिकाकर्ताओं ने आरोप लगाया कि यह फिल्म मुस्लिम समुदाय को नकारात्मक रूप में चित्रित करती है और सांप्रदायिक वैमनस्य को बढ़ावा दे सकती है। याचिकाकर्ताओं का कहना है कि फिल्म में नूपुर शर्मा के विवादास्पद बयानों को शामिल किया गया है, जो धार्मिक भावनाओं को भड़का सकता है।
दिल्ली हाई कोर्ट ने जमीयत उलेमा-ए-हिंद की याचिका पर सुनवाई करते हुए फिल्म की रिलीज पर रोक लगाई और याचिकाकर्ताओं को केंद्र सरकार से संपर्क करने का निर्देश दिया, ताकि सीबीएफसी द्वारा दिए गए प्रमाणन की समीक्षा की जा सके। कोर्ट ने यह भी सुनिश्चित किया कि इस बीच कोई अपूरणीय नुकसान न हो। इससे पहले, सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में तत्काल सुनवाई से इनकार कर दिया था और मौखिक रूप से कहा था, “फिल्म को रिलीज होने दें।” हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने बाद में स्पष्ट किया कि उसने कोई लिखित आदेश जारी नहीं किया था, जिससे दिल्ली हाई कोर्ट में भ्रम की स्थिति उत्पन्न हुई।
यह विवाद अभिव्यक्ति की आजादी और सामाजिक जिम्मेदारी के बीच एक गहरे टकराव को दर्शाता है। कन्हैया लाल की हत्या को एक ऐसी घटना के रूप में देखा जाता है, जिसने अभिव्यक्ति की आजादी पर सवाल खड़े किए। ठीक वैसे ही, जैसे 2015 में फ्रांस के शार्ली हेब्दो पत्रिका के कार्यालय पर हुआ आतंकी हमला, जिसमें कार्टूनिस्टों को केवल इसलिए निशाना बनाया गया क्योंकि उनके कार्टून कुछ लोगों की धार्मिक भावनाओं को आहत करते थे। दोनों ही घटनाएं यह सवाल उठाती हैं कि क्या अभिव्यक्ति की आजादी की कोई सीमा होनी चाहिए? शार्ली हेब्दो हमले के बाद वैश्विक स्तर पर “Je Suis Charlie” आंदोलन ने अभिव्यक्ति की आजादी का समर्थन किया, लेकिन भारत में कन्हैया लाल के मामले में ऐसी कोई एकजुटता नहीं दिखी। बल्कि, जैसा कि कुछ लोग तंज कसते हैं, अभिव्यक्ति की आजादी के तथाकथित चैंपियन मौन रहे, क्योंकि यह मामला उनके “चुनिंदा प्रेम” के दायरे में नहीं आता था।
उदयपुर फाइल्स के निर्माता, जिनमें हिंदुत्व कार्यकर्ता अमित जानी शामिल हैं, दावा करते हैं कि यह फिल्म सच्चाई को सामने लाने का प्रयास है। लेकिन याचिकाकर्ताओं का तर्क है कि यह फिल्म न केवल चल रहे मुकदमे को प्रभावित कर सकती है, बल्कि सामाजिक सौहार्द को भी नुकसान पहुंचा सकती है। विशेष रूप से, यह आरोप लगाया गया है कि फिल्म में मुस्लिम समुदाय को आतंकवाद और अन्य नकारात्मक छवियों से जोड़ा गया है, जो सांप्रदायिक तनाव को बढ़ा सकता है।
इस पूरे प्रकरण में एक और दिलचस्प पहलू यह है कि फिल्म को लेकर सोशल मीडिया पर भी ध्रुवीकरण देखने को मिल रहा है। कुछ लोग इसे साहसी कदम मानते हैं, जो एक क्रूर अपराध को उजागर करता है, जबकि अन्य इसे सांप्रदायिक नफरत फैलाने का हथियार मानते हैं। एक्स पर कुछ पोस्ट्स में फिल्म के ट्रेलर को साझा करते हुए इसे “आतंकवाद के खिलाफ आवाज” बताया गया, वहीं अन्य ने इसे “मुसलमानों के खिलाफ नफरत” फैलाने वाला करार दिया।
यह विवाद हमें एक बार फिर उस जटिल रेखा पर लाकर खड़ा करता है, जहां कला, अभिव्यक्ति और सामाजिक जिम्मेदारी का टकराव होता है। उदयपुर फाइल्स केवल एक फिल्म नहीं, बल्कि एक दर्पण है, जो समाज के उन घावों को उजागर करता है, जिन्हें हम अक्सर अनदेखा कर देते हैं। सवाल यह है कि क्या यह फिल्म सच्चाई को सामने लाएगी या फिर समाज में पहले से मौजूद दरारों को और गहरा करेगी? इसका जवाब शायद तभी मिलेगा, जब केंद्र सरकार इस मामले पर अंतिम फैसला लेगी।