भारतीय ज्ञान परंपरा के अनुकूल हो भारतीय शिक्षा : डी राम कृष्ण राव

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अयोध्या: मूल्य आधारित शिक्षा से ही श्रेष्ठ समाज का निर्माण संभव है। जीवन निर्माण करने वाली शिक्षा ही आने वाली पीढ़ियों को भारतीय इतिहास ,ज्ञान और भारत बोध कराने के सहायक होगी। शिक्षा एक महा मंत्र है जिसके द्वारा समाज के विकास की गति और प्रगति सुनिश्चित की जाती है ऐसे में राष्ट्रीय शिक्षा नीति -2020 पूरे शिक्षा क्षेत्र में परिवर्तन के लिए अग्रसर है ।

उक्त बातें विधा भारती द्वारा साकेत निलयम – अयोध्या में आयोजित तीन दिवसीय अखिल भारतीय मंत्री समूह की कार्यशाला का उदघाटन करते हुये विधा भारती के राष्ट्रीय अध्यक्ष डी राम कृष्ण राव ने कही उन्होने कहा की अभी तक भारत में शिक्षा कैसी हो इसपर रणनीति बनती थी लेकिन अब शिक्षा में भारत कैसा हो इसपर कार्य हो रहा है। वर्तमान समय में शिक्षा केवल सूचनाओं का संकलन मात्र नहीं है। बच्चे सूचनाओं के माध्यम से अपने अनुभव के आधार पर नवीन ज्ञान का सृजन करते है । भारत का ज्ञान वैश्विक स्तर पर भारत को ज्ञान गुरु बनाने की ओर अग्रसर है।

उक्त कार्यशाला में देश भर से अनेक शिक्षाविद, चिंतक, विचारक और विधा भारती के क्षेत्र और प्रांत स्तर के सभी मंत्री प्रतिभाग कर रहे है । विशेष रूप से कार्यशाला मे उपस्थित गोविन्द चन्द्र महंत, यतीन्द्र शर्मा , अवनीश भटनागर , श्रीराम अरावकार , हेमचन्द्र सहित अन्य उपस्थित थे।

बंगलादेश में हिन्दुओं की हत्या और मोहम्मद यूनुस की अंतरिम के मायने

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बंगलादेश में हिंसा और भीड़ की अराजकता कहने केलिये राजनैतिक है । पर निशाने पर राजनेता कम हिन्दु परिवार और उनके मंदिर अधिक हैं। 29 जिलों में चुन चुनकर हिन्दुओं को निशाना बनाया गया है । पहले दिन ही मरने वाले हिन्दुओं की संख्या सौ से अधिक हो गई थी । लेकिन सेना के प्रभावी होने के बाद मरने वालों और घायलों के आकड़े नहीं आ रहे । बंगलादेश के ताजा घटनाक्रम में दूसरा विचारणीय विन्दु मोहम्मद युनुस के हाथों अंतरिम सरकार की कमान सौंपना है ।

