मुगल बादशाह औरंगजेब के इशारे पर भोजन में विष दिया गया था

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मिर्जा राजा जयसिंह की बहादुरी के प्रसंग भारत के हर कौने में है । अफगानिस्तान से लेकर दक्षिण भारत तक उन्होंने हर युद्ध जीता । पर ये लड़ाइयाँ उन्होंने अपने लिये नहीं मुगलों के लिये लड़ीं थीं। पर एक दिन ऐसा आया जब
मुगल बादशाह औरंगजेब की योजना से उन्हें जहर देकर मार डाला गया ।

मुगल बादशाह औरंगजेब अपनी क्रूरता के लिये ही नहीं कुटिलता के लिये भी जाना जाता है । वह अपने भाइयों की हत्या करके और पिता को जेल में डालकर गद्दी पर बैठा था । उसने अपनी एक पुत्री को जेल में डाला और एक पुत्र जान बचाकर भागा था । औरंगजेब द्वारा राजपूत राजाओं के साथ की गई कुटिलता की भी कई कहानियाँ इतिहास के पन्नों में दर्ज हैं। जोधपुर के राजा महाराज जसवंतसिंह की भी हत्या की गई थी । उन्हें युद्ध अभियान के लिये पहले काबुल भेजा गया और उनके शिविर में किसी अज्ञात ने उनकी हत्या कर दी थी । ठीक इसी प्रकार मिर्जा राजा जयसिंह की मध्यप्रदेश के बुरहानपुर में विष देकर हत्या की गई।

राजा जयसिंह आमेर रियासत के शासक थे । उन्होंने केवल ग्यारह वर्ष की आयु में गद्दी संभाली‌‌ थी । वे 1621 से 1667 तक आमेर के शासक रहे । उनके पूर्वजों ने अपनी रियासत को विध्वंस से बचाने के लिये बादशाह अकबर के समय मुगल सल्तनत से समझौता कर लिया था । इस समझौते के तहत आमेर के राजा को मुगल दरबार में सेनापति पद मिला और आमेर की सेना ने हर सैन्य अभियान में मुगल सल्तनत का साथ दिया । मुगल दरबार में यह सेनापति पद आमेर के हर उत्तराधिकारी को रहा । इसी के अंतर्गत राजा जयसिंह जब मुगल सेनापति बने बने तब जहांगीर की बादशाहत थी । फिर शाहजहाँ की । और अंत में औरंगजेब के शासन काल में भी वे सेनापति रहे । उन्हें 1637 में शाहजहाँ ने “मिर्जा राजा” की उपाधि दी थी । राजा जयसिंह ने मुगलों की ओर से 1623 में अहमदनगर के शासक मालिक अम्बर के विरुद्ध’, 1625 में दलेल खां पठान के विरुद्ध, 1629 में उजबेगों के विरुद्ध, 1636 में बीजापुर और गोलकुंडा के विरुद्ध तथा 1937 में कंधार के सैन्य अभियान में भेजा और राजा जयसिंह सफल रहे । उन्होंने हर अभियान में मुगल सल्तनत की धाक जमाई । उनकी बहादुरी और लगातार सफलता के लिये अजमेर क्षेत्र इनाम में मिला और 1651 में तत्कालीन बादशाह शाहजहाँ ने अपने पौत्र सुलेमान की साँझेदारी में कंधार की सूबेदारी दी ।

इसके बाद 1651 ई. में शाहजहां ने इन्हें सदुल्ला खां के साथ में कंधार के युद्ध में नियुक्त किया ।

बादशाह जहांगीर और शाहजहाँ के कार्यकाल में तो सब ठीक रहा पर राजा जयसिंह औरंगजेब की आँख की किरकिरी पहले दिन से थे । इसका कारण 1658 में हुआ मुगल सल्तनत के उत्तराधिकार का युद्ध था । यह युद्ध शाहजहाँ के बेटों के बीच हुआ था । बादशाह शाहजहाँ के कहने पर राजा जयसिंह ने दारा शिकोह के समर्थन में युद्ध किया था । पहला युद्ध दारा शिकोह और शुजा के बीच बनारस के पास बहादुरपुर में हुआ हुआ था । इसमें जयसिंह की विजय हुई । इस विजय से प्रसन्न होकर बादशाह शाहजहाँ ने इनका मनसब छै हजार का कर दिया था ।

