हिन्दी में होने वाली परिचर्चाएं और व्यानमालाओं में शामिल होने की इच्छा इसलिए नहीं होती क्योंकि बड़े से बड़े नाम वाले आयोजनों में भी हिन्दी के वक्ता तैयारी करके नहीं आते। दूसरी बात, वहां नए नाम तलाशने मुश्किल होते हैं। वही, वही नाम बार बार दुहराएं जाते हैं, जिनके पास कहने के लिए अब कुछ नया नहीं बचा है।
कई बार चर्चा टीवी फॉरमैट पर होने की वजह से तू तू, मैं मैं की स्थिति आ जाती है। वक्ताओं की संख्या अधिक होती है। सत्र का समय कम होता है। अर्थात वक्ता के पास कहने के लिए बहुत कुछ है लेकिन संचालक के पास देने के लिए समय नहीं है। हाल में ही वरिष्ठ पत्रकार हर्षवर्धन त्रिपाठी के संचालन में चल रही चर्चा से इसलिए निराश हुआ क्योंकि वहां जिस तरह के वक्ता थे और जैसा विषय रखा गया था। उसके हिसाब से उनके सत्र को अन्य सत्रों से अधिक समय दिया जाना चाहिए था। आयोजकों को ऐसी परिचर्चाओं की योजना कुछ इस तरह से बनानी चाहिए, जिसमें विषय पर वक्ता की राय स्पष्ट हो सके। टीवी डिबेट की तरह बहस होगी तो रटी हुई बात सामने आएगी। यदि सामने बैठकर दिल से दिल की बात होगी तो दिल की बात सामने आएगी। इसके लिए वक्ताओं को पर्याप्त समय देना होगा।
स्वतंत्र पत्रकार अवधेश कुमारजी की पत्नी कंचनाजी की सितम्बर 2003 में एक सड़क दुर्घटना में मृत्यु हो गई थी। उनकी याद में वे दिल्ली में कंचना स्मृति व्याख्यानमाला करते थे। उस व्याख्यानमाला का इंतजार होता था। वहां आने वाला वक्ता पूरी तैयारी के साथा आता था। वहां श्रवण गर्गजी, राधा भट्टजी, शांति भूषणजी, नीरजा चौधरीजी को सुनने का अवसर मिला। कितनी तैयारी होती थी वक्ताओं की, वह इसलिए क्योंकि अवधेशजी बहुत परख कर एक एक वक्ता का चयन करते थे। आने से पहले वक्ताओं से लंबी बातचीत करते थे। व्याख्यानमाला के हर एक पक्ष पर उनकी चौकस नजर होती थी।
इस आयोजन में वे सिर्फ मंच पर नहीं होते थे बाकि हर तरफ अवधेशजी ही अवधेशजी होते थे। एक दिन यह व्याख्यानमाला अवधेशजी को स्वास्थ संबंधी वजह से बंद करनी पड़ी।
दिल्ली में गांधी शांति प्रतिष्ठान दो अक्टूबर को एक व्याख्यान कराता था। जो अब भी होता है। लेकिन प्रशांतजी के आने के बाद प्रतिष्ठान की दशा और दिशा दोनों बदल गई है। गांधी शांति प्रतिष्ठान में लगा गांधी, मोहन दास का गांधी ना होकर राहुलजी में लगा गांधी प्रतीत होने लगा है। अब यह सब प्रतिष्ठान के दैनिक गतिविधियों से भी समझ में आता है। अब इसके दो अक्टुबर के व्याख्यान में पहले वाली बात नहीं रही। ना ‘गांधी मार्ग’ को ही गांधी शांति प्रतिष्ठान बचा पाया। जैसे राजेन्द्र यादव के जाने के बाद एक ठेकेदार के हाथ में आकर ‘हंस’ खत्म हो गया, उसी तरह अनुपम मिश्र के जाने के बाद दूसरे ठेकेदार के हाथ में ‘गांधी मार्ग’ का सत्यानाश हुआ।
आज जब यह सब लिख रहा हूं, हिन्दी की कोई एक व्याख्यानमाला याद नहीं कर पा रहा जिसका पूरे साल इंतजार किया जा सकता हो। जो उल्लेखनीय हो।
पिछले दिनों साहित्य अकादमी के सभागार में वरिष्ठ कवि रामदरश मिश्र केन्द्रित एक आयोजन हुआ था। उनके जीवन के सौ साल पूरे होने पर। वहां जाना और श्री मिश्र को सुनना। एक अलग तरह का अनुभव था।
इन दिनों हिन्दवी नाम के यू ट्यूब चैनल पर हिन्दी के विद्वानों से साक्षात्कारों की एक श्रृंखला जारी है। सच यह भी है कि साक्षात्कार लेते हुए साक्षात्कारकर्ता का वैचारिक पूर्वाग्रह बार बार जाहिर होता है, बावजूद इसके वह पसंद इसलिए है क्योंकि साक्षात्कार के लिए यहां अंजुम पूरी तैयारी के साथ आते हैं।।