बेंत से पिटाई स्कूलों में अनुशासन के लिए जरूरी

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भारतीय स्कूल केवल अनादर करने वाले उपद्रवी पैदा कर रहे हैं, जिनकी ज्ञान की खोज में या अपने माता-पिता को गर्वित करने वाली सार्थक गतिविधियों में संलग्न होने में कोई रुचि नहीं है।

जब से शारीरिक दंड और बेंत मारने की प्रथा बंद हुई है, हम अनुशासन और मूल्यों के प्रति सम्मान में सामान्य गिरावट देख रहे हैं। “हमारे दिनों में, सेना से सेवानिवृत्त एक सख्त दिखने वाले प्रधानाध्यापक द्वारा सुबह की सभा के दौरान सार्वजनिक रूप से बेंत मारने के डर से गुंडे और बदमाश काबू में रहते थे। आजकल कोई भी शिक्षकों की परवाह नहीं करता। अनुशासन और अच्छे शिष्टाचार को कूड़ेदान में फेंक दिया गया है,” आगरा के सेंट पीटर कॉलेज के एक पूर्व छात्र ने कहा।

ग्रामीण क्षेत्रों में, सरकारी शिक्षकों ने सारी रुचि खो दी है, क्योंकि छात्र उनकी बात नहीं सुनते हैं। गांव के एक स्कूल के सेवानिवृत्त प्रधानाध्यापक के अनुसार, “अधिकांश छात्र मुफ्त की चीजों और मध्याह्न भोजन के लिए इधर-उधर भटकते रहते हैं। शिक्षक छात्र गिरोहों से डरते हैं।” सामाजिक कार्यकर्ता पद्मिनी अय्यर कहती हैं कि छात्रों का सामाजिक व्यवहार, जैसा कि उनकी गाली-गलौज वाली बातचीत, लड़कियों और महिला शिक्षकों के साथ बातचीत में झलकता है, चिंता का विषय है। फिरोजाबाद के एक सरकारी स्कूल की हाल ही में सेवानिवृत्त हुई शिक्षिका कहती हैं, “यह सब पश्चिमी प्रभाव है। हमारा समाज अलग है। हमें स्कूलों में सेना जैसा अनुशासन चाहिए। हमें लड़कों के लिए जीवन कठिन बनाने की जरूरत है। प्राचीन ज्ञान को याद रखें, छड़ी को बख्शें, बच्चे को बिगाड़ें।”

वरिष्ठ शिक्षिका मीरा उन लाड़-प्यार करने वाले माता-पिता को दोषी ठहराती हैं, जो सख्त शिक्षकों के खिलाफ शिकायत करने पर प्रिंसिपल के दफ्तरों में भागते हैं।

एक अध्यापिका कहती हैं, “दंड के डर के बिना, छात्र इन दिनों बकवास रील या पोर्न देखने में बहुत समय बर्बाद करते हैं और कई ड्रग्स लेते हैं, गुटखा, तम्बाकू सेवन भी बढ़ा है।

वरिष्ठ शिक्षक हरि शर्मा कहते हैं, “शिक्षकों को उन्हें डांटने की भी स्वतंत्रता नहीं है।” सेंट पीटर के पूर्व प्रिंसिपल फादर जॉन फरेरा ने सजा के रचनात्मक और स्वस्थ रूप का सफलतापूर्वक प्रयोग किया। जो छात्र अपना होमवर्क पूरा नहीं करते थे या स्कूल से भाग जाते थे, उन्हें योग आसन, आलोम विलोम या कपाल भारती करने के लिए कहा जाता था।

