ए.पी. भवन में आंध्र प्रदेश हैंडलूम और हस्तशिल्प प्रदर्शनी का उद्घाटन

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नई दिल्ली, – आज राजधानी के केंद्र में स्थित ए.पी. भवन में आंध्र प्रदेश हैंडलूम और हस्तशिल्प प्रदर्शनी का भव्य उद्घाटन हुआ। इस कार्यक्रम का उद्घाटन लव अग्रवाल, रेजिडेंट कमिश्नर, आंध्र भवन ने किया, जिसमें आंध्र प्रदेश की उत्कृष्ट शिल्पकला और कला की समृद्ध विरासत का जश्न मनाया गया।

2 नवंबर तक चलने वाली यह जीवंत प्रदर्शनी आंध्र प्रदेश की पारंपरिक हस्तकला और हैंडलूम का विविध संग्रह प्रस्तुत करती है। यहां आगंतुक बारीकी से बुनी गई साड़ियां, पारंपरिक बुनाई और सुंदर हस्तशिल्प देख सकते हैं, जो आंध्र प्रदेश की समृद्ध संस्कृति और धरोहर को प्रदर्शित करते हैं।

अपने उद्घाटन संबोधन में श्री अग्रवाल ने इन कालातीत कलाओं के संरक्षण के महत्व पर जोर दिया और स्थानीय कारीगरों के योगदान की सराहना की। उन्होंने कहा, “यह प्रदर्शनी न केवल आंध्र प्रदेश की उत्कृष्ट हैंडलूम कलाओं को दिल्ली लेकर आई है बल्कि उन कारीगरों का समर्थन भी करती है जो हमारी सांस्कृतिक विरासत को आगे बढ़ाते हैं। यह राजधानी के लोगों के लिए हस्तनिर्मित कलाओं की सुंदरता और मूल्य से जुड़ने का अवसर है।”

ए.पी. भवन में आयोजित आंध्र प्रदेश हैंडलूम और हस्तशिल्प प्रदर्शनी कला और संस्कृति प्रेमियों, फैशन के शौकीनों और पारंपरिक शिल्प का समर्थन करने में रुचि रखने वालों के लिए एक अनूठा अनुभव है। यह प्रदर्शनी राजधानी में आंध्र प्रदेश की शिल्पकारी उत्कृष्टता का एक गहरा अनुभव प्रदान करती है।

कार्यक्रम विवरण:
– स्थान: ए.पी. भवन, नई दिल्ली
– तिथि: 2 नवंबर तक
– प्रवेश: सभी के लिए खुला

आंध्र प्रदेश की विरासत की सुंदरता की खोज करें और कौशल, जुनून और सांस्कृतिक गर्व की कहानी बताने वाली एक अद्वितीय कलाकृति अपने साथ ले जाएँ।

तेरह वर्ष की आयु से चला गिरफ्तारी और रिहाई का सिलसिला

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सुप्रसिद्ध क्राँतिकारी और साहित्यकार मन्मन्थनाथ गुप्त ऐसे स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे जिनकी गिरफ्तारियाँ तीनों कार्यों में हुई । क्राँति के प्रचार में, क्राँतिकारियों के साथ सहभागिता में और साहित्य रचना में भी । उनकी पहली गिरफ्तारी तेरह वर्ष की आयु में हुई थी और जब सत्रह वर्ष के हुये तो काॅकोरी काँड में सहभागी बने । 

ऐसे सुप्रसिद्ध क्रांतिकारी और साहित्यकार मन्मथनाथ जी गुप्त का जन्म 7 फरवरी 1908 को वाराणसी में हुआ था। परिवार मूलतः बंगाल के हुगली जिले का रहने वाला था । पितामह अयोध्या प्रसाद जी गुप्त का विवाह बनारस में हुआ और वे बनारस में रहने आ गये । यहीं इस परिवार का विस्तार हुआ ।मन्मन्थनाथ जी के पिता वीरेश्वर गुप्त का जन्म भी बनारस में हुआ लेकिन वे नेपाल के विराटनगर में शिक्षक हो गये । मन्मन्थनाथ जी की आरंभिक शिक्षा विराटनगर में ही हुई किन्तु बाद में किसी कारण से पिता नौकरी छोड़कर बनारस आ गये । मन्मथनाथ जी की आगे की शिक्षा वाराणसी में हुई ।

