प्राचीन भारतीय शिक्षा राष्ट्रनिर्माण की अवधारणा पर आधारित थी। उसमे धर्म, संस्कृति एवं नैतिकता का समावेश था। उसमे स्वहित से ज़्यादा राष्ट्रहित को महत्व दिया जाता था। 1857 के स्वतन्त्रता संग्राम में जब भारतीयों द्वारा अंग्रेजों को कड़ी चुनौती मिली तब लार्ड मैकाले ने ब्रिटिश संसद को बताया कि जब तक भारत की परंपरागत शिक्षा जारी रहेगी तब तक हम भारत पर बड़े समय तक कब्जा नहीं रख पाएंगे। इसके बाद अंग्रेजों ने शिक्षा व्यवस्था बदल दी। शिक्षा का वह स्वरूप सामने आया जो आज भी बरकरार है। शिक्षा का स्वरूप, राष्ट्रनिर्माण में शिक्षा का महत्व एवं शिक्षा को जीविकोपार्जंनकारी बनाने के लिए शिक्षा के महत्व को व्यापक अर्थों में समझना आवश्यक है
वर्तमान की समस्याओं का जब हम गहराई से विश्लेषण करते हैं तब हम पाते हैं कि शिक्षा व्यवस्था पर विमर्श की आवश्यकता है। शिक्षा का वास्तविक उद्वेश्य व्यक्तित्व विकास होना चाहिए। व्यक्तित्व विकास जीविका के साधन स्वयं उपलब्ध करा देता है। शिक्षा का अर्थ अक्षर ज्ञान या किताबी ज्ञान नही होता, बल्कि व्यक्तित्व का सम्पूर्ण विकास होता है। वर्तमान, शिक्षा व्यवस्था न तो व्यक्तित्व विकास में सहायक हो पा रही है और न ही जीविकोपार्जनकारी है। यह पेंडुलम दोनो के बीच लगातार कहीं डोलता रहता है। हमारी शिक्षा व्यवस्था की प्रायोगिक विडम्बना देखिये कि उच्च शिक्षा प्राप्त व्यक्ति भी अपने संवैधानिक अधिकारों एवं कर्त्तव्यों के बारें में नही जानता। वह तिरंगे को अपने स्वाभिमान से जोड़ के नही देख पाता। राह चलते हुये राष्ट्रगान की धुन सुनाई दे तो वह उसको ठहराव के लिए मजबूर नही कर पाती। महान व्यक्तित्व एवं युगपुरूषों की गाथाए क्षणिक रोमांच तो पैदा कर देती है, किन्तु वैसा जीवन जीने के लिए प्रेरित नही कर पाती। सामाजिक दायित्वों को शिक्षित व्यक्ति सरकारी गतिविधियों से जोड़ के देखता है। भारत को स्वच्छ रखने के लिए बाकायदा एक स्वच्छ भारत अभियान चलाना पड़ा। ऐसे में राष्ट्रवाद की भावना फिर कहॉ से परिलक्षित होगी ? यह अपूर्ण शिक्षा न ही व्यक्तित्व विकास में सहायक हो पा रही है और न ही राष्ट्रवाद की भावना पैदा करने में ? जब हम अपने आस पास का माहौल और समस्याएँ देखते हैं तब अपनी दिनचर्या में हम पाते हैं कि पद की जवाबदेही के स्थान पर पद का दुरूपयोग भ्रष्टाचार को बढ़ावा दे रहा है।
राजनीति में अनीति, शिक्षा का बाजारीकरण, लचर प्रशासन, न्याय प्रक्रिया में देरी, पुलिस का अपराधीकरण जैसे ज्वलंत मुद्दे एक ‘गंभीर चिंता एवं गहन चिंतन’ का विषय हैं। एक उच्च शिक्षित व्यक्ति जब भ्रष्टाचार के सामने हथियार डाल देता है तो यह हमारी शिक्षा की असफलता को ही इंगित करता है। किसी भी देश के निर्माण में बालशिक्षा एक अहम तत्व है। बालमन मे चारों का तीव्र प्रवाह रहता है। संस्कारों के द्वारा इस प्रवाह को सार्थक एवं उपयुक्त दिशा मिलती है। जाने माने शोधकर्ताओं की बड़ी-बड़ी थ्योरियों को समझने के स्थान पर अभिभावकों