स्कूलों में अनुशासनात्मक उपाय के रूप में बेंत मारने की अवधारणा लंबे समय से गरमागरम बहस का विषय रही है। इस तरह की सजा के समर्थकों का तर्क है कि यह छात्रों के बीच अनुशासन बनाए रखने और जिम्मेदार व्यवहार को बढ़ावा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। माना जाता है कि बेंत मारने के कई फायदे हैं जो इसे एक वांछनीय अनुशासनात्मक उपकरण बनाते हैं। सबसे पहले, यह एक शक्तिशाली निवारक के रूप में कार्य करता है, जो छात्रों को शारीरिक परिणामों का सामना करने के डर से दुर्व्यवहार करने से रोकता है। शारीरिक दंड की तत्काल प्रकृति छात्रों को उनके कार्यों के परिणामों को जल्दी से समझने में सक्षम बनाती है। बेंत मारने का एक प्रमुख लाभ छात्रों में अधिकार और नियमों के प्रति सम्मान पैदा करने में इसकी भूमिका है। बेंत मारने के माध्यम से अनुशासन लागू करके, शिक्षक कक्षा में व्यवस्था की भावना पैदा कर सकते हैं, जिससे सीखने के लिए अनुकूल माहौल बनता है। इसके अलावा, बेंत मारने का लगातार प्रयोग छात्र समुदाय में अनुशासनात्मक उपायों में एकरूपता सुनिश्चित करता है।

गाय अर्थव्यवस्था और जैविक खेती: भारत का भविष्य

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भारत में गाय अर्थव्यवस्था +(cow 🐄 economy) के महत्व को, विशेष रूप से ब्रज मंडल जैसे क्षेत्रों में, नकारा नहीं जा सकता। गौ माता केवल पशुधन नहीं हैं, बल्कि उन्हें पवित्र माना जाता है और वे क्षेत्र की पशुपालन अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। गायों की पूजा और सम्मान करने की पारंपरिक प्रथा आगरा और मथुरा जिलों की संस्कृति और परंपराओं में गहराई से निहित है, जहाँ गोपाष्टमी उत्सव में गायों को खिलाना और आशीर्वाद देना शामिल है।

उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ सरकार ने गाय के धन के महत्व को पहचाना है और ग्रामीण अर्थव्यवस्था को समर्थन देने के लिए विभिन्न योजनाओं को लागू किया है। गोबर की खाद का उत्पादन, हजारों गायों को आश्रय प्रदान करना और पहचान के लिए गायों को टैग करना जैसी पहल अर्थव्यवस्था के इस अभिन्न पहलू को संरक्षित करने के लिए सरकार की प्रतिबद्धता को उजागर करती हैं।

रमेश बाबा द्वारा संचालित बरसाना जैसी गौशालाएँ गाय की देखभाल के लिए केंद्र के रूप में काम करती हैं और स्थानीय अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण योगदान देती हैं। Pastoral economy के सपोर्टर्स गाय के गोबर की आर्थिक क्षमता पर जोर देते हैं और किसानों को अपनी आजीविका बढ़ाने के लिए गाय पालने की वकालत करते हैं। आगरा के दयालबाग क्षेत्र में भी कई बड़ी गौशालाएं हैं, आगरा नगर निगम ने भी इस दिवाली पर गोबर से बनी मूर्तियों और दीपकों की बिक्री को प्रोत्साहित किया।

इसके अलावा, गाय के गोबर की खाद और कम्पोस्ट के इस्तेमाल से जैविक खेती को बढ़ावा देने से न केवल पर्यावरण को लाभ होता है, बल्कि हानिकारक रासायनिक खादों पर निर्भरता भी कम होती है। पारंपरिक प्रथाओं को आधुनिक तकनीकों के साथ एकीकृत करके, ब्रज मंडल क्षेत्र अपनी सांस्कृतिक पहचान को संरक्षित करते हुए और टिकाऊ कृषि को बढ़ावा देते हुए विकास की चुनौतियों का समाधान कर सकता है।

