ब्रज की देवालय परम्परा के संरक्षण हेतु ब्रज वृन्दावन देवालय समिति ने की महत्वपूर्ण पहल

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ब्रज के पौराणिक तीर्थ स्थलों, वनों, कुंड, मंदिरों आदि के संरक्षण हेतु और ब्रज भूमि का मूल स्वरूप बचाने के उद्देश्य से एक महत्वपूर्ण पहल आज शुरू हुई।

वृन्दावन के श्री रंगनाथ मंदिर में ब्रज वृन्दावन देवालय समिति की पहली औपचारिक बैठक में विकास के दिशा भटकाव पर चिंता व्यक्त करते हुए, पधारे विशिष्ट जनों ने सामूहिक प्रयासों और सतत जन जागरण द्वारा श्री कृष्ण की लीला भूमि को सही दिशा देने का संकल्प लिया।
इस बैठक में ब्रज की देवालय परम्परा, संस्कृति, पौराणिक, मूल स्वरुप, और पर्यावरण पर विचार-विमर्श किया गया।

संयुक्त सचिव जगन नाथ पोद्दार ने बताया कि समिति का उद्देश्य ब्रज की देवालय परम्परा और मूल स्वरूप के संरक्षण और संवर्धन के लिए कार्य करना है। इसके अलावा, समिति ब्रज के वन, यमुना, कुण्ड, ब्रज रज, प्राचीन देवालय, साहित्य, और गौ वंश संरक्षण के लिए भी कार्य करेगी।

ब्रज क्षेत्र में स्थित विभिन्न मंदिर और तीर्थ स्थल हिंदू धर्म के लिए अत्यधिक महत्वपूर्ण हैं।

इन मंदिरों के अलावा, ब्रज क्षेत्र में कई प्राचीन कुण्ड और सरोवर भी हैं जिनको संरक्षण की दरकार है।
इन तीर्थ स्थलों के संरक्षण और संवर्धन से न केवल हिंदू धर्म की परम्पराओं का संरक्षण होगा, बल्कि पर्यावरण और संस्कृति का भी संरक्षण होगा।

समिति ने यमुना शुद्धिकरण, ब्रज संरक्षण हेतु कार्य योजना तैयार करना, और प्राचीन मंदिरों की सूची तैयार करना जैसे महत्वपूर्ण निर्णय लिए। अगले छह महीने की कार्य सूची तैयार की गई।

इस अवसर पर कई गणमान्य व्यक्तियों ने भाग लिया, जिनमें हरिश्चन्द्र गोस्वामी, भरत गोस्वामी, शम्भू दयाल पंडा, बलराम कृष्ण गोस्वामी, भारत जोशी, और कृष्णन स्वामी शामिल थे। आचार्य श्रीवत्स गोस्वामी जी ने अध्यक्षता की और जगन्नाथ पोद्दार ने संचालन किया।

Lecture held on Taiwan and India’s Cultural Convergence

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ALIGARH: Ms. Chang Shin Yun, a Taiwanese Scholar and visiting faculty at Amity University, Noida delivered a talk on “Taiwan and India’s Cultural Convergence: Exploring Opportunities in Multicultural Context” at the Chinese Division of the Department of Foreign Languages (DFL), Aligarh Muslim University.

She talked about the literature, society, lifestyle and scholarship opportunities in Taiwan and urged the students to look for new techniques to improve their Chinese.

Earlier, welcoming the guest speaker, Mr Md Yasin, the convener of the event, discussed various issues related to Taiwan and Taiwanese people and highlighted the importance of Taiwan as India’s strategic partner.

Prof. Mohammad Azher, Chairperson, DFL and Dean, Faculty of International Studies, said that the lecture has provided the students with an opportunity to get introduced to Taiwan in a better manner.

भारत के मार्च 2026 तक विश्व की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने के संकेत