बंगलादेश में सत्ता परिवर्तन हो गया है । यह परिवर्तन जनमत के द्वारा नहीं हुआ । पहले अराजक हिंसक भीड़ ने सत्ता पर अधिकार किया और फिर सेना के सहयोग से उद्योगपति मोहम्मद युनुस को अमेरिका से बुलाकर अंतिम सरकार की कमान सौंपी है । सत्ता का यह पहला चरण है । जो बहुत दूरदर्शिता से उठाया है । संभावना है कि अगले चरण में खालिदा जिया अथवा उनके बेटे तारिक के हाथ में सत्ता होगी । बंगलादेश की सत्ता पर बैठने वाले चेहरे चाहे जो हों पर इसके तार पाकिस्तान और चीन से जुड़े होंगे। इसका कारण सत्ता परिवर्तन का तरीका है । बंगलादेश में हिंसा के माध्यम से सत्ता परिवर्तन पहला नहीं है विश्व के जिन देशों में मुस्लिम कट्टरपंथी अथवा माओवादी अति प्रभावी हुये हैं वहाँ ऐसी घटनाएँ घट चुकीं हैं। पाकिस्तान, अफगानिस्तान आदि देशों में ऐसा हो चुका है । चीन और रूस के इतिहास में भी ऐसी घटनाएँ घटीं हैं। बंगलादेश की ताजा घटना इस परंपरा की एक और कड़ी है । इसमें माओवादियों और मुस्लिम कट्टरपंथियों की शैली बहुत स्पष्ट है । दोनों का अपना अपना लक्ष्य है। माओवादियों का लक्ष्य सत्ता होती है और कट्टरपंथियों का लक्ष्य सत्ता के साथ विपरीत मतानुयायियों को मारकर उनकी संपत्ति को लूटना। यद्यपि इन दोनों समूहों में कोई वैचारिक साम्य नहीं हैं पर फिर भी अनेक एशियाई देशों में यह गठबंधन काम कर रहा है । श्रीलंका, म्यांमार, नेपाल और मालदीप आदि देशों में सत्ता परिवर्तन देखकर इसे समझा जा सकता है । ये सभी देश भारत के पड़ौसी हैं। पता नहीं यह केवल दुर्योग है या सच्चाई कि भारत में घटने वाली अनेक घटनाओं की शैली में भी इस गठजोड़ की झलक मिलती है । बंगलादेश के घटनाक्रम में भी यही कहानी है । सत्ता भी बदल गई और हिन्दुओं को निशाना भी बनाया गया । यह सब कोई अचानक नहीं हुआ । योजना बहुत सटीक और गुप्त रही । यह भी विचारणीय है कि शेख हसीना को सुरक्षित निकलने अवसर मिल गया पर हिन्दुओं को ढाका से भी निकलने का अवसर न मिला । आँदोलन आरक्षण विरोध के नाम पर शुरु हुआ था । पर हिन्सा में वे युवा भी मारे गये जो आँदोलन में साथ थे ।

अब घटनाक्रम घट चुका है । एक एक कड़ी हमारे सामने है । यदि सभी कड़ियों को जोड़े तो भयावह तस्वीर बनती है । बहुत स्पष्ट है आरक्षण विरोध तो एक बहाना था । पहले दिन से उद्देश्य सत्ता परिवर्तन रहा होगा । आँदोलन की घोषणा और सत्ता परिवर्तन में कितना कम समय लगा । यह भी शोध का विषय है । और फिर आरक्षण की घोषणा शेख हसीना ने तो नही की थी । आरक्षण देने का आदेश कोर्ट का था । वह भी केवल सात प्रतिशत । लेकिन यह बहाना लेकर भीड़ सड़को पर आ गई । पहले थानों पर हमला हुआ और फिर सत्ता पर । पुलिस या तो हमलावरों के साथ हो गई अथवा किनारे खड़ी रही। सेना का हाथ हिंसकों की पीठ पर था । हिंसा की शैली से ही स्पष्ट है कि यह सुनियोजित थी । इसमें की तैयारी झलक रही थी । भीड़ में कहीं कोई विखराव नहीं था, संगठित स्वरूप में काम हो रहा था । भीड़ के समूह अपनी अपनी निश्चित दिशा में काम कर रहे थे । लगता था संचालन कोई एक केन्द्र है । एक समूह सत्ता पर टूटा और दूसरे ने हिन्दुओं को निशाना बनाया । शेख हसीना के पद और देश छोड़ने के बाद अंतरिम सरकार केलिये नाम के चयन में भी कोई विलंब न हुआ । मोहम्मद यूनुस का चयन हो गया । वे एक बड़े उद्योगपति हैं और अमेरिका में रहते हैं । उन्हें 2006 में नोबल पुरस्कार मिला था । सामान्यता मोहम्मद यूनुस अमेरिकन लाॅवी समर्थक माने जाते हैं। पर वे उन एनजीओ को भी फंडिंग करते हैं जिनपर लेफ्ट का प्रभाव माना जाता है । ऐसे कुछ संगठनों के सर्वेक्षणों में अक्सर भारत की निम्नता बताई जाती है । इस तरह मोहम्मद यूनुस के चयन से दोनों पक्ष साधे गये हैं। अमेरिकन लाॅवी भी तटस्थ रहेगी और लेफ्ट की धारा पर काम भी होगा ।