भारत में गाय की अर्थव्यवस्था, जैसा कि ब्रज मंडल में उदाहरण दिया गया है, ग्रामीण विकास के लिए एक मॉडल के रूप में कार्य करती है जो मवेशियों, कृषि और सामुदायिक कल्याण के बीच सहजीवी संबंध पर जोर देती है। आगे बढ़ते हुए, गायों के कल्याण को प्राथमिकता देना और उनकी आर्थिक क्षमता का लाभ उठाना क्षेत्र के लिए अधिक टिकाऊ और समृद्ध भविष्य का मार्ग प्रशस्त कर सकता है।

शनिवार को पवित्र गोपाष्टमी पर्व पर, कई संगठनों ने गौशाला में गायों को चारा खिलाने और उनकी पूजा करने के लिए विशेष कार्यक्रम आयोजित किए।

कुछ साल पहले आगरा के पूर्व मंडलायुक्त प्रदीप भटनागर ने मथुरा जिले को गौक्षेत्र घोषित किया था, लेकिन कोई अनुवर्ती कार्रवाई नहीं की गई। गौ-अर्थव्यवस्था को अब ग्रामीण विकास के व्यावहारिक मॉडल के रूप में मान्यता मिल रही है और जिले में कई योजनाएं क्रियान्वित की जा रही हैं, जहां सौ से अधिक गौशालाएं हैं। संरक्षक संत रमेश बाबा द्वारा संचालित बरसाना की गौशाला 50,000 से अधिक गायों के साथ सबसे बड़ी है। राधा कुंड में, 65 वर्षीय जर्मन महिला पद्मश्री सुदेवी 1600 से अधिक घायल और बीमार गायों के साथ एक गौशाला चलाती हैं। सुदेवी चाहती हैं कि किसान कुछ गायें रखकर अपनी आय बढ़ाएँ। उन्होंने कहा, “सरकार को गायों का गोबर वापस खरीदना चाहिए ताकि किसानों के लिए गाय पालना आकर्षक हो सके।” ब्रज मंडल की चरवाही संस्कृति का गौपालन से गहरा संबंध है। आज मनाए जाने वाले गोपाष्टमी के त्योहार पर श्रीकृष्ण ने ग्वाला के रूप में पशु चराना शुरू किया था। पूरे ब्रज क्षेत्र में आज गायों की पूजा की जाती है और उन्हें भोजन दिया जाता है, ताकि कृषि अर्थव्यवस्था में उनके योगदान को मान्यता दी जा सके।

मथुरा और वृंदावन के जुड़वाँ पवित्र शहरों में मवेशियों के चरागाहों को मुक्त करने के लिए कदम उठाए गए हैं, और मवेशियों के लिए अधिक चरागाह विकसित करने के लिए यमुना नदी के किनारे अतिक्रमण को ध्वस्त किया गया है।

चूँकि रासायनिक उर्वरकों के अत्यधिक उपयोग से स्वास्थ्य संबंधी बहुत सी समस्याएँ पैदा हो रही थीं और खेतों की उर्वरता खत्म हो रही थी, इसलिए गोबर की खाद और कम्पोस्ट या वर्मीकम्पोस्ट का उपयोग जैविक खेती को बड़े पैमाने पर बढ़ावा देने में मदद कर सकता है।

ब्रज मंडल के संतों का कहना है कि ब्रज की पहचान जंगलों और गायों से है और दोनों ही खतरे में हैं। परंपरा को आधुनिक तकनीकों के साथ एकीकृत करना होगा और विकास की चुनौतियों का सामना करने के लिए नए उत्तर तलाशने होंगे।

जैविक खेती ही आगे बढ़ने का रास्ता है और इसे बनाए रखने के लिए हमें पशुधन की आवश्यकता है। ब्रज क्षेत्र में कई गौशालाएँ हैं और गायों की संख्या एक लाख से अधिक है। एकत्र किए गए गोबर से गोबर गैस को बढ़ावा मिल सकता है, मिट्टी को समृद्ध किया जा सकता है और रासायनिक उर्वरकों पर निर्भरता कम हो सकती है, वृंदावन के ग्रीन एक्टिविस्ट जगन नाथ पोद्दार बताते हैं.

