पंकज कुमार झा
इस सर्वाधिक कुरूप व्यक्ति को देख कर तो अनेक चेहरे याद आ गये, किंतु आज जिस शिद्दत से मैं एक चेहरे को याद कर रहा हूं और उसका मिलान जिससे कर पा रहा हूं, वह है कुरूपतम राजेंद्र यादव का। काश यादव अभी जिन्दा होते।
सन् 2004 से थोड़ा-बहुत लिखने पढ़ने लगा था माओवादी आतंकवाद पर। स्वभाव है अपना कि तटस्थ भाव से चीजों को देख नहीं पाता। जिस भी विषय से जुड़ता हूं, भीतर-बाहर एक जैसा रहता हूं। ऐसा किसी पत्रकार के लिए होना उचित नहीं है। इसलिए मुख्यधारा की पत्रकारिता कभी रास आ भी नहीं सकती थी हमें। मेरा हमेशा एक पक्ष होता है। हम इस मायने में ईमानदार हो ही नहीं सकते।
बहरहाल! यह वो समय था, जब नक्सल समर्थन में लिखना न केवल फैशन था अपितु तब वह आपके पत्रकार होने पर मुहर भी था। छत्तीसगढ़ का इस मामले में हाल तो ऐसा था था कि बकायदा तब के कथित नक्सल प्रवक्ता का लेख आता था, अगले दिन राज्य का डीजीपी लेख लिख कर उसका जवाब देते थे। आश्चर्य लगता था कि यह हो क्या रहा है भला? जिस व्यक्ति के हाथ में ए. के. सैंतालिस होना चाहिये, वह कलम और सिगरेट थामे एन्थेसिस, पैनथीसिस, केंथीसिस किए जा रहा है। बहुत सारी चीजें प्रतीक में भी दिखनी चाहिए, यह सही है कि कप्तान एसएलआर थामे सीमा पर नहीं पहुंच जाता, पर ऐसा दिखना अवश्य चाहिये उसे कि वह युद्धकाल में बुद्धिविलास में रत नहीं है। खैर।
यह किसी का अपमान करने के लिए नहीं है, बस याद आ रहा आज पुराना सब तो लिखते जा रहा हूं, जैसा कि करेक्टनेस को छोड़ कर लिखते रहने का अपना व्यसन है। उस समय भी सरकार अपनी ही थी। निस्संदेह जनकल्याण के अद्भुत और ऐतिहासिक कार्य हो रहे थे तब, फिर भी अपनी ही सरकार में अपने ही लोगों के विरुद्ध भी इस विषय पर अखबारों में लिखने से बाज नहीं आता था। हालांकि उन आलोचनाओं का भी कितना सम्मान होता था, आपकी अभिव्यक्ति कैसे सराही जाती थी, जिनकी आप आलोचना कर देते थे, वे भी कैसे मिलने पर तारीफ ही करते थे, वह अलग से रेखांकित किये जाने योग्य है।
उसके बाद माओवादी आतंक के खिलाफ खूब लिखा। खूब छपा। खूब सक्रियता भी रही। अनेक श्रेष्ठ लेखक बाद में देश को मिले। अनेक कार्यक्रम दिल्ली और बाहर भी किया। विनायक सेन और अग्निवेश जैसों के विरुद्ध तो अनेक कवर स्टोरी की राष्ट्रीय पत्रिकाओं में की। जंतर मंतर पर जा कर अन्ना आंदोलन में अग्निवेश को नंगा भी किया। किंतु…
एक समय के बाद अखबारों आदि में नक्सल पर लिखना छोड़ दिया था। कई बार ऐसा हुआ कि किसी अखबार या संस्थान से चेक आया पारिश्रमिक का, (उस समय वह छोटा-छोटा चेक भी अपने लिए महत्व का होता था आर्थिक दृष्टि से भी। फिर भी) और इधर फिर कोई नयी घटना हो जाती थी जिसमें दर्जनों जवान या आदिवासी बलिदान हो जाते थे, लगता था जैसे हम उनकी पीड़ा को बेच कर पैसे कमा रहे हों। कुछ अच्छा सुरक्षा बलों को हासिल नहीं हो पाता था, तो बेबस और लाचार महसूस करता था।
फिर शुरू हुआ सलवा जूडूम। उसके साथ क्या साजिशें की गयी। कैसे हमारे टाइगर महेंद्र कर्मा जी की नृशंस हत्या हुई, ये सारी चीजें आंखों से अभी ओझल ही नहीं हो रही है। लम्बी दास्तान है – रानीबोदली, एर्राबोर, चिल्तननार, मदनवाड़ा से लेकर झीरम तक की, लाशें बिछती रही और लोग बुद्धिविलास करते रहे, जेएनयू आदि में जश्न मनता रहा।
वक्त का पहिया घूमा, भाजपा फिर सत्ता में आयी। इस बार तैयारी पूरी थी क्योंकि भाजपा को यह साबित करना था कि वह जरूरी क्यों है। पिछले अनुभवों से लाभ लेकर न केवल युद्ध के मोर्चे पर बल्कि बौद्धिक मोर्चे पर भी इस बार तैयारी जोरदार थी। मोदीजी की खुली छूट, अमित शाह जी का संकल्प, जनजाति समाज से ही आने वाले विष्णु देव साय जी की खुली छूट और उत्साही गृह मंत्री विजय शर्मा जी की लगन। ऐसी लगी फिर कि नस्तनाबूत ही हो गया नक्सल संसार।