परिवर्तन की दिशा में अंतरिम सरकार का पहला चरण है । दूसरे चरण में सरकार खालिदा जिया या उनके बेटे तारिक के हाथ में हो सकती है । लेकिन ये सरकारें दिखावटी होंगी । संचालन शक्ति सेना के हाथ में होगी । जैसा पाकिस्तान में होता है । सेना और सरकार दोनों पर कट्टरपंथी और माओवादी प्रभावी होंगे । बंगलादेश में इन दोनों समूहों के अपने अपने छात्र और सामाजिक संगठन हैं। ताजा हिंसक आँदोलन में इन दोनों शक्तियों के बीच अद्भुत समन्वय रहा । यह भी माना जाता है कि बंगलादेश के कुछ छात्र और सामाजिक संगठनों तार पाकिस्तान की खुफिया ऐजेन्सी आईएसआई और चीनी गुप्तचर संस्था एम एस एम से जुड़े हैं। न केवल बंगलादेश अपितु भारत के सभी पड़ौसी देशों में ये दोनों संस्थाएँ मिलकर काम कर रहीं हैं । इसे नेपाल, श्रीलंका, मालदीप और म्यामांर में आईं नयी सत्ताओं के स्वरूप से समझा जा सकता है । अब इसी धारा से बंगलादेश जुड़ गया है ।

बंगलादेश के इस घटनाक्रम में सत्ता परिवर्तन तस्वीर का एक पहलू है । तस्वीर का दूसरा पहलू बंगलादेश में हिन्दुओं के दमन का है । आँदोलन तो आरक्षण विरोध केलिये था । यदि वह सत्ता परिवर्तन की दिशा में मुड़ भी गया तो हिन्दुओं को क्यों निशाना बनाया गया । शेख हसीना और उनकी पार्टी के लोगों पर उतने हमले नहीं हुये जितने हिन्दुओं पर हुये । बंगलादेश के 29 जिलों में हिन्दुओं को चुन चुनकर मारा गया । उनके घरों को लूटा गया, आग लगाई गई, मंदिरों पर हमले हुये और मूर्तियाँ तोड़ीं गईं। हिन्दुओं पर ये हमले सत्ता परिवर्तन के बाद भी नहीं रुके । अंतरिम सरकार के उभर आने के बाद भी बंगलादेश के गाँवों में हिन्दुओं पर हमले नहीं रुके । इस कट्टरपंथी भीड़ ने ऐसे स्थानों को भी निशाना बनाया जो बंगलादेश की पहचान रहे है उनका दोष इतना था कि वे मुसलमान नहीं थे । लेकिन पूरी तरह अपने देश केलिये समर्पित थे । ऐसा एक नाम गायक राहुल आनंद का है । उनके घर में पहले लूटपाट की गई। फिर लूट, तोड़ फोड़ करके आग लगा दी गई। यह घर 140 साल पुराना था । एक प्रकार से संगीत विधा का संग्रहालय जैसा था । इसे देखने केलिये देश विदेश के संगीत प्रेमी आते थे । 2023 में फ्रांस के राष्ट्रपति भी आये थे । इस आगजनी में 3000 म्यूजिकल इंस्ट्रूमेंट्स और सभी दुर्लभ कृतियाँ जलकर खाक हो गईं । अभी यह स्पष्ट नहीं हो रहा कि गायक राहुल आनंद अपने परिवार सहित कहीं गुप्त स्थान पर जाकर छुप गये या हमलावरों के हाथों मारे गये ।

सेना के प्रभावी होने के बात एक परिवर्तन आया । अब मीडिया की खबरों में हिन्दुओं की हत्याओं के आकड़े नहीं आ रहे । लेकिन हमले निरंतर हो रहे हैं। वे कब रुकेंगे यह कहा नही सकता । चूंकि पाकिस्तान का आकार ही नहीं बंगलादेश का स्वरूप ग्रहण करने के बाद भी बंगलादेश में हिन्दुओं की जनसंख्या निरंतर घट रही है । 1951 की जनगणना में 21 प्रतिशत हिन्दू थे जो अब घटकर 8 प्रतिशत रह गये ।