ऋषियों की संतान हैं भारत की समस्त जनजातियाँ

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भारतीय वैदिक चिंतन और विज्ञान का अनुसंधान आपस में मेल खाते हैं यदि इन दोनों को आधार बनाकर विचार करें तो हम इस निष्कर्ष पर सरलता से पहुँच जायेंगे कि भारत में निवासरत समस्त जनजातियाँ ऋषियों की संतान हैं ।

सत्य के अन्वेषण केलिये यह आवश्यक है कि हमारा दृष्टिकोण व्यापक हो और हम किसी एक दिशा या धारणा से मुक्त होकर विचार करें। यह सिद्धांत जीवन के प्रत्येक आयाम पर लागू होता है । आज हमें भले वन में निवासरत सभी जनजातीय बंधु और नगरों में विलासिता का जीवन जीने वाले समाज पृथक लग सकते हैं किन्तु यदि अतीत की विकास यात्रा का अध्ययन करें तो यह जानकर हमें आश्चर्य होगा कि दोनों जीवन एक रूप हैं। और सभी ऋषियों की संतान हैं। ऐसा नहीं है कि नगरों में जीवन का अंकुरण अलग हुआ और वनों में अलग । नगर या ग्राम तो जीवन यात्रा का विकसित स्वरूप हैं। जो समय के साथ विकसित हुये । जीवन का अंकुरण तो वनों में ही हुआ । और वनों में ही मनुष्य जीवन विकास प्रक्रिया आरंभ हुई । आज हम समाज को नगरवासी, ग्रामवासी और वनवासी तीन शब्दों से परिभाषित करते हैं । पर वैदिक अवधारणा ऐसी नहीं है । वैदिक वाड्मय में जनजाति ही सबसे प्रारंभिक शब्द है । वनवासी ग्रामवासी और नगरवासी शब्द तो बाद में आये । ऋग्वेद में समस्त मनुष्य जाति के लिये जनजाति शब्द ही उपयोग हुआ है । ऋग्वेद में “जन” शब्द 127 बार आया है । जनपद, महाजनपद, जन संख्या और शासक के लिये राजन् शब्द का उपयोग हुआ है । आज की जनतांत्रिक प्रणाली में जनप्रतिनिधि जैसे शब्द भी “जन” से ही बने हैं। जो समस्त मनुष्य जाति के लिये उपयोग होते हैं। जब हम “जनसंख्या” “जन भावना” या “जन प्रतिनिधि” जैसे शब्द उपयोग करते हैं तब इसका आशय किसी क्षेत्र, वर्ग या धर्म के अनुयायियों अथवा किसी संस्कृति विशेष के मनुष्यों के लिये उपयोग नहीं होता । यह समस्त मनुष्यों के प्रति संकेत करता है । भारतीय चिंतन में यह स्पष्ट है कि समस्त मनुष्य जाति ऋषियों की संतान हैं। उसमें यह वर्गीकरण है ही नहीं है कि कुछ लोग ऋषि संतान हैं और कुछ नहीं । ऋग्वेद के पुरुष सूक्त लेकर पुराणों क व्याख्या तक इस तथ्य को बारम्बार दोहराया गया है कि सभी मनुष्य सप्त ऋषियों की संतान हैं। जनजातियों में भी गोत्र और उपनाम परंपरा है जो पूरी तरह ऋषियों के नाम से मेल खाती है ।

