रिश्वत के रूप में लिया गया पैसा अवैध है, और इसे कोई भी उचित नहीं ठहरा सकता। यह एक कड़वा सच है कि तमाम प्रयासों के बावजूद भ्रष्टाचार को पूरी तरह रोका नहीं जा सका। जहां भ्रष्टाचार की खबर कानो-कान फैलती है, वहां अपराधी को संदेह का लाभ दिया जा सकता है, लेकिन जहां वसूली खुलेआम हो रही हो, उसे क्यों नहीं रोका गया? भ्रष्टाचार चाहे चुपके से हो या खुलेआम, देने और लेने वाले दोनों को इसकी सच्चाई पता होती है। यह एक ऐसी बीमारी है, जो समाज के नैतिक ताने-बाने को कमजोर करती है।
रेलवे के उदाहरण से इसे समझा जा सकता है। चलती ट्रेन में पैसे लेकर लंबी यात्रा कराने वाले कर्मचारी, रिजर्वेशन डिब्बों में सीट से अधिक यात्रियों को ठूंसने वाले, या सीट के बदले पैसे लेने वाले—क्या ये कर्मचारी वसूली गई राशि को रेलवे के खाते में जमा करते हैं? यह पैसा जाता कहां है? देश में शायद ही कोई ऐसा यात्री हो, जिसे इस लेन-देन की जानकारी न हो। फिर भी, यह व्यवस्था दशकों से चल रही है।
इसी तरह, शहर के प्रवेश द्वार पर ट्रकों को रोककर खड़े ट्रैफिक पुलिसकर्मी, जिनके लिए सारे कागजात दुरुस्त होने के बावजूद बिना पैसे लिए ट्रक को प्रवेश की अनुमति नहीं मिलती। यह सब खुलेआम होता है, फिर भी व्यवस्था की नजर इन पर क्यों नहीं पड़ती? ये लोग छुपे हुए नहीं हैं, फिर भी इनके खिलाफ कार्रवाई का अभाव समाज में एक गलत संदेश देता है।
सरकारी कर्मचारियों को हर महीने एक निश्चित वेतन मिलता है, लेकिन क्या वह उनके परिवार की जरूरतों को पूरा करने के लिए काफी है? यह सवाल गंभीर है। मैं यह नहीं कह रहा कि उनकी मदद नहीं करनी चाहिए। मानवता के नाते, जरूरतमंद को ट्रेन में सीट देना या एक बार ट्रक वाले को कागजात पूरे करने की सलाह देना गलत नहीं है। लेकिन जैसे ही इसके बदले पैसा लिया जाता है, यह मानवता की भावना भ्रष्टाचार में बदल जाती है।
यदि कोई ट्रक वाला नियम तोड़ता है, तो उसे सही रास्ते पर लाने की कोशिश होनी चाहिए, न कि उससे पैसे वसूलने की। व्यवस्था तभी बदलेगी, जब सामूहिक प्रयास होंगे। यह विडंबना है कि कुछ लोग खुद नियम तोड़ते हैं और दूसरों को नियमों का पालन करने की सलाह देते हैं। उदाहरण के लिए, एक वकील सड़क के बीच अवैध पार्किंग करता है, लेकिन दूसरों को कायदे से चलने की नसीहत देता है। यह दोहरा मापदंड समाज में अविश्वास पैदा करता है।
सरकार को, चाहे वह केंद्र की हो या राज्य की, अपने कर्मचारियों के वेतन पर पुनर्विचार करना चाहिए। आज कई कर्मचारियों का वेतन उनकी जरूरतों को पूरा नहीं करता। बिहार में थानेदार, अंचलाधिकारी, या प्रखंड विकास पदाधिकारी—क्या उनके वेतन से उनका घर चल पाता है? जितना बड़ा अधिकारी, उतनी बड़ी उसकी जरूरतें। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि भ्रष्टाचार को उचित ठहराया जाए।
भ्रष्टाचार का सामान्यीकरण समाज के लिए खतरनाक है। यदि बच्चे को पता है कि उसके पिता की रिश्वत की कमाई से उसकी स्कूल फीस भरी जा रही है, और उसे इसमें कुछ गलत नहीं लगता, तो यह एक गंभीर समस्या है। बच्चों में अपने माता-पिता के प्रति सम्मान कम होने का एक कारण यह भी हो सकता है। वे अपने माता-पिता के व्यवहार को गहराई से देखते हैं, और इसका उनके जीवन पर गहरा असर पड़ता है।
उदाहरण के लिए, एक सरकारी कर्मचारी जो अस्सी हजार रुपये महीने की तनख्वाह पाता है, लेकिन अपने बच्चे की बारह लाख रुपये सालाना की स्कूल फीस भरता है, क्या वह अपने बच्चे से सम्मान की अपेक्षा कर सकता है? ऐसा धन, जो अनैतिक तरीके से कमाया गया हो, बच्चों का भविष्य उज्ज्वल नहीं बना सकता। यदि कोई व्यक्ति धन को ही उज्ज्वल भविष्य का पर्याय मानता है, तो उसे अपनी सोच पर पुनर्विचार करना होगा।
सरकार को एक ‘सकारात्मक आयोग’ बनाना चाहिए, जो यह समझे कि कर्मचारियों की वास्तविक जरूरतें क्या हैं। क्या वेतन कम होने के कारण वे भ्रष्टाचार की ओर बढ़ रहे हैं, या यह कोई मनोवैज्ञानिक समस्या है? भ्रष्टाचार को केवल सजा से नहीं, बल्कि इसकी जड़ों को समझकर खत्म करना होगा। समाज को प्रेरित करने के लिए हमें ईमानदारी और पारदर्शिता की मिसाल कायम करनी होगी। केवल तभी हम एक नैतिक और मजबूत समाज का निर्माण कर पाएंगे।