कथक धरोहर का सफल आयोजन

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शशिप्रभा तिवारी

कथक यात्रा-गुरु कृपा ही केवलम नृत्य समारोह का आयोजन दिल्ली के स्वामी विवेकानंद सभागार में आयोजित था। इस समारोह का आयोजन कथक धरोहर ने किया था। इस संस्था के संस्थापक कथक नर्तक सदानंद विश्वास हैं।

कथक यात्रा गुरुकृपा ही केवलम में युवा कलाकारों ने शिरकत किया। उनकी मोहक नृत्य और दमदार प्रदर्शन से यह एक बार फिर साबित हुआ कि युवा अपनी मेधा और ऊर्जा का सही दिशा में प्रयोग कर नई मिसाल कायम कर सकते हैं। यह भी अनोखी बात थी कि समारोह में ज्यादातर कलाकार किसी घराने या परिवार से नहीं थे। संयोगवश आयोजक सदानंद भी ऐसे ही हैं।

समारोह की पहली प्रस्तुति कथक नृत्यांगना श्रुति सिन्हा की शिष्याओं की थी। शिष्याओं ने गुरु वंदना-गुरु चरणन में शीश नवाऊं, रचना- बन बन ढूंढन जाऊं और तराने पर नृत्य पेश किया। तराने में शुद्ध नृत का अंश समाहित था।

दूसरी पेशकश कथक नृत्यांगना मानसी मेहता की थी। वह कथक नृत्यांगना गौरी दिवाकर की शिष्या हैं। उन्होंने रचना -छूम छनन छनन बाजत पैंजनियां पर नृत्य किया। उन्होंने अपने नृत्य में छंद राधा संग रमत राधा में राधा और निरतत निरत करत कृष्ण में कृष्ण का चित्रण सरस अंदाज में किया।

कथक नर्तक अभिषेक खींची के शिष्य-मंडली की प्रस्तुति आकर्षक थी। उनके नृत्य में गणेश वंदना और धमार ताल में निबद्ध शुद्ध नृत दमदार थी। टुकड़े, तिहाई, लयकारी को बखूबी पेश किया।

कथक नर्तक अभिषेक यादव ने शिव पर आधारित रचना में शंकर के रौद्र रूप का निरुपण किया। उन्होंने इसके लिए रचना शंकर अति प्रचंड का चयन किया था। कथक नृत्यांगना रीतिका ने गणेश वंदना पेश किया। स्वाती सिन्हा की शिष्या रूचिका ने शिव वंदना और तीन ताल में शुद्ध नृत पेश किया। उनके नृत्य में शिव परण, लयकारी और इक्कीस चक्करों का प्रयोग खास दिखा। कथक नर्तक अमन पांडे ने मोहक नृत्य पेश किया। उन्होंने शिव स्तुति पेश किया। इसमें शिव तांडव स्तोत्र के अंश, शिव अर्धांग उमा विराजे, ध्रुपद शिव शिव शंकर आदि देव को पिरोया गया।

कथक नृत्य युगल निशांत और वंदना गुप्ता की शिष्य मंडली ने विष्णु वंदना से नृत्य आरंभ किया। उन्होंने तीन ताल में शुद्ध नृत पेश किया।

(साभार)

जनजातियों का गौरवपूर्ण अतीत और उनके साथ हो रहे वैश्विक षड्यंत्र

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कृष्णमुरारी त्रिपाठी अटल

भारत और भारतीयता की पताका फहराने वाला जनजातीय समाज अपनी वैविध्यपूर्ण विरासत के साथ राष्ट्र के ‘स्व’ की छटा बिखेर रहा है। किन्तु जनजातीय समाज का निवास स्थान वनांचलों और ग्राम्य क्षेत्रों में होने के चलते उनके समक्ष कई तरह के संकट आ रहे हैं। उनमें सबसे घातक संकट ईसाई मिशनरियों के द्वारा कराया जाने वाला ‘कन्वर्जन’ है। मिशनरियों के कन्वर्जन का यह षड्यंत्र परतन्त्र भारत में अंग्रेजों के बर्बर शासन के समय से चला आ रहा है। ईसाई मिशनरियां वर्षों से प्रलोभन, सेवा और सहायता के हथियारों से कन्वर्जन कराने पर जुटी हुई हैं।