सृष्टि विकास और ऋषि परंपरा का आरंभ

भारतीय अवधारणा के अनुसार सृष्टि विकास क्रम में सबसे पहले स्वर उत्पन्न हुआ । स्वर से पाँच तत्व उत्पन्न हुये । इनसे अग्नि, जल, धरती, आकाश और पवन बने। समय के साथ करोड़ो वर्षों में धरती पर वन और पर्वत उत्पन्न हुये । विज्ञान ने भी माना है कि पहले धरती फिर वन पर्वत अस्तित्व में आये फिर जीवन का अंकुरण हुआ । विज्ञान के निष्कर्ष में अभी धरती पर वन, पर्वत और मनुष्य की उत्पति के समय का अंतिम निर्धारण होना है फिर भी अभी यह सर्व मान्य है कि धरती पर वन और पर्वतों की उत्पत्ति प्राणियों की उत्पति से पहले हुई । कमसेकम साढ़े तीन करोड़ वर्ष पहले वन और पर्वत अस्तित्व में गये थे और इसके लगभग डेढ करोड़ वर्ष बाद मनुष्य जीवन अस्तित्व में आया । इस प्रकार मनुष्य जीवन की उत्पत्ति लगभग दो करोड़ वर्ष पहले हुई । इसी बात को भारतीय मनीषियों ने कुछ इस प्रकार कहा कि करोड़ो वर्षों तक धरती के रिक्त रहने के बाद ब्रह्मा जी ने मनुष्य जीवन के विकास का विचार किया और प्रचेताओं को उत्पन्न किया । इन प्रचेताओं को मनुष्य जीवन के विकास वृद्धि का निर्देश दिया । किन्तु प्रचेता तपस्या में ही लीन हो गये । उनके तपस्या में लीन हो जाने के कारण मनुष्य जीवन का विकास क्रम आगे बढ़ा ही नहीं। तब पृथ्वी के आग्रह पर ब्रह्मा जी ने सात ऋषियों और सात कन्याओं को उत्पन्न किया और मनुष्य जीवन की वृद्धि का निर्देश दिया । प्रथम मन्वंतर में जो सप्त ऋषि हुये उनमें कश्यप, अत्रि, अंगिरा, पुलस्त्य, पुलह, भृगु और वशिष्ठ हैं। भारतीय समाज में गौत्र परंपरा इन्ही सप्त ऋषियों से आरंभ हुई। और इन्हीं सप्तऋषियों वंशजों से 127 गोत्र प्रवर्तक ऋषि हुये ।

जनजातियों में ऋषि नामों की गोत्र परंपरा

भारत में एक गोत्र परंपरा है जो सभी वर्णों में मिलती है । गोत्र का जन्म जाति या क्षेत्र से कोई अंतर नहीं आता । गोत्र प्रवर्तक ऋषि कुल 127 माने गये हैं। इन सभी ऋषियों के नाम वेद रचना में मिलते हैं। हम कुछ प्रमुख गोत्र देखें। कश्यप एक गोत्र प्रवर्तक ऋषि हैं। कश्यप गोत्र ब्राह्मण में भी है और सेवा शिल्प वर्ग में भी । जनजातियों में भी “कश्यप” गोत्र होता है । छत्तीसगढ़ में बलिराम कश्यप जनजाति वर्ग से प्रमुख नेता हुये हैं । एक गोत्र प्रवर्तक ऋषि मंडूक हैं। जनजातियों में मुंडा वर्ग होता है । एक बड़े क्राँतिकारी हुये हैं बिरसा मुंडा। एक गोत्र प्रवर्तक ऋषि उर्व हैं जनजातियों में उरांव होते हैं। एक ऋषि मुरु हुये। जनजातियों में मारू और मुरिया होते हैं। ऋषि भृगु हुये हैं। भृगु वंशी ब्राह्मणों में एक शाखा भगौरिया होती है । जो भृगु आचार्य का अपभ्रंश है, जनजातियों में भी भगौरिया होते हैं । ब्राह्मणों में गौड़ वर्ग होता है । जनजातियों में भी गौड़ होता है । लेकिन योजना पूर्वक “ड़” के स्थान पर “ड” किया और ऊपर विन्दी लगाकर गोंड कर दिया । यूँ भी अंग्रेजी में गौड़ नहीं लिखा जा सकता उसे या तो डी से लिखते हैं या आर से । इसीलिए भारत के विभिन्न क्षेत्र में कहीं गौर भी मिलते हैं और गौंड भी । एक ऋषि “भिल्ल” हुये हैं ये सूर्य के उपासक थे इसलिए सूर्य का एक नाम “भिल्लस्वामिन” है । भील शब्द इसी से बना। मध्यप्रदेश में एक प्राचीन नगर भेलसा रहा है । यह वैदिक कालीन नगर है । आजकल इसका नाम विदिशा है यहाँ दूर दूर तक भील जनजाति समाज नहीं है । यहाँ कभी सुप्रसिद्ध सूर्य मंदिर रहा है । उस मंदिर के कारण इसका नाम “भिल्लस्वामिन” था, जो समय के साथ पहले भिल्लसा हुआ और बाद में भेलसा । इसी प्रकार मुद्गल, बुधायन, वकुल आदि ऋषियों के नामों का अपभ्रंश भी जनजातीय समाज के उपवर्ग में मिलते हैं। सभी ऋषिगण वन में रहते थे और उनका पूरा जीवन प्रकृतिस्थ होता था । जनजातियों का जीवन भी एकदम ऋषि शैली के अनुरूप एकदम प्रकृति के अनुकूल ही है ।