बादशाहत के लिये दूसरा युद्ध मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र की सीमा पर 15 अप्रैल 1658 को हुआ। यह युद्ध दारा शिकोह और औरंगजेब के बीच हुआ । इस युद्ध में भी राजा जयसिंह ने दारा शिकोह के पक्ष में युद्ध किया । लेकिन इस युद्ध में औरंगजेब का पलड़ा भारी रहा । मुगल सेना पीछे हटी और आगरा की सुरक्षा के लिये तगड़ी घेराबंदी की गई। बादशाह ने इस सुरक्षा कवच का नेतृत्व करने के लिये भी राजा जयसिंह को ही चुना । औरंगजेब ने एक रणनीति से काम किया । उसने सीधे आगरा पर धावा बोलने की बजाय अपनी एक सैन्य टुकड़ी को राजस्थान के उन हिस्सों में उत्पात मचाने भेज दिया जो राजा जयसिंह के अधिकार में थे । राजा जयसिंह के सामने एक विषम परिस्थिति बनी । आमेर के राजाओं ने अपने क्षेत्र की सुरक्षा के लिये ही तो मुगलों से समझौता किया था लेकिन अब संकट में आ गया था । औरंगजेब ऐसा करके राजा जयसिंह को समझौते के लिये तैयार करना चाहता था । राजा जयसिंह ने भी भविष्य की परिस्थिति का अनुमान लगाया और बातचीत के लिये तैयार हो गये । 25 जून 1658 को मथुरा में दोनों की भेंट हुई और राजा जयसिंह ने औरंगजेब को अपना समर्थन देने का वचन दे दिया । मार्च 1659 में देवराई के पास हुये निर्णायक युद्ध में राजा जयसिंह ने औरंगजेब की ओर दारा शिकोह के विरूद्ध अहरावल दस्ते का नेतृत्व किया ।

औरंगजेब ने सत्ता संभालने के बाद राजा जयसिंह को मनसब तो यथावत रखा पर पूर्ण विश्वास न कर सका । वह राजा जयसिंह को ऐसे युद्ध अभियानों पर भेजता जो कठिन होते । पर राजा सभी अभियानों में सफल रहे । औरंगजेब ने उन्हे दक्षिण में छत्रपति शिवाजी महाराज के विरुद्ध भी भेजा । औरंगजेब की ओर से शिवाजी महाराज के साथ पुरन्दर की संधि राजा जयसिंह ने ही की थी । और राजा पर विश्वास करके ही शिवाजी महाराज औरंगजेब से चर्चा के लिये आगरा आये थे । जहाँ बंदी बना लिये गये । शिवाजी महाराज को इस प्रकार बंदी बना लेने से राजा जयसिंह भी आश्चर्यचकित हुये और सावधान भी । औरंगजेब शिवाजी महाराज को विष देकर मारना चाहता था । लेकिन शिवाजी महाराज समय रहते सुरक्षित निकल गये । यह घटना अगस्त 1666 की है । शिवाजी महाराज के इस प्रकार सुरक्षित निकल जाने पर औरंगजेब को राजा जयसिंह पर संदेह हुआ । बादशाह को लगा कि इसमें राजा जयसिंह का हाथ हो सकता है । चूँकि शिवाजी महाराज की निगरानी में राजा जयसिंह का भी एक सैन्य दस्ता लगा था । इसलिए बादशाह को राजा जयसिंह पर गहरा संदेह होना स्वाभाविक भी था । पर बादशाह ने सीधे और तुरन्त कार्रवाई करने की बजाय मामले टालने का निर्णय लिया ।

अंततः जून 1667 में राजा जयसिंह को दक्षिण के अभियान पर भेजा गया । बरसात के चलते राजा बुरहानपुर में रुके थे । मुगल सेना की प्रत्येक सैन्य टुकड़ी में भोजन बनाने वाली खानसामा टीम सीधे बादशाह के आधीन सामंतों के नियंत्रण में होती थी । इस अभियान में भी यही व्यवस्था थी । 28 अगस्त 1667 को भोजन में विष देकर राजा जयसिंह की हत्या कर दी गई । बुरहानपुर में राजा जय सिंह की 38 खम्बों की छतरी बनी है जो राजा जयसिंह के पुत्र राम सिंह ने अपने पिता की स्मृति में बनबाई थी ।

दयाल सिंह सांध्य महाविद्यालय और नैम कैन थो विश्वविद्यालय के बीच नमस्ते वियतनाम महोत्सव 2024 में हुआ शैक्षणिक समझौता

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बृजेश भट्ट

नई दिल्ली : अंतर्राष्ट्रीय शैक्षणिक सहयोग को बढ़ावा देने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम उठाते हुए, दिल्ली विश्वविद्यालय के दयाल सिंह सांध्य महाविद्यालय और वियतनाम के नैम कैन थो विश्वविद्यालय के बीच एक समझौता ज्ञापन (एमओयू) पर हस्ताक्षर किए गए। यह हस्ताक्षर 26 अगस्त को वियतनाम के हो ची मिन्ह सिटी में भारतीय वाणिज्य दूतावास में आयोजित नमस्ते वियतनाम महोत्सव के दौरान किए गए।