इसके लिए अन्तरराष्ट्रीय स्तर तक के षड्यंत्रों का एक दीर्घकालीन एजेंडा सामने दिखता है। कन्वर्जन के उसी एजेंडे को बढ़ाने के लिए गद्दार कम्युनिस्ट आतंकियों से लेकर , माओवाद, अर्बन और बौद्धिक नक्सलियों की बड़ी लंबी फौज सक्रिय है। जो ऐनकेन प्रकारेण जनजातीय समाज को हिन्दू समाज अलग पहचान बताने और अलगाववाद की विषबेल रोपने में जुटे हुए हैं। इसके लिए मानवाधिकार से लेकर देश के संविधान और वैश्विक संधियों की आड़ लेकर अपने विभाजनकारी षड्यंत्रों को पूरा करने में टुकड़े-टुकड़े गैंग जुटी हुई है। ठीक ऐसा ही प्रयोजन 9 अगस्त को व्यापक रूप से रचा जाता है। जब जनजातीय समाज को कभी ‘मूलनिवासी’ तो कभी उनके भ्रामक, कपोल कल्पित अधिकार हनन की कहानियों से बरगलाने के कुकृत्य किए जाते हैं। इन सबके पीछे स्पष्ट और एक एजेंडा जनजातीय समाज की हिन्दू पहचान को नष्ट करना। उन्हें अलग बताकर पृथकता और अलगाववाद के बीच लाना। ताकि भविष्य में जनजातीय समाज का कन्वर्जन कराने में भारत विभाजनकारी शक्तियां सफल हो सकें।

कन्वर्जन और अलगाववाद, माओवाद के इस षड्यंत्र में वैश्विक यूरोपीय शक्तियाँ पर्दे के पीछे से काम कर रही हैं। इसी कड़ी में 9 अगस्त को’ वर्ल्ड इण्डिजिनियस डे’ को एक हथियार के रूप में भारत विभाजनकारी शक्तियां प्रयोग करती हैं। इस सन्दर्भ में विश्व मजदूर संगठन (आईएलओ) के ‘इण्डिजिनियस पीपुल’ शब्द को ‘मूलनिवासी’ शब्द के रूप में प्रस्तुत कर जनजातीय समाज को पृथक बताने के कुकृत्य किए जाते हैं। जबकि वास्तविकता यह है कि विभिन्न राष्ट्रों के सम्बन्ध में ‘इण्डिजिनियस पीपुल’ का अर्थ और उसे परिभाषित करना अत्यन्त कठिन है। यहां भारत के लिए मूलनिवासी और ‘इण्डिजिनियस पीपुल’ को परिभाषित करना और ही कठिन है। क्योंकि भारतीय इतिहास, आधुनिक इतिहास की तथाकथित थ्योरी भिन्न है। भारत की अपनी विविधतापूर्ण – एकात्म विरासत है जो स्थान-स्थान में भिन्न-भिन्न है। भारत के आधुनिक इतिहास में वर्णित आक्रांताओं के अलावा भारत भूमि में निवास करने वाला और राष्ट्र की पूजा करने वाला प्रत्येक व्यक्ति यहाँ का ‘मूलनिवासी’ है। क्योंकि भारतीय चेतना में जो भारत को माता कहकर मानता और पूजता है । प्रकृति का उपासक है वही भारत का मूलनिवासी है‌। अब ऐसे में मूलनिवासी या अन्य किसी भी शाब्दिक भ्रमजाल के द्वारा भारत को परिभाषित या पृथक्करण करना तो राष्ट्र की संस्कृति में ही नहीं है।