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भारत के सकल घरेलू उत्पाद का आकार 3.93 लाख करोड़ अमेरिकी डॉलर है। जबकि, जापान के सकल घरेलू उत्पाद का आकार 4.21 लाख करोड़ अमेरिकी डॉलर का है एवं जर्मनी के सकल घरेलू उत्पाद का आकार 4.59 लाख करोड़ अमेरिकी डॉलर का है। भारत की आर्थिक विकास दर लगभग 8 प्रतिशत प्रतिवर्ष बनी हुई है और जापान एवं जर्मनी की आर्थिक विकास दर लगभग स्थिर है अथवा इसके ऋणात्मक रहने की भी प्रबल सम्भावना है। इस दृष्टि से मार्च 2025 तक भारत जापान की अर्थव्यवस्था को पीछे छोड़कर विश्व की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाएगा एवं मार्च 2026 तक भारत जर्मनी की अर्थव्यवस्था को पीछे छोड़ते हुए विश्व की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाएगा। हाल ही के समय में जर्मनी एवं जापान की अर्थव्यवस्थाओं में विभिन्न प्रकार की समस्याएं दृष्टिगोचर हैं, जिनके कारण इन दोनों देशों की आर्थिक विकास दर आगे आने वाले वर्षों में विपरीत रूप से प्रभावित रह सकती है।

द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात लगातार 4 दशकों तक जर्मनी पूरे यूरोपीयन यूनियन में तेज गति से आगे बढ़ती अर्थव्यवस्था बना रहा। इस दौरान विनिर्माण इकाईयों के बल पर जर्मनी ने अपने आप को विश्व में विनिर्माण केंद्र के रूप में स्थापित कर लिया था एवं विभिन्न उत्पादों, विशेष रूप से कार, मशीनरी एवं केमिकल उत्पादों का निर्यात पूरे विश्व को भारी मात्रा में किया जाने लगा था। पिछले 20 वर्षों के दौरान जर्मनी पूरे यूरोपीयन यूनियन के विकास का इंजिन बना हुआ था। चूंकि चीन की अर्थव्यवस्था बहुत तेजी से विकास कर रही थी अतः पिछले 20 वर्षों के दौरान चीन, जर्मनी से लगातार मशीनरी, कार एवं केमिकल पदार्थों का भारी मात्रा में आयात करता रहा है। परंतु, अब परिस्थितियां बदल रही हैं क्योंकि चीन की अर्थव्यवस्था भी हिचकोले खाने लगी है और चीन ने विभिन्न उत्पादों का जर्मनी से आयात कम कर दिया है। अतः अब जर्मनी अर्थव्यवस्था पर भी विपरीत प्रभाव पड़ता हुआ दिखाई दे रहा है। आज बदली हुई परिस्थितियों में चीन, जर्मनी में निर्मित विभिन्न उत्पादों का आयात करने के स्थान पर वह जर्मनी का प्रतिस्पर्धी बन गया है और इन्हीं उत्पादों का निर्यात करने लगा है। दूसरे, पिछले लगभग 2 वर्षों से रूस ने भी ऊर्जा की आपूर्ति यूरोप के देशों को रोक दी है, रूस द्वारा निर्यात की जाने वाली इस ऊर्जा का जर्मनी ही सबसे अधिक लाभ उठाता रहा है। तीसरे, जर्मनी में प्रौढ़ नागरिकों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है और एक अनुमान के अनुसार जर्मनी में आगे आने वाले एक वर्ष से कार्यकारी जनसंख्या में प्रतिवर्ष एक प्रतिशत की कमी आने की सम्भावना व्यक्त की जा रही है। इससे उपभोक्ता खर्च पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा। चौथे, जर्मनी में नागरिकों की उत्पादकता भी कम हो रही है। जर्मनी में प्रत्येक नागरिक वर्ष भर में केवल 1300 घंटे का कार्य करता है जबकि OECD देशों में यह औसत 1700 घंटे का है। पांचवे, यूरोपीयन यूनियन में वर्ष 2035 में पेट्रोल एवं डीजल पर चलने वाले चार पहिया वाहनों के उत्पादन पर रोक लगाई जा सकती है जबकि इन कारों का निर्माण ही जर्मनी में अधिक मात्रा में होता है तथा जर्मनी की कार निर्माता कम्पनियों ने बिजली पर चलने वाले वाहनों के निर्माण पर अभी बहुत अधिक ध्यान नहीं दिया है। साथ ही, जर्मनी ने नवाचार पर भी कम ध्यान दिया है एवं स्टार्ट अप विकसित करने में बहुत पीछे रहा है आज इन क्षेत्रों में अमेरिका एवं चीन बहुत आगे निकल गए हैं एवं जर्मनी आज अपने आप को असहाय सा महसूस कर रहा है। अतः जर्मनी अर्थव्यवस्था पर विपरीत प्रभाव आगे आने वाले लम्बे समय तक चलने की सम्भावना व्यक्त की जा रही है।