वाराणसी उन दिनों साँस्कृतिक पुनर्जागरण और स्वतंत्रता संघर्ष का एक बड़ा वैचारिक केन्द्र था । यहाँ क्राँतिकारी, अहिसंक आँदोलन, साहित्यिक, साँस्कृतिक और सामाजिक सभी प्रकार की सक्रियता थीं। इन सभी बातों का प्रभाव वनारस के पूरे सामाजिक जीवन पर पड़ा । इससे यह गुप्त परिवार भी अछूता न रह सका । मनमन्थनाथ जी के पिता वीरेश्वर जी सुप्रसिद्ध विचारक और स्वतंत्रता संग्राम सेनानी पंडित मदनमोहन मालवीय से जुड़े थे । जब मन्मन्थनाथ जी केवल तेरह वर्ष के थे तब 1921 में ब्रिटेन के युवराज के कार्यक्रम का बहिष्कार करने का परचा बांटते हुए गिरफ्तार कर लिए गए । वे छोटी आयु के थे फिर भी रियायत न मिली और तीन महीने की सजा हुई । जेल से छूटने पर उन्होंने काशी विद्यापीठ में प्रवेश लिया और विशारद परीक्षा उत्तीर्ण की। यह चर्चा चारों ओर फैली कि एक तेरह वर्षीय किशोर बंदी बनाया गया अतएव जब वे विशारद की परीक्षा दे रहे थे तब उनसे क्रांतिकारियों ने संपर्क किया और मन्मन्थनाथ जी हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन से जुड़ गये । जब वे केवल सत्रह वर्ष के थे तब 1925 में काकोरी कांड में सहभागी बने । काॅकोरी में ट्रेन रोककर ब्रिटिश सरकार का खजाना लूटने केलिये बनी दस लोगों की टोली में वे भी सम्मिलित थे। गिरफ्तार हुए, मुकदमा चला । काॅकोरी काँड में चार लोगों को फाँसी हुई थी लेकिन आयु कम होने कारण मन्मन्थनाथ जी को चौदह वर्ष का कारावास मिला । उन्होंने अपना पूरा जेल जीवन अध्ययन में लगाया । न केवल विभिन्न भारतीय भाषाएँ सीखीं अपितु भारतीय इतिहास का अध्ययन किया और विशेषकर वे विन्दु की किन गल्तियों के कारण भारत दासानुदास बना । मन्मन्थनाथ 1937 में रिहा हुये तो लेखन कार्य में लग गये । उनके लेखन का प्रमुख विषय जन जागरण ही होता । विदेशी शासकों के अत्याचार और उससे सामना करने के लिए साहस और संगठन का आव्हान होता था । अपने क्रान्तिकारी लेखन के चलते वे पुनः 1939 गिरफ्तार हुये जेल में डाल दिये गये । गिरफ्तारी और जेल की प्रताड़नाओं ने उन्हें और दृढ़ बनाया । उनका लेखन न रुका और उनकी गिरफ्तारियों और रिहाई का यह सिलसिला 1946 तक चला । यह तब ही रुका जब भारत के स्वतंत्र होने का निर्णय हो चुका था और स्वतंत्रता के लिये शर्तें तय की जाने लगीं। 

अंग्रेजों द्वारा जब्त किया गया उनका साहित्य स्वतंत्रता के बाद ही मुक्त हो सका । उनकी प्रमुख रचनाओं में “भारतीय क्रांतिकारी आंदोलन का इतिहास,’ ‘क्रान्तियुग के अनुभव’

‘चंद्रशेखर आज़ाद’,’विजय यात्रा’ ‘यतींद्रनाथ दास’, ‘कांग्रेस के सौ वर्ष,’कथाकार प्रेमचंद’ ‘प्रगतिवाद की रूपरेखा’आदि प्रमुख ग्रंथ थे । उन्होंने हिन्दी, अंग्रेजी और बंगला भाषा में साहित्य रचना की और उनके साहित्य में विधाओं की भी विविधता है। उनके प्रकाशित ग्रन्थों की संख्या 80 के आसपास है। स्वतंत्रता के बाद न केवल नये साहित्य की रचना की अपितु स्वतंत्रता के पूर्व लिखे गये ग्रंथों के संशोधित संस्करण भी निकाले जिसमें भारतीय  क्राँतिकारी आँदोलन का इतिहास भी है । ऐतिहासिक और क्राँतिकारी लेखन के साथ उनकी रुचि वैज्ञानिक लेखन में थी । विशेषकर कथा साहित्य में मनोविश्लेषण बहुत स्पष्ट झलकता है । सिद्धांतों का आधार ग्रहण किया गया है। काम से संबंधित आपकी कई कृतियाँ भी हैं, जिनमें से ‘सेक्स का प्रभाव’ विशेष रूप से उल्लेखनीय है। 