इस समझौते पर दयाल सिंह सांध्य महाविद्यालय की प्रिंसिपल प्रो. भावना पाण्डेय और नैम कैन थो विश्वविद्यालय के कुलाधिसचिव डॉ. ट्रान थी थू ने हस्ताक्षर किए। यह महोत्सव भारत और वियतनाम के बीच आपसी संबंधों को प्रगाढ़ करने और उन्हें और मजबूत करने की दिशा में किया गया एक प्रयास है। 2022 में शुरू किए गए इस महोत्सव की यह तीसरी कड़ी थी, जिसमें दोनों देशों के विश्वविद्यालयों ने बढ़-चढ़कर भाग लिया।

इस महोत्सव का मुख्य उद्देश्य दोनों देशों के बीच शैक्षिक और सांस्कृतिक आदान-प्रदान को प्रोत्साहित कर सहयोग और मित्रता की भावना को बढ़ावा देना था। आयोजन में भारत के 28 विश्वविद्यालय और वियतनाम के 17 विश्वविद्यालयों ने भाग लिया। इस अवसर पर महावाणिज्य दूत महामहिम डॉ. मदन मोहन सेठी ने बताया कि हर साल वियतनाम से लगभग 2 लाख छात्र पढ़ाई के लिए विदेश जाते हैं। दिल्ली विश्वविद्यालय का दयाल सिंह सांध्य महाविद्यालय, अधिक से अधिक वियतनामी छात्रों को दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाई हेतु आकर्षित करने की पहल का नेतृत्व कर रहा है।

दयाल सिंह सांध्य महाविद्यालय के लिए यह गर्व का क्षण था कि वह दिल्ली विश्वविद्यालय का एकमात्र कॉलेज था जिसने वियतनाम के किसी विश्वविद्यालय के साथ समझौता ज्ञापन पर हस्ताक्षर किए। भारतीय वाणिज्य दूतावास द्वारा आमंत्रित इस महोत्सव में दयाल सिंह सांध्य महाविद्यालय की प्रिंसिपल एवं उनके साथ संस्थागत सहयोग समिति के पांच सदस्य भी शामिल हुए।

समझौता ज्ञापन का उद्देश्य स्वैच्छिकता, समानता, निष्पक्षता, ईमानदारी और अखंडता के सिद्धांतों पर आधारित शैक्षिक और सांस्कृतिक गतिविधियों को बढ़ावा देना और उनका समर्थन करना है।

दोनों संस्थान अर्थशास्त्र, व्यापार और सूचना तकनीक के क्षेत्र में शैक्षणिक एवं अनुसंधान सहयोग को बढ़ावा देने के लिए प्रतिबद्ध हैं। इसके अलावा, शैक्षिक संसाधनों, पाठ्यक्रम, और व्यावसायिक प्रशिक्षण के आदान-प्रदान, संयुक्त अनुसंधान पहलों, शैक्षणिक प्रकाशनों, और प्रौद्योगिकी हस्तांतरण पर भी ध्यान केंद्रित किया जाएगा।

महाविद्यालय के अध्यक्ष, प्रो. बृज किशोर कुठियाला जी ने महाविद्यालय को वैश्विक स्तर पर पहचान दिलाने और इस अवसर का लाभ उठाने के लिए प्रिंसिपल प्रो. भावना पाण्डेय की सराहना की है।

Celebrating 75 Years of India-Argentina Relations

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New Delhi – As India and Argentina mark the 75th anniversary of their diplomatic relations, H.E. Mariano A. Caucino, the Argentine Ambassador to India, expressed his deep honor and pride in serving as Ambassador during a pivotal time in Indian history. In his address on this momentous occasion, Ambassador Caucino reflected on the shared values, expanding economic ties, and the growing partnership between the two nations.
Ambassador Caucino underscored India’s impressive achievements, noting its status as the world’s fifth-largest economy and the fastest-growing democracy. He emphasized the shared principles of democracy, freedom, and respect for human dignity that unite Argentina and India, highlighting their collaboration during India’s G20 presidency in 2023. The Ambassador expressed gratitude for India’s historical support on the “Malvinas Question,” affirming the strong diplomatic ties that have been cultivated over the years.

On the economic front, Ambassador Caucino celebrated the significant growth in bilateral trade, which reached a total volume of USD 4.6 billion in the past year. Argentina has become a key supplier of soybean and sunflower oil to the Indian market, contributing to India’s food security. Additionally, he welcomed the investments by Indian mining companies in Argentina, particularly in lithium, copper, and gold exploration, which are vital for India’s electric vehicle development and critical mineral supply chains.