वैश्वीकरण की प्रक्रिया का प्रभाव भी जर्मनी अर्थव्यवस्था पर पड़ा है एवं अब पूरे विश्व में गैरवैश्वीकरण की प्रक्रिया प्रारम्भ हो चुकी है। आज प्रत्येक विकसित एवं विकासशील देश अपने पैरों पर खड़ा होकर स्वावलंबी बनना चाहता है। अतः जर्मनी जैसे देशों से मशीनरी एवं कारों का निर्यात कम हो रहा है साथ ही इन उत्पादों की तकनीकि भी लगातार बदल रही है जिसे जर्मनी की विनिर्माण इकाईयां उपलब्ध कराने में असफल सिद्ध हुई हैं। पिछले 5 वर्षों के दौरान जर्मनी अर्थव्यवस्था में विकास दर हासिल नहीं की जा सकी है।

जर्मनी में सितम्बर 2023 माह में वोक्सवेगन (Volkswagen) कम्पनी ने अपनी दो विनिर्माण इकाईयों को बंद करने का निर्णय लिया है। यह कम्पनी जर्मनी में 3 लाख से अधिक रोजगार के प्रत्यक्ष अवसर उपलब्ध कराती है तथा अन्य लाखों नागरिकों को अप्रत्यक्ष रूप से रोजगार के अवसर उपलब्ध कराती हैं। इस कम्पनी ने जर्मनी में अपनी विनिर्माण इकाईयों में उत्पादन कार्य को काफी हद्द तक कम कर दिया है क्योंकि पिछले कुछ वर्षों से इस कम्पनी के उत्पादों की बिक्री लगातार कम हो रही है। पिछले 5 वर्षों के दौरान इस कम्पनी की बाजार कीमत आधे से भी कम रह गई है। इस कम्पनी की उत्पादन इकाईयों में चार पहिया वाहनों का निर्माण किया जाता रहा है परंतु अब इन उत्पादन इकाईयों में बिजली पर चलने वाली कारों के निर्माण में बहुत परेशानी आ रही है। बिजली पर चलने वाली कारों का जर्मनी में उत्पादन बढ़ाने के स्थान पर चीन से इन कारों का बहुत भारी मात्रा में आयात किया जा रहा है। अपनी आर्थिक परेशानियों को ध्यान में रखते हुए जर्मनी ने यूक्रेन को टैंकों की आपूर्ति भी रोक दी है। दरअसल कोरोना महामारी के बाद से ही, वर्ष 2020 के बाद से, जर्मनी की अर्थव्यवस्था अभी तक सही तरीके से पूरे तौर पर उबर ही नहीं सकी है।

एक अनुमान के अनुसार जर्मनी अर्थव्यवस्था का आकार वर्ष 2024 में भी कम होने जा रहा है, यह वर्ष 2023 में भी कम हुआ था और इसके वर्ष 2025 में भी सुधरने की सम्भावना कम ही दिखाई दे रही है। जर्मनी के सकल घरेलू उत्पाद में वर्ष 2024 के दौरान 0.1 प्रतिशत की कमी की सम्भावना व्यक्त की जा रही है। बेरोजगारी की दर भी 6.1 प्रतिशत के स्तर तक ऊपर जा सकती है। जर्मनी अर्थव्यवस्था केवल चक्रीय ही नहीं बल्कि संरचनात्मक क्षेत्र में भी समस्याओं का सामना कर रही है। इसमें सुधार की कोई सम्भावना आने वाले समय में नहीं दिख रही है। हालांकि यूरोपीयन यूनियन में जर्मनी की अर्थव्यवस्था सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है परंतु फिर भी भारत, उक्त कारणों के चलते, जर्मनी की अर्थव्यवस्था को मार्च 2026 तक पीछे छोड़ देगा, ऐसी सम्भावना व्यक्त की जा रही है।

इसी प्रकार, पिछले लगभग 30 वर्षों के दौरान जापान की अर्थव्यवस्था में मुद्रा स्फीति, ब्याज दरें एवं येन की कीमत स्थिर रही है। परंतु, हाल ही के समय में येन का अंतरराष्ट्रीय बाजार में अवमूल्यन हो रहा है एवं यह 160 येन प्रति अमेरिकी डॉलर के स्तर पर आ गया है, जो वर्ष 2009 के बाद से कभी नहीं रहा है। जापान की अर्थव्यवस्था कई उत्पादों के आयात पर निर्भर करती है। जापान अपनी ऊर्जा की आवश्यकताओं का 90 प्रतिशत एवं खाद्य सामग्री का 60 प्रतिशत हिस्सा आयात करता है। जापान द्वारा आयात की जाने वाली वस्तुओं की अंतरराष्ट्रीय बाजार में कीमत बढ़ने से जापान में भी आयातित मुद्रा स्फीति की दर बढ़ रही है जो पिछले एक दशक के दौरान लगातार स्थिर रही है।