 स्वतन्त्रता के बाद वे भारत सरकार के प्रकाशन विभाग से भी जुड़े और योजना, बाल भारती और आजकल जैसी हिन्दी पत्रिकाओं के सम्पादक भी रहे। जीवन के अंतिम समय वे दिल्ली आ गये थे । नई दिल्ली के निजामुद्दीन ईस्ट में उन्होंने अपना निवास बनाया । यहीं पर 26  अक्टूबर 2000 को उन्होंने देह त्यागी । तब वे 92 वर्ष की आयु के थे । उस वर्ष वह  दीपावली का दिन था । मानों उनके जीवन का दीप, परम् ज्योति में विलीन हो गया ।

कश्मीर के अलगाववादियों से सबसे पहले टक्कर ली : जनसंघ के अध्यक्ष भी रहे

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भारत के असंख्य स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों का व्यक्तित्व केवल राजनैतिक कारणों से कहीं खो गया । इन्हीं में एक हैं पंडित प्रेमनाथ डोगरा जिनका पूरा जीवन राष्ट्र और संस्कृति केलिये समर्पित रहा । वे भारतीय जनसंघ के राष्ट्रीय अध्यक्ष भी रहे ।
कश्मीर रियासत काल में अपना प्रशासनिक पद छोड़कर समाज और राष्ट्र की सेवा में आये पंडित प्रेम नाथ डोगरा का जन्म 24 अक्टूबर 1884 को जम्मू क्षेत्र के इस्माइल पुर गाँव में हुआ था । उनके पिता पंडित अनंत राम डोगरा कश्मीर रियासत में दीवान थे ।
वे अपने पिता की इकलौती संतान थे । माता का निधन बचपन में ही हो गया था । उनका लालन-पालन दादी ने किया । उनकी प्रारंभिक शिक्षा लाहौर में हुई । 1904 में मैट्रिक उन्होंने परीक्षा उत्तीर्ण की । वे पढ़ाई के साथ-साथ खेलकूद में सक्रिय थे। छात्र जीवन में अच्छे अंकों से परीक्षा उत्तीर्ण करने और खेलों में उत्कृष्ट प्रदर्शन के लिये उन्हें अनेक बार पुरुस्कार और प्रशंसा पत्र मिले । मैट्रिक परिक्षा उत्तीर्ण करने के बाद उन्होंने लाहौर के फॉर्मैन क्रिश्चियन कॉलेज में प्रवेश लिया लिया और 1908 में स्नातक परीक्षा उत्तीर्ण की और 1909 में तहसीलदार के रूप में उनकी पहली नियुक्ति कश्मीर के अखनूर क्षेत्र में हुई । उत्कृष्ट और समर्पित कार्य के चलते एक ही वर्ष में उनकी पदोन्नति हुई और सहायक बंदोबस्त अधिकारी के रूप में उनकी पदस्थापना ऊधमपुर में हुई और 1912 में उन्हें जम्मू भेज दिया गया। दो वर्ष बाद वे राज्यपाल के सचिव नियुक्त हुये । 1914 में व युवराज हरि सिंह के निजी सचिव बने । पंडित प्रेमनाथ जी युवराज हरि सिंह के निजी सहायक ही नहीं उनके व्यक्तिगत मित्र भी थे । पंडित प्रेमनाथ जी बहुत मृदुल स्वभाव के थे । लगभग यही स्वभाव युवराज हरि सिंह का भी था । इसलिये दोनों में निकटता रही । जम्मू प्रांत के अंतर्गत भद्रवाह और किश्तवाड़ तब ऐसे स्थान थे जो प्राकृतिक सौन्दर्य की दृष्टि से तो बहुत आकर्षक थे किंतु स्थानीय निवासी रोगों और नशे के आदि थे । उनकी अकर्मण्यता से भुखमरी जैसी स्थिति बनी । पंडित प्रेमनाथ जी के सुझाव पर हरिसिंह जी ने इन समस्याओं के निराकरण को प्राथमिकता दी तथा अंग्रेज सरकार से सहयोग भी लिया । इन समस्याओं के निवारण के लिये उन्होंने अपने स्वास्थ्य की परवाह न करके इन क्षेत्रों की अनेक यात्राएँ कीं । जिससे समस्या का निराकरण हुआ और इससे उनकी तथा कश्मीर राज्य दोनों की लोकप्रियता बढ़ी । प्रेमनाथ जी का मानना था कि यदि युवा पीढ़ी शिक्षा से जुड़ेगी तो व्यसनों से दूर रहेगी । इसकेलिये उन्होंने इस क्षेत्र के युवाओं को शिक्षा केलिए वित्तीय सहायता और छात्रवृत्ति देने की योजना बनाई और शासन ने स्वीकृति का आग्रह किया । जो स्वीकार कर लिया गया इससे बच्चोंके विकास का नया मार्ग बना ।