भारत में सृष्टि के आरंभ का स्थल ब्रह्मवृत माना जाता है । यह भूमि और वनक्षेत्र नर्मदा नदी, अरावली पर्वत और विन्ध्याचल के मध्य रहा है । तब हिमालय नहीं था । इससे लगा हुआ भूभाग आर्यावर्त था । एक निश्चित आदर्श पर जीवन जीने वाले नागरिक आर्य कहलाते थे । जीवन के ये आदर्श सिद्धांत ऋषियों ने विकसित किये थे । जनजातीय जीवन भी आर्य परंपरा के आदर्श के अनुरूप होता है किंतु भारतीय समाज को बाँटने के लिये आर्यों को हमलावर प्रचारित कर दिया। जबकि ऋग्वेद में संकल्प है कि विश्व को आर्य बनाना है । वेद यदि विश्व को आर्य बनाने की बात करता है तो पूरे संसार में आदर्श जीवन स्थापित करने का संकल्प है । न कि किसी क्षेत्र धर्म पंत या जाति के उत्थान की बात ।

इसकी पुष्टि भारतीय आश्रम व्यवस्था से भी होती है । यदि सौ वर्ष की औसत आयु है तो व्यक्ति को लगभग सत्तर वर्ष वन में ही जीवन जीना होता था । पाँच वर्ष की आयु में पढ़ने जाना, पच्चीस वर्ष की आयु में लौटना, गृहस्थाश्रम के बाद फिर वानप्रस्थ और सन्यास वन में। तब कैसे वन में निवासरत जनजातीय समाज अलग हो सकता है । हम वो नहीं हैं कि मनुष्य का पूर्वज बंदर था । हमारी अवधारणा है कि मनुष्य के पूर्वज सप्तऋषि हैं । सप्तऋषि वन में ही जन्में और वन में ही रहते थे । जनजातीय समाज वन में जन्मा है प्रकृति के अनुरूप जीवन जीते हैं यह शैली ऋषियों की ही है । इसलिए सभी जनजातीय समाज के पूर्वज ऋषि ही हैं।

यूँ भी वनों में विकसित होकर ही मनुष्य ने ग्रामों का विकास किया और ग्रामों को विकसित कर नगर बसाये । आज किसी भी नगरवासी से पूछ लीजिये। उसका मूल किसी न किसी ग्राम से मिलता है । चार सौ वर्ष पहले तक भारतीय ग्रामों में रहने वाले प्रत्येक ग्रामवासी को पता था कि उसका संबंध किस वन से और किस ऋषि से है ।

कुल मिलाकर भारत में रहने वाले प्रत्येक जन के पूर्वज ऋषि हैं भले वह नगर में रहता हो, ग्राम में रहता हो अथवा वन में। इस नाते भारत की प्रत्येक जनजाति के पूर्वज भी ऋषि रहे हैं।