वर्ष 1955 से वर्ष 1990 के बीच जापान की अर्थव्यवस्था औसत 6.8 प्रतिशत प्रति वर्ष की दर से आगे बढ़ती रही। वर्ष 1990 तक जापान का स्टॉक मार्केट लगातार बढ़ता रहा एवं अचानक वर्ष 1990 में यह बुलबुला फट पढ़ा और जापान में आवासीय मकानों की कीमत 50 प्रतिशत तक गिर गई एवं व्यावसायिक मकानों की कीमत 85 प्रतिशत तक गिर गई। जापान के पूंजी बाजार में निक्के स्टॉक सूचकांक भी 75 प्रतिशत तक गिर गया।

जापान की अर्थव्यवस्था में तेजी के दौरान आस्तियों की बढ़ी हुई कीमत पर ऋण लिए गए थे परंतु जैसे ही इन आस्तियों की कीमत बाजार में कम हुई, नागरिकों को ऋणराशि की किश्तें चुकाने में भारी परेशानी का सामना करना पड़ा और इससे भी जापान में आर्थिक समस्याएं बढ़ी थी। दिवालिया होने वाले नागरिकों की संख्या बढ़ी और देश में अपस्फीति की समस्या प्रारम्भ हो गई थी। जापान की सरकार ने आर्थिक तंत्र में नई मुद्रा की मात्रा बढ़ाई और ब्याज दरों को लगभग शून्य कर दिया। इन समस्त उपायों से भी जापान में आर्थिक समस्याओं का हल नहीं निकल सका। वर्ष 2022 में जापान में भी विश्व के अन्य देशों की तरह मुद्रा स्फीति बढ़ने लगी थी परंतु जापान ने ब्याज दरों को नहीं बढ़ाया। अब कुल मिलाकर जापान अपनी आर्थिक समस्याओं से जूझ रहा है एवं वहां पर आगे आने वाले समय में आर्थिक विकास के पटरी पर आने की सम्भावना कम ही नजर आती है अतः भारत जापान की अर्थव्यवस्था को मार्च 2025 तक पीछे छोड़कर विश्व की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यस्था बन सकता है।

औपनिवेशिक मानसिकता का दिवालियापन

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–  प्रशांत पोळ

मध्य प्रदेश के उच्च शिक्षा मंत्री, श्री इंदर सिंह परमार जी ने विगत दिनों एक विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह में, ‘भारत की खोज क्या वास्को डि गामा ने की?’ ऐसा प्रश्न पूछा। उनका आशय था, ‘भारत तो समुद्री परिवहन में हजारों वर्षों से आगे था। भारत अनेक देशों से व्यापार करता था। इसलिए, ‘वास्को डि गामा ने भारत की खोज की’ ऐसा कहना, यह इतिहास से की गई विडंबना है।’

इसको विस्तार से कहते हुए उन्होंने कहा कि ‘वास्को डि गामा जब भारत आया, तो उसको भारत का रास्ता दिखाया चंदन नाम के एक भारतीय व्यापारी ने’। उन्होंने इस संदर्भ में मेरी पुस्तक, ‘भारतीय ज्ञान का खजाना’ का भी संदर्भ दिया। उनके इस वक्तव्य पर, दैनिक भास्कर ने अपने वेब एडिशन में एक स्टोरी की। उस स्टोरी का शीर्षक है, ‘भारत की खोज क्या वास्को डि गामा ने नहीं की?’ विनय प्रकाश पांडे जी ने यह स्टोरी की है। हालांकि यह स्टोरी तीन दिन पुरानी है। मैने आज पढी। स्टोरी प्रकाशित होने के बाद कोई फोन मुझे नहीं आया। तो निश्चित रूप से इसको बहुत ज्यादा किसी ने पढ़ा नहीं होगा। किंतु यह डाक्यूमेंटेड है, इसलिए इसका खंडन (rebuttal) करना आवश्यक हैं।