The Ambassador also highlighted the robust cultural ties that predate diplomatic relations between the two countries, with a special mention of Rabindranath Tagore’s visit to Argentina in 1924. He praised the success of cultural exchanges such as the film “Thinking of Him,” an India-Argentina film co-produced by the noted Indian filmmaker Suraj Kumar, and the shared passion for Tango, Polo, and Yoga in both nations.

In the realm of defense cooperation, Ambassador Caucino noted the strengthened bonds between the Argentine and Indian armed forces, built on shared expertise, exchange opportunities, and mutual support. He also emphasized the successful collaboration in nuclear cooperation, with Argentine company INVAP’s completion of the Radioisotope Production Facility in Mumbai.

In concluding his remarks, Ambassador Caucino expressed pride in contributing to the long-standing friendship between Argentina and India. With a history of diplomatic service as Ambassador to Costa Rica and Israel, and as an accomplished author on foreign affairs and contemporary history, Ambassador Caucino continues to strengthen the ties between these two vibrant democracies.

पश्चिम बंगाल के लोग और मुख्यधारा की मीडिया निर्ममता दीदी को क्यों बर्दाश्त कर रहे है?

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एस.के. सिंह

एक समय था जब बंगाल विवेकानन्द, विद्यासागर, राममोहन राय, आशुतोष, खुदीराम, रवीन्द्रनाथ टैगोर, रामकृष्ण जैसे महामानवों के लिए जाना जाता था और अब निर्ममता बनर्जी के अत्याचारों के लिए जाना जाता है। किसी भी कीमत पर कुर्सी बचाए रखने के उनके एकमात्र निजी एजेंडे के तहत राज्य और शासन पर कब्जा कर लिया गया है। राज्य की पिछली मार्क्सवादी सरकारों को धन्यवाद जिन्होंने शासन की कीमत पर चयनात्मक तुष्टिकरण के माध्यम से सत्ता को बरकरार रखने के गुर सिखाए और दिखाए।

हाल ही में प्रशिक्षु डॉक्टर के साथ क्रूर बलात्कार और हत्या ने ममता बनर्जी को बेनकाब कर दिया है और अब देश का हर समझदार नागरिक पश्चिम बंगाल के कथित शासन पर दुखी और निराश महसूस कर रहा है जो दोषियों को बचाने की कोशिश कर रही है। अब लोगों का ध्यान घटना की जांच से हटकर ममता बनर्जी के इस्तीफा और निरर्थक शासन पर केंद्रित हो गया है।

ममता बनर्जी के कुशासन के खिलाफ 27 अगस्त को छात्रों द्वारा बुलाए गए बंद को अब बीजेपी और कई टीएमसी नेता परोक्ष रूप से समर्थन दे रहे हैं। इससे संकेत मिलता है कि टीएमसी के लोग भी चाहते हैं कि ममता बंगाल की मुख्यमंत्री की कुर्सी खाली कर दें। आश्चर्य की बात है कि मुख्यधारा का प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया जो मुखर था शाहीन बाग में प्रदर्शन और किसानों के आंदोलन के मामले में जिन्हें सीमाओं के पार एक अंतर्निहित समर्थन प्राप्त था, ममता बनर्जी के कुशासन को जोरदार रूप से नहीं उठा रहा है।

संविधान बचाने के लिए झूठी कहानी का प्रचार करने वाले राहुल, अखिलेश, तेजस्वी और INDI ब्लॉक के अन्य नेता भी ममता बनर्जी के मुद्दे पर शांत हैं, जो स्पष्ट रूप से संविधान के बुनियादी सिद्धांतों के उल्लंघन में दोषियों का पक्ष ले रही हैं। कई मुद्दों पर ज्ञान देने वाले पश्चिम बंगाल के तथाकथित बुद्धिजीवी अब हैरान हैं कि राज्य पर शासन कर रहे एक राजनीतिक राक्षस से कैसे छुटकारा पाया जाए।

28 अगस्त 2024 को पश्चिम बंगाल में आम हड़ताल के लिए भाजपा द्वारा किया गया बंद का आह्वान सामयिक है, क्योंकि यह निरंकुश शासन लोगों की आवाज, मृतक डॉक्टर के लिए न्याय की मांग को अनसुना कर रहा है। यह देखना दिलचस्प है कि कांग्रेस और सीपीएम जैसी अन्य राजनीतिक पार्टियां इस हड़ताल के आह्वान पर क्या रुख अपनाती हैं। बीजेपी से ज्यादा संभव है कि यह टीएमसी का कैडर है जो बंद को सफल बनाएगा, क्योंकि टीएमसी के लोग भी नेतृत्व से तंग आ चुके हैं।

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