यह कश्मीर का एक पक्ष था । लेकिन कश्मीर का एक दूसरा पक्ष भी था । वह पक्ष था कट्टरपंथी अलगाववादियों का । कश्मीर राज्य की एक स्थिति विशेष थी वहाँ जनसंख्या का बहुमत मुसलमानों का था लेकिन शासक हिन्दु । कुछ कट्टरपंथी इसे मुद्दा बनाकर रियासत में अशान्ति और हिंसा फैला रहे थे । यह तनाव मुस्लिम लीग की सक्रियता के साथ और बढ़ा। कट्टरपंथी युवा पीढ़ी को उत्तेजक बनाकर और संगठित कर रहे थे । इसमें एक चेहरा शेख अब्दुल्ला का था । शेख अब्दुल्ला के पूर्वज कश्मीरी पंडित थे । यदि शेख अब्दुल्ला अपने नये मत केलिये बहुत समर्पित और कट्टर थे फिर भी क्षेत्रीय हिन्दू समाज में उनके प्रति आत्मीय भाव था । कश्मीर के अलगाववादियों ने इस मनोविज्ञान को समझा और शेख अब्दुल्ला को ही आगे कर रखा था । पंडित प्रेमनाथ जी सहित उस समय के प्रबुद्ध पंडितों की मान्यता थी कि पूजा पद्धति बदल लेना से न पूर्वज बदलते हैं न राष्ट्रीयता। वे सबको साथ लेकर चलना चाहते थे । इसके लिये कश्मीर राज्य में  एक संस्था “प्रजा परिषद” का गठन किया ।  इसमें पंडित प्रेमनाथ जी की भूमिका महत्वपूर्ण थी । इस संस्था के दो कार्य थे एक तो अंग्रेजों से भारत की मुक्ति का अभियान और दूसरा कश्मीर में सब अपने पूर्वजों की विरासत के अनुरूप मिलजुलकर रहें। प्रेमनाथ जी के आव्हान पर कश्मीर मेंजाग्रति अभियान चला । समय के साथ युवराज हरि सिंह ने सत्ता संभाली और महाराजा के रूप में कार्यभार संभाला । उन्होंने प्रेमनाथ जी को सेटलमेंट कमिश्नर के रूप में नियुक्त किया । 1931 में भारत में संवैधानिक सुधारों के लिए भारतीय राजनीतिक नेतृत्व के साथ ब्रिटिश सरकार ने गोलमेज सम्मेलन बुलाया जिसमें काँग्रेस सहित विभिन्न रियासतों के प्रतिनिधियों को भी आमंत्रित किया । जहाँ प्रेमनाथ जी की सलाह पर महाराजा ने रियासतों को ही नहीं पूरे भारत की स्वतंत्रता की बात रखी । यह बात अंग्रेजों को पसंद नहीं आई । “बाँटो और राज करो” अंग्रेजों की खुली नीति थी । इसके अंतर्गत अंग्रेजों ने मुस्लिम लीग की पीठ पर हाथ रखा हुआ था । मुस्लिम लीग पूरे भारत में सक्रिय थी । इससे देश भर में दंगे होनै लगे । कश्मीर में भी हिंसा और अराजकता का वातावरण बनने लगा । शेख अब्दुल्ला इस अलगाववाद और हिंसा की अगुवाई कर रहे थे । जगह जगह कटाटरपंथी मुस्लिम भीड़ अल्पसंख्यक हिंदुओं को निशाना बनाने लगी । हिंसा को नियंत्रित करने की कमान पंडित प्रेमनाथ के हाथ में थी । लेकिन हिंसा बढ़ रही थी । अंततः प्रेमनाथ जी ने पद से त्यागपत्र देकर समाज जागरण के कार्य में जुट गये ।
उन्होंने पूरे कश्मीर क्षेत्र की अनेक यात्राएँ की और नौजवानों धार्मिक मान्यताओं से ऊपर सांस्कृतिक गौरव और राष्ट्र भाव जगाने का प्रयत्न किया । इसी बीच वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संपर्क में आये और 1940 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखा सियालकोट के दीवान मंदिर में आरंभ हुई । समय के साथ संघ का प्रभाव बढ़ा और लोगो में जाग्रति आई और संघ का विस्तार हुआ । पंडित प्रेमनाथ जी क्षेत्रीय संघचालक बने ।
