शृंखला आलेख – 18 उस दौर के शहरी माओवादी

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रायपुर : बंदूख लेकर माओवाद सीधे नहीं उपजा, बल्कि उसे उर्वरा जमीन शहरी माओवादियों ने प्रदान की है। बस्तर परिक्षेत्र में माओवाद को अस्सी के दशक का बताया जाता है लेकिन आश्चर्य होगा इससे दशकों पहले जमीन तैयार की जा रही थी। इसका प्रयास महाराजा प्रवीरचंद्र भंजदेव के जीवित रहते ही आंध्रप्रदेश की ओर से आरंभ हो चला था।

तेलांगाना सशस्त्र संघर्ष के इतिहास लेखक पी. सुंदरैया ने लिखा है कि “1951 में पहली बार अविभाजित सीपीआई ने गोदावरी पार कर बस्तर में प्रवेश करने की कोशिश की, लेकिन उन लोगों के बीच से उन्हें कोई सकारात्मक प्रतिक्रिया नहीं मिली। वे उनकी भाषा तक नहीं समझ सकते थे। इसके बजाय उनका सामना हुआ शत्रुतापूर्ण पुलिस से। भोपालपट्टनम में जब उनके तीन साथियों को गोली मारी गई तो कम्युनिष्ट वहाँ से लौट गये”। सुंदरैया के अनुसार प्रयास यहीं नहीं रुके बल्कि वर्ष 1963 में लाल झंडों के साथ एक सायकिल रैली भी कम्युनिष्टों द्वारा निकाली गई थी। महाराजा प्रवीर के कारण बस्तर को एक स्वर और प्रतिनिधित्व प्राप्त था इसलिए असफलता स्वाभाविक है।

जब शहरी नक्सलवाद शब्द आविष्कृत भी नहीं हुआ था उस दौर की यह घटना महत्व की है। बात है वर्ष 1968 की और स्थान है जगदलपुर जबकि दीवारों पर उग्र वामपंथी नारों के लेखन के लिए वाई. एस. मूर्ति नाम के एक व्यक्ति को गिरफ्तार किया गया था। यह व्यक्ति भी आंध्र-तेलांगाना का ही था। मूर्ति की गिरफ्तारी बहुत चर्चा में रही थी और इसका विरोध तब शंकर गुहा नियोगी ने भी किया और अपनी गिरफ्तारी भी दी थी।

इन छुटपुट घाटनाओं के बीच एक वारंगल का एक शहरी नक्सली चुपचाप अपना काम कर रहा था और उसका नाम था पी विजय कुमार। बंदूख वालों के आगमन से पहले ही आंध्र-तेलांगाना से शहरी नक्सली लगातार दस्तक दे रहे थे और बस्तर में माओवाद के लिए जमीन तैयार करने में लगे थे। विजय कुमार एक डॉक्टर था और उसने वर्ष 1974 में भोपालपट्टनम में डॉ. श्रीनिवास राव के नाम से काम शुरू किया। इसका सहयोगी था तुषार कान्ति भट्टाचार्य जो बदले हुए नाम मोहन सिंह के साथ काम कर रहा था। बाद में तुषार ने अपना अलग क्लीनिक तारलागुड़ा में खोल लिया। इनकी गतिविधियों पर पुलिस की निगाह थी। जब छापा मारा गया तो बहुत बड़ी मात्रा में जमीन में गाड़ कर छिपाया गया नक्सल साहित्य बरामद हुआ। डॉक्टरों के भेस में आतंकवाद का पोषण करने वाला विजय कुमार या तुषार कोई अकेले उदाहरण तो नहीं है बल्कि यहाँ से आरंभ कर विनायक सेन तक यह एक श्रंखला है जो शहरी माओवाद शब्द को तथ्यपरक बनाती है। विजय कुमार के बारे में बताया जाता है कि गिरफ्तार होने के डर से संभवत: वह अमेरिका भाग गया था।

शहरी नक्सलवाद आज मीडिया और सोशल मीडिया का सहारा लेता है। वर्ष 1980 के दौर में टेलीविजन बहुत हद तक सरकारी नियंत्रण में था और सोशल मीडिया समुपस्थित नहीं था परंतु तब सिनेमा, विशेषरूप से समानांतर सिनेमा कम्युनिष्टों और शहरी माओवादियों की ताकत बना। इस कडी में माओवसाद को महिमामण्डित करती वर्ष 1980 में बनायी गयी ख्वाजा अहमद अब्बास की फिल्म दि नेक्सलाईट पर चर्चा आवश्यक है। कथानक आश्चर्य में डालता है चूंकि फिल्म में उस दौर का बस्तर दिखाया गया है जब यहाँ नक्सल गतिविधियाँ आरम्भ भी नहीं हुई थीं। बस्तर को बहुत शोध के स्थान पर रुमानियत के साथ दिखाया गया है। फिल्म का बस्तरिया पात्र अर्जुन आदिवासी रॉबिन हुड अधिक प्रतीत होता है। नायिका स्मिता पाटिल ने ताकतवर भूमिका अदा की है। केवल शक के आधार पर नायिका अपने कमांडर का आदेश मिलने के कारण प्रेमी पर उसके निर्दोष होने की बात जानते-बूझते हुए भी गोली चला कर हत्या कर देती है।

मुझे यह बात आश्चर्य में डालती है कि जब आंध्र-तेलांगाना नक्सलवाद की आग में झुलस रहे थे तब उसे ओर से बस्तर के भीतर कोई अध्यापक, कोई चिकित्सक या कोई सिनेमा कैसे बंदूख की आमद के लिए पृष्ठभूमि तैयार कर रहा था। उस दौर के शहरी नक्सली भी भुलाये नहीं जाने चाहिए क्योंकि माओवाद केवल बंदूख नहीं है।

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राजीव रंजन प्रसाद

राजीव रंजन प्रसाद

राजीव रंजन एक पुरस्कार विजेता लेखक और पर्यावरणविद् हैं। जिन्हें यथार्थवादी मुद्दों पर लिखना पसंद है। कविता, कहानी, निबंध, आलोचना के अलावा उन्होंने मशहूर नाटकों का निर्देशन भी किया है।

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