जम्मू कश्मीर में फिर 370 का राग

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सुरेश हिंदुस्तानी

जम्मू कश्मीर में विधानसभा चुनाव के परिणाम के बाद नई प्रदेश सरकार ने फिर से पुराने एजेंडे पर काम करना प्रारम्भ कर दिया है। इससे निश्चित ही यह संकेत मिलता है कि जिस धारा 370 और 35ए के कारण कश्मीर को शेष भारत से अलग दिखने जैसी स्थिति दिखती थी, वैसी ही स्थिति पैदा करने का प्रयास नई सरकार यानी कांग्रेस और नेशनल कॉन्फ्रेंस द्वारा किया जा रहा है। राज्य की नई सरकार का यह कदम पाकिस्तान के हौसले बढ़ाने वाला ही लगता है, क्योंकि पाकिस्तान धारा 370 के कारण ही कश्मीर को अपना बताने का कुचक्र रचता रहा है। धारा 370 के बहाने राज्य को मिले विशेष अधिकारों के चलते ही पाकिस्तान ने अपना नेटवर्क स्थापित किया था, जिसके कारण वहां के नागरिक भारतीय सेना के प्रति अलगाव का व्यवहार करते दिखाई दिए। उस समय पाकिस्तान परस्त आतंकी कश्मीर में युवाओं को भ्रमित करते रहते थे। अब उमर अब्दुल्ला के नेतृत्व वाली सरकार ने जम्मू कश्मीर में फिर से अलगाव के बीज रोपित करने का काम किया है। जिसमें कांग्रेस की भी भागीदारी है। हालांकि कांग्रेस सरकार में शामिल नहीं है, बाहर से समर्थन दे रही है। जम्मू कश्मीर में जब धारा 370 कायम थी, तब राज्य ने क्या खोया था, यह पूरा देश जानता है। घाटी में पाकिस्तान द्वारा प्रायोजित आतंकी घटनाएं होती रहती थी। वर्तमान केंद्र सरकार ने धारा 370 हटाकर कश्मीर को शेष भारत से समरस करने का काम किया है। इसीलिए आज जम्मू कश्मीर आतंकी गतिविधियों पर लगाम लगा पाने में बहुत हद तक सफल हुआ है।

वर्तमान में पूरे देश में समान नागरिक संहिता को लागू करने के स्वर मुखरित होने लगे हैं। समान नागरिक क़ानून निश्चित ही सभी नागरिकों को समान अधिकार देने का हिमायती है, लेकिन दूसरी ओर जम्मू कश्मीर में अलग संविधान को मान्यता देने वाली धारा 370 को लाने का प्रयत्न किया जा रहा है। यह धारा जम्मू कश्मीर को अलग पहचान देने का काम करती है। इसके चलते कश्मीर का संविधान और ध्वज अलग हो जाएगा, जो भारत के संविधान और तिरंगा से अलग होगा। यह स्थिति डॉ. भीमराव अम्बेडकर के संविधान से अलग प्रकार की होगी। ऐसे में कांग्रेस नेता राहुल गांधी का वह बयान स्वतः ही ख़ारिज हो जाता है, जिसमें वह कहते हैं कि भाजपा संविधान फाड़कर फेंकना चाहती है। इसका एक आशय यह भी प्रादुर्भित होता है कि कांग्रेस संविधान को बचाना चाहती है, लेकिन कांग्रेस कौन से संविधान को बचाना चाहती है, यह और स्पष्ट करना चाहिए, क्योंकि बाबा साहब अम्बेडकर कभी भी जम्मू कश्मीर को अलग दरजा देने के पक्ष में नहीं थे। उन्होंने संविधान में इसको जोड़ने से इंकार कर दिया था। अम्बेडकर जी के मना करने के बाद शेख अब्दुल्ला, प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के पास पहुंचे, जिन्होंने बाबा साहेब अम्बेडकर की भावना को दफ़न करते हुए शेख अब्दुल्ला को प्रसन्न करते हुए धारा 370 का समावेश संविधान में करा दिया। आज कांग्रेस भले ही इस बात का दम्भ भरे कि वह संविधान को बचाना चाहती है, लेकिन कांग्रेस के कार्य ऐसे लगते नहीं हैं। उल्लेखनीय है कि कांग्रेस की सरकार ने ही आपातकाल लगाकर भारत के नागरिकों के सारे अधिकार छीन लिए थे, जो बहुत बड़ा संविधान विरोधी कदम था। क्योंकि उस समय आपातकाल लगाने जैसी स्थिति नहीं थी। यह सारा खेल अपनी कुर्सी को बचाने के लिए किया गया था। आपातकाल संविधान की हत्या करने जैसा ही था।