हां, तो पिछले अनुभव से सबक लेकर इस बार तय किया गया था कि आत्मसमर्पण नीति, पुनर्वास नीति, गिरफ्तारी, एनकाउंटर… आदि पर तो काम किया ही जायेगा, किंतु साथ-साथ आधा मोर्चे को भी जड़ मूल से उखाड़ने की कोशिश होगी। अर्बन नक्सल का भी सफाया होगा। नक्सल समर्थन में उठे ‘हाथ’ को तोड़कर जंगल में फेक दिया जायेगा, इसके समर्थन में उठने वाली आवाज के हलक से जुबान खींच कर उसे कुत्ते को खिला दिया जायेगा, वह कलम जो मेरे बस्तर के विरुद्ध उठेगा उसे तोड़ कर कलमदस्युओं की आंख में घोंप दिया जायेगा, ठंडे दिमाग और गरम खून में साथ शुरू इस नये अभियान को इसी जज्बे से प्रारंभ किया गया था। समर्पण इतना कि आप खुद प्रदेश के उप मुख्यमंत्री और गृह मंत्री को किसी गरम सी दोपहर में कनाट प्लेस में अपने लोगों के साथ नक्सलियों के पक्ष में चिपकाये पोस्टर को मिटाते हुए देख सकते थे।
युद्ध अभी समाप्त नहीं हुआ है लेकिन अब विजय के मुहाने पर अवश्य खड़ा है आज लोकतंत्र और संविधान। जब दुनिया टकटकी लगाये ऑपरेशन सिंदूर देखने में व्यस्त थी, जब सारे समाचार माध्यम लाहौर और पिण्डी का विध्वंस दिखाने में व्यस्त थे, यह एक युद्ध भीतर भी चल रहा था बस्तर के। हजारों जवानों वहां कर्रेगुटा की पहाड़ी पर उतरे और बिच्छुओं का सफाया करना शुरू कर दिया। हमेशा की तरह अंत-अंत में कांगरेड की गद्दारी सामने आनी ही थी, आयी भी तेलंगाना के सीएम के बयान के रूप में और शायद कुछ अन्य रूपों में भी, पर जवान डटे रहे। दिल्ली और रायपुर की नजर इधर बनी रही, काम चलता रहा। बड़ी सफलता आज एक करोड़ से अधिक के ईनामी पोलित ब्यूरो के सदस्य समेत ढाई दर्जन नक्सल शव में रूप में मिली है, करोड़ों के ईनामी का चेहरा बिल्कुल राजेंद्र यादव टाइप लगा मुझे तो।
लौटते हैं रजिंदर की तरफ। इसी बुद्धिविलास के दौर में जिसका जिक्र ऊपर है, एक बार हंस में राजेंद्र की संपादकीय पढ़ कर लगा कि आज अगर उनके सामने होता तो शायद गर्दन पकड़ लेता उनकी। जवानी का गरम खून उबाल ले रहा था, ऊपर से अपने लोगों की लाशें गिनते-गिनते आंखें पथरा गयी थी। उस संपादकीय को लेकर बड़े साहब के पास पहुंचा था। उन्हें बताया कि इस व्यक्ति के कमर में रस्सा डाल कर इसे रायपुर की अदालत में हथकड़ी पहना कर हाजिर कराना चाहिए। छोटा सा एक जुलूस भी इसका रायपुर में निकालेंगे। किसी युवा के लिए ऐसा कह देना आसान था, किंतु ऐसा कदम किसी मुखिया के लिये उठाना आसान नहीं था। काफी देर सोचते हुए साहब ने तब कहा था, मामला गंभीर है, जन सुरक्षा कानून के तहत मामला बनता भी है, पर कितने मोर्चे आखिर एक साथ खोल सकते हैं। वास्तव में वे बिल्कुल सही थे। यह 2014 से पहले की बात थी। तब राष्ट्रीय परिस्थितियां आज जैसी थी नहीं।
आज स्थिति हर तरह से राष्ट्र के पक्ष का है और जिस तरह केंद्र में भी मेहनत हुई, दिल्ली जा कर जिस तरह नक्सल पीड़ितों ने अपना पक्ष रखा, उसके बाद तो जेएनयू वाले मुफ्तखोर कन्हैया की भी हिम्मत नहीं है अब टुकड़े वाली बात करने की। अब तो गंगा ढाबे पर भी हमने नारे गुंजा दिया है – नक्सल तेरी कब्र खुदेगी जेएनयू की धरती पर। बहरहाल!
काश, काश आज रजिंदर जीवित होते। काश आज उनकी आंखों से काला चश्मा नोंच कर हम उनके सामने किसी हिडमा को बांध कर वैसा ही खड़ा कर पाते जैसा आज किसी मुनीर की छाती पर राफेल टिका कर हमने आनंद लिया है। आपके हर सपने पूरे हों ही, यह आवश्यक नहीं। पर भाजपा सरकार के दौरान हमारे सुरक्षा बलों के शौर्य से जो उपलब्धियां हमने प्राप्त की है, उसके लिए यह कह सकता हूं कि सात जन्म अगर मनुष्य के रूप में ही जन्म लेने का अवसर मिले, तो हर बार भाजपा कार्यकर्ता बन कर ही आना चाहूंगा।
युद्ध न तो भीतर का समाप्त हुआ है अभी, न ही बाहर का। कांग्रेस दोनों जगह आज भी जुटी है दुष्प्रचार करने में। जहां सिंदूर में वह भारत को नीचा दिखाने में कोई कसर छोड़ रहा है, न ही बस्तर में अदाणी के बारे में दुष्प्रचार कर, या फिर तेलंगाना के सीएम से बयान आदि दिलवा कर, वह युद्ध को कमजोर करने में जुटी हुई है, फिर भी एक निर्णायक बढ़त हमें ढाई में से दो मोर्चों पर आज हासिल तो है ही। जो आधा बचा है, वह भी जीत जायेंगे हम, निस्संदेह। भगवा प्रणाम।