इसमें से दो-तीन बातें निकाल कर आती हैं। पहली बात, *दैनिक भास्कर की स्टोरी यह पूर्णतः औपनिवेशिक मानसिकता (colonised mind) का एक उदाहरण है। अभी भी हम में से कईयों के दिमाग में यह रच बस गया है कि भारत का अतीत तो कुछ था ही नही। हमें जो कुछ सिखाया – पढ़ाया, वह सब यूरोपियन लोगों ने ही किया। और इसीलिए ‘भारत की खोज वास्को डि गामा ने की’ यह पाठ्य पुस्तकों मे हमे पढ़ाया गया।*

दूसरी बात – इस स्टोरी के संदर्भ में दैनिक भास्कर ने वास्को डि गामा के जिस डायरी का संदर्भ दिया है, यह संदर्भ सर्वप्रथम पद्मश्री हरिभाऊ वाकणकर जी ने दिया था, जब वह लंदन में गए थे। वहां के संग्रहालय में उनको, वास्को डि गामा के प्रवास से संबंधित, अंग्रेजी में अनुवादित की गई, एक डायरी मिली। उसके आधार पर उन्होंने लिखा कि ‘वास्को डि गामा को भारत की दिशा और भारत का रास्ता बताया, एक भारतीय व्यापारी ने’। दैनिक भास्कर की स्टोरी में, उस डायरी को पूरी ना पढ़ते हुए, दो-चार इधर-उधर के संदर्भ लिखते हुए, यह बताने की चेष्टा की गई है कि वह भारतीय व्यापारी तो था ही नहीं। वास्को डि गामा ने स्वतः ही भारत को ढूंढ निकाला। हां, किसी ख्रिश्चन ने उनको भारत का रास्ता दिखाने मे मदद की। यह अत्यंत गलत है। अगर हम डायरी ठीक से पढ़े तो उस डायरी में ही अत्यंत स्पष्टता के साथ लिखा है कि, अफ्रीका खंड में प्रवेश करते ही साथ वास्को डि गामा और उसके जहाज के सभी लोग, बड़े बेसब्री से (desperately) किसी न किसी व्यक्ति को चाहते थे, जो उन्हें भारत तक का रास्ता दिखाएं। इसके लिए उन्होंने अलग-अलग देशों से, जहां-जहां वह रुके, वहां लोगों का अपहरण किया, कि उन्हे रास्ता दिखाएं। मोझंबीक के राजा ने उनका बड़ा आदर सत्कार किया। लेकिन फिर भी आखिरी दिन, वास्को डी गामा ने, मोझंबीक के ही एक व्यक्ति का अपहरण कर लिया, ताकि वह उन्हे भारत तक का रास्ता दिखाएं।

*डायरी यह भी वर्णन है कि, आगे जाकर उनको एक भारतीय व्यापारी, जो गुजरात का है, (उसका नाम भी उन्होंने दिया है) उस व्यापारी ने उनको भारत का रास्ता दिखाया। रविवार, 22 अप्रैल का डायरी का पृष्ठ अगर हम देख ले, तो उसमें यह सब उल्लेख है। इसलिए, अगर दैनिक भास्कर, माननीय मंत्री जी को झूठा साबित करना चाहता है, तो वह गलत बातों का आधार देकर गलती कर रहा हैं। एक औपनिवेशिक मानसिकता के आधार पर इस प्रकार की स्टोरी प्लांट की जा रही है। (मैने डायरी के पृष्ठों के फोटो, इस पोस्ट के साथ दिये हैं)।