पांच वर्ष पूर्व केंद्र की नरेन्द्र मोदी सरकार ने अपने वादे के मुताबिक जम्मू कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा प्रदान करने वाली धारा 370 और 35ए को विलोपित कर दिया। उल्लेखनीय है कि भाजपा का यह कदम किसी भी प्रकार से किसी के विरोध में इसलिए नहीं कहा जा सकता, क्योंकि भाजपा के हर घोषणा पत्र में इस धारा को हटाने की बात की। इन्हीं वादों को पूरा करने के लिए भाजपा को समर्थन मिला। ज़ब जनता ने भाजपा के वादों को पूरा करने के लिए समर्थन दिया, तब स्वाभाविक रूप से यही कहा जा सकता है कि भाजपा ने वही काम किया, जो जनता चाहती थी। अब जम्मू कश्मीर में भारत का संविधान चलता है, राज्य का अपना कोई संविधान नहीं है। इतना ही नहीं जम्मू कश्मीर अब केंद्र शासित प्रदेश है। इसलिए उसके संवैधानिक अधिकार सीमित हैं। इसलिए जम्मू कश्मीर की सरकार संविधान में बदलाव करने का कोई संवैधानिक हक नहीं रखती। यह केंद्र सरकार का काम है। राज्य कोई विधेयक पारित तो कर सकता है, लेकिन वह विधेयक तब तक लागू नहीं हो सकता, ज़ब तक केंद्र की सरकार न चाहे। इसलिए यह कहा जा सकता है कि राज्य की नवगठित सरकार का यह कदम केवल राजनीतिक लाभ के लिए है।

देश में कई विपक्षी राजनीतिक दलों ने एक साथ आकर इंडी गठबंधन बनाया है। यह गठबंधन बार बार संविधान बचाने की बात करता रहता है, लेकिन सवाल यह है कि जम्मू कश्मीर में धारा 370 को बहाल करने वाले विधेयक पर कोई भी बोलने को तैयार नहीं है। इसे मौन समर्थन भी माना जा सकता है। कांग्रेस और नेशनल कॉन्फ्रेंस की ऐसी कौन सी राजनीतिक मजबूरी है जो धारा 370 और 35ए की बहाली के लिए उनको मजबूर कर रही है। क्या इन दलों को यह पता नहीं है कि इन्हीं कानूनों के कारण ही कश्मीर हिन्दू विहीन हो गया है। क्या यह दल फिर से कश्मीर घाटी को उसी स्थिति में ले जाना चाहते हैं।

देश में एक समान क़ानून होना चाहिए, यह सभी चाहते हैं। लेकिन जम्मू कश्मीर में इसका प्रयोग नहीं किया जा रहा है। जम्मू कश्मीर में अगर धारा 370 बहाल हो जाती है तो निश्चित ही पाकिस्तान परस्त मानसिकता फिर से हाबी हो सकती है और जम्मू कश्मीर फिर से अलगाव की स्थिति में आ सकता है। ऐसी स्थिति न बने, इसलिए कश्मीर में भी देश का संविधान ही लागू रहे, यह समय की मांग है और यह कदम जम्मू कश्मीर के हित का भी है।

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