को एक मूलभूत बात समझने की ज़्यादा आवश्यकता है कि बच्चों की भावनाओं को रोकना संभव नहीं है। जैसे कोई बच्चा अगर शरारत कर रहा है तो उस पर सख्ती के द्वारा सिर्फ क्षणिक काबू पाया जा सकता है। ज़्यादा बेहतर है उसे हम कोई रचनात्मक काम दे दें। एक ऐसा काम जिसके द्वारा उसका ध्यान भी किसी काम में लग जाये और उसका अंजाम ऐसा हो जहां उसकी शरारत का रचनात्मक इस्तेमाल हो सके। ऐसा करवाना एक बड़ी कला है। बालमन का मार्गदर्शन करके सिर्फ उन्हें ही सही अर्थों में मनुष्य नहीं बनाया जाता है वरन खुद को भी एक आत्मिक शांति मिलती है। बालमन के निश्चल सवाल बड़ों को भी आत्मचिंतन का माध्यम उपलब्ध करा देते हैं। जैसे ही हम बच्चों की नई सोच से तालमेल बैठाने की कोशिश करते हैं, हमारे अंदर भी वैचारिक स्फूर्ति आ जाती है। बालमन की कल्पनाओं का प्रवाह इतना असीमित होता है कि अनंत आकाश की सीमाएं भी छोटी पड़ जाती हैं।
अपराध के मनोविज्ञान मे बालमन एक महत्वपूर्ण विषय है। बेसिक शिक्षा की असफलता कहीं न कहीं अपराध की मनोवृत्ति को बढ़ाने मे मददगार बन जाती है। अपराध मुक्त सभ्य समाज के लिए दो बिन्दु महत्वपूर्ण हैं। “प्रिवेंशन एंड क्योर”। बच्चों मे अच्छे संस्कार समाज मे अपराध का पूर्व-निवारण(प्रिवेंशन) कर सकते हैं और न्याय होना और होते दिखना समस्या के उपचार(क्योर) के लिए आवश्यक है। वेदो के अनुसार ईश्वर ने बीज रूप में सभी गुण मनुष्य को दिए हैं किन्तु गुण दिखाई तभी पड़ते हैं जब इन गुणों को अभ्यास के द्वारा पूर्ण रूप से विकसित किया जाता है। हमारे अंदर विद्यमान ये गुण अनुकूल परिस्थितियां पाते ही अंकुरित होने लगते हैं और धीरे-धीरे पूर्णता की तरफ बढ़ते हुए एक दिन बढ़ कर मानवता के लिए छायादार वृक्ष बन जाते हैं। अब चूंकि वेद, धार्मिक वातावरण एवं सांस्कृतिक विरासत की बातें स्कूल में नहीं पढ़ाई जाती हैं इसलिए घर का माहौल बच्चे पर बहुत प्रभाव डालता है। बालमन एक बीज़ है एवं इससे बना हर छायादार वृक्ष राष्ट्र को समर्पित एक भारतीय नागरिक। बबूल के बीज़ से मे आम का उदभव नहीं होता। वृक्ष बनने पर आप परिवर्तन भी नहीं कर सकते। जो भी सुधार संभव है वह बीज़ के स्तर पर ही संभव है। अक्सर हम लोग बीज़ को छोटा समझने की भूल कर बैठते हैं। बच्चों की शिक्षा का विज्ञान इस संदर्भ में अत्यंत महत्वपूर्ण हो जाता है। बच्चों का मनोविज्ञान समझते हुए उन्हे कोमिक्स और कार्टून का सानिध्य दें। 50 रुपये के चिप्स और चॉकलेट बच्चों को दिलवाने के स्थान पर इतने रुपये की कोमिक्स दिलवाने पर विचार करें। बच्चे बड़ो के आचरण से प्रभावित होते हैं। किताबों मे लिखी बातों को तो बच्चे याद कर लेते हैं किन्तु अपने माता पिता और निकट आत्मीयों के आचरण को वो स्वयं मे ढालने की कोशिश करते हैं। इसलिए बड़े पहले स्वयं मानवीय गुणों को अपनाने के लिए प्रयास करें। हमारा व्यवहार बच्चों की किताबों मे लिखी नैतिक शिक्षा से बेहतर परिणाम देगा ?
(लेखक वरिष्ठ स्तम्भकार एवं सामाजिक चिंतक हैं। )