समय के साथ भारत के बँटवारे के साथ भारत स्वतंत्र हुआ । भारी रक्तपात के साथ लाखों पीड़ित शरणार्थी भारत पहुंचने लगा । इन असहाय लोगों की सहायता केलिये “राज्य राहत समिति” और “पंजाब राहत समिति” समितियाँ बनीं । हिन्सा और आतंक के इसी वातावरण के बीच पाकिस्तान ने कश्मीर पर आक्रमण कर दिया । भारत के ग्रहमंत्री श्री वल्लभभाई पटेल के आग्रह पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख गुरू गोलवलकर जी अक्टूबर माह में कश्मीर के महाराजा से मिलने गये । इस भेंट में सेतु के रूप में पंडित प्रेमनाथ जी की ही भूमिका महत्वपूर्ण रही ।
अंततः कश्मीर का भारत में विलय हुआ । जनवरी 1948 में गाँधी जी हत्या हुई और पंडित प्रेमनाथ जी नजरबंद कर दिया गया। उन्होनें शेख अब्दुल्ला के अलगाववाद के विरुद्ध आँदोलन चलाया और 1950 में फिर गिरफ्तार हुए थे। अंतिम गिरफ्तारी के समय केंद्रीय मंत्री गोपाला स्वामी आयंगार के हस्तक्षेप से रिहा हुए थे। पंडित प्रेमनाथ जी जम्मू प्रांत के सभी युवाओं के लिए प्रेरणा स्रोत बन गए। 15 जनवरी 1952 को छात्रों ने भारत राष्ट्र के राष्ट्रीय ध्वज को फहराने की माँग पर आँदोलन किया और गिरफ्तार हुये । उन्हें श्रीनगर जेल में रखा गया । समय के साथ जनसंघ से जुड़े और पंडित श्यामा प्रसाद मुखर्जी के आँदोलन में बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया । आंदोलन की समाप्ति के बाद पंडित जी पार्टी को मजबूत करने में लगे रहे । समय के साथ विधायक बने भारतीय जनसंघ के राष्ट्रीय अध्यक्ष भी रहे । जनसंघ के राष्ट्रीय अध्यक्ष पद से मुक्ति के बाद वे पूरी तरह समाज सेवा में समर्पित हो गये । जीवन का अंतिम समय बीमारियों में बीता और, 21 मार्च 1972 को कैंसर से पीड़ित होकर संसार से विदा ले ली ।

IIAS, Shimla invite entries for composing the Kulgeet

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The Indian Institute of Advanced Study (IIAS), Shimla is pleased to invite entries for composing the Kulgeet (Institute Anthem). This is a unique opportunity to contribute creatively to the cultural fabric of our Institute by composing a piece that will be a key part of our official events and ceremonies.

The anthem should reflect the ethos, mission, and values of IIAS, with an emphasis on promoting the spirit of scholarship, unity, and excellence. Entries are welcomed from anyone associated with the Institute, including Fellows, Scholars, and staff members.

Please review the attached circular for detailed instructions and guidelines for submission. We encourage everyone to participate in this exciting initiative. Kindly submit your entries before the deadline mentioned in the circular.

Feel free to reach out if you have any queries or need further details.

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