*लेकिन यह मूल मुद्दा नहीं है कि वास्को डि गामा को भारत का रास्ता दिखाने वाले व्यक्ति का नाम क्या था। मूल मुद्दा यह है कि वास्को डि गामा के पहले भी भारतीय लोगों ने, विश्व के अनेक देशों में, लॅटिन अमेरिका तक, सबसे पहले अपने कदम रखे हैं। भारतीय नाविक, भारतीय कप्तान वहां तक गए हैं। उन्होंने व्यापार किया है। प्रोफेसर अंगस मेडिसिन ने जो अपने पुस्तकों में आंकड़े दिए हैं, उसके अनुसार पहली शताब्दी में, पूरे विश्व के व्यापार का एक तिहाई से ज्यादा हिस्सा भारत के पास था।* ईसा के पहले के आंकड़े उनके पास नहीं है, अन्यथा हमारा व्यापार बहुत बड़ा था। और उसके लिए अलग-अलग इतिहासकारों ने, (उस समय के वह सारे इतिहासकार यूरोपीय है) यह लिखकर रखा है कि, भारत का व्यापार किस प्रकार का था। ईसा से दो सौ वर्ष पहले का स्ट्रोबो नाम का इतिहासकार है। उसने सारा लिखकर रखा है। अनेक जहाजों के नाम तक दिए गए हैं, जो युरोप मे व्यापार करने जाते थे। एक जहाज में कितना माल जाता था, वह भी दिया गया है। भारत को कितना पैसा मिलता था, यह भी दिया गया है। मजेदार बात, उस समय रोमन साम्राज्य बहुत बड़ा माना जाता था। लेकिन उस रोमन साम्राज्य के साथ भारत का जो व्यापार था, उस व्यापार से भारत इतना ज्यादा कमाता था की रोमन साम्राज्य से भी कई गुना वैभव हमारे देश में था। रोमन साम्राज्य (प्रमुखता से आज का इटली) के सोने के सिक्के पूरे विश्व में मिले हैं। महत्व की बात, इटली के बाद सबसे ज्यादा सिक्के यह भारत में मिले हैं। अकेले दक्षिण भारत में रोमन साम्राज्य के सोने के 6000 सिक्के मिले हैं।

*वास्को डि गामा की डायरी में यह उल्लेख है कि, ‘भारतीय लोग मरीन कंपास का प्रयोग करते थे।’ युरोप ने मरीन कंपास की खोज बहुत बाद मे की है। लेकिन हमारे यहां कुछ हजार वर्ष पहले से मरीन कंपास का उपयोग होता आया है। उसको ‘मच्छ यंत्र’ कहते थे। आज भी संग्रहालयों में, पुराने जहाजों में मिले हुए मच्छ यंत्र सुरक्षित रखे गए हैं। और सिर्फ मरीन कंपास ही नहीं, तो जहाज को ठीक दिशा में रखने के लिए जो सेक्सटेंट इक्विपमेंट का उपयोग होता हैं, हम उसका भी हजारों वर्षों से उपयोग कर रहे हैं। उसे हमारे पूर्वज, ‘वृत्तशंख भाग’ कहते थे। आज भी संग्रहालयों में पुराने ‘वृत्तशंख भाग’, अर्थात सेक्सटेंट, उपलब्ध है।* वास्को डि गामा की डायरी यह भी कहती है कि, जब वास्को डि गामा मरीन कंपास लेकर पुर्तगाल गया, तो वहां के लोगों ने उसका विरोध किया। लेकिन जहाज के सारे लोगों के मानते थे, की ‘यह अत्यंत उपयोगी है। इतना अच्छा और अचूक उपकरण हमारे पास नहीं है’।

*यह सारी बातें, इस बात की और इंगित करती है कि हम सबको अत्यंत गलत इतिहास आज तक पढ़ाया गया। और उस इतिहास को अगर कोई ठीक करना  चाहता है या ठीक से, सत्य इतिहास लिखना चाहता है, तो ऐसे मंत्रियों पर, ऐसे किसी भी अधिकारी पर, यह सारे, जो यूरोपियन मानसिकता को लेकर बैठे हैं, पश्चिम की मानसिकता को लेकर बैठे हैं, औपनिवेशिक मानसिकता को लेकर बैठे हैं, यह सारे लोग उनका विरोध करेंगे।* इसलिए हमें फिर से यह कहना चाहिए की भारत के पास अत्याधुनिक तकनीक थी। ‘भारत की खोज वास्को डि गामाने की’ इस प्रकार के दुर्भाग्यपूर्ण और गलत संदेश हमारे विद्यार्थियों को ना दें। अगर कोई मंत्री जी इसको ठीक करना चाहते हैं, तो उनके खिलाफ इस प्रकार की गलत स्टोरी प्लांट करना यह पत्रकारिता पर एक धब्बा है।

इस स्टोरी में मेरे उपर भी आक्षेप लगाया गया हैं, की मैं एक अभियंता होकर भी इतिहास पर लिखता हूं। मेरी खुली चुनौती हैं, की मेरी लिखी किसी भी पुस्तक मे, मैने यदी गलत लिखा हैं, तो उसे बताएं। साबित करे। मैं हमेशा ही सप्रमाण लिखता हूं।

कुल मिलाकर, अंग्रेजी मानसिकता से हम बाहर आए, औपनिवेशिक चश्मा निकाल फेके। खुले मन से, असली इतिहास को पढे। बस इतनाही..!

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