किन्तु विश्व मजदूर संगठन के गठन के उपरांत इसी ‘इण्डिजिनियस पीपुल’ शब्द के भ्रमजाल में 13 सितम्बर 2007 को यूएन द्वारा विश्व भर के ‘ट्राईबल’ कम्युनिटी के अधिकारों के लिए घोषणा पत्र जारी किया गया। प्रतिवर्ष 9 अगस्त को ‘वर्ल्ड इंडिजिनियस डे’ के रुप में मनाया जाने लगा जिसकी घोषणा दिसंबर 1994 में की गई थी। भारत ने भी राष्ट्र की संवैधानिक व्यवस्था के अनुसार सम्प्रभुता, अस्मिता और अखण्डता के आधार पर इस पर अपनी सहमति दी । इसके साथ भारत ने स्पष्ट किया था कि इसका पालन भारतीय संविधान के अनुरूप ही किया जावेगा।

इसी सन्दर्भ में सन् 2006 में इण्टरनेशनल लॉ एसोशिएशन (टोरंटो जापान में आयोजित ट्राईबल अधिकारों के अधिवेशन में भारत के सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश वाई.के.सबरवाल ने जनजातीय एवं गैर जनजातीय समाज में समानता के विभिन्न बिन्दुओं को स्पष्ट करते हुए अपना आधिकारिक पक्ष रखा था । उन्होंने कहा था कि — “भारत के आधिकारिक मत के अनुसार भारत में रहने वाले सभी लोग ‘मूलनिवासी’ अथवा देशज हैं। इन सभी में से कुछ समुदायों को ‘अनूसूचित’ किया गया है जिन्हें सामाजिक,आर्थिक ,न्यायिक व राजनैतिक समानता के नाते विशेष उपबन्ध दिए गए हैं।”

इसके साथ ही जब विश्व कानून संगठन द्वारा स्पष्टता को लेकर मांग की गई। प्रश्न पूछा गया कि – क्या एसटी समाज अथवा जनजातीय समाज ही केवल भारत का ‘ट्राइबल’/मूलनिवासी/देशज समाज है? इस पर न्यायमूर्ति सबरवाल ने साफ इंकार किया । और उन्होंने अपने विभिन्न प्रश्नात्मक तथ्य रखे। साथ ही विश्व कानून संगठन के समक्ष भारत के सम्बन्ध में पक्ष रखते हुए कहा कि – ‘मूलनिवासी’ या ‘इण्डिजिनियस पीपुल’ को परिभाषित या पृथक से विवेचन का भारत कोई इत्तेफाक नहीं रखता।

तत्पश्चात भारत के जनजातीय समाज के हितों के संरक्षण लिए यूएन द्वारा जारी घोषणा पत्र में भारतीय संविधान के अनुसार ही सहमति जताते हुए न्यायमूर्ति अजय मल्होत्रा ने 13 सितम्बर 2007 को मतदान किया था।

ये रही तथ्यों की बात। किन्तु इन सभी बातों के इतर आज जिस जनजातीय समाज को सनातन हिन्दू धर्म से अलग बतलाने के प्रयास एवं षड्यंत्र हो रहे हैं । क्या वह जनजातीय समाज हिन्दू धर्म से कभी अलग रहा है ? इस ओर विशेष ध्यानाकर्षण की आवश्यकता है। यह सर्वज्ञात तथ्य है कि भारत के इतिहास में जनजातीय समाज का योगदान कभी भी किसी से कम नहीं रहा है। जनजातीय समाज में समय-समय पर ऐसे महापुरुष हुए हैं, जिन्होंने अपनी सनातन संस्कृति पर हो रहे कुठाराघातों /कन्वर्जन के विरुद्ध संगठित होकर पुरजोर विरोध किया। मिशनरियों और लुटेरों के आतंक के विरुद्ध लड़ाई लड़ी और भारत के ‘स्वत्व’ की रक्षा करते हुए अपने शौर्य से परिचित करवाया है।

महाराणा प्रताप के वन निर्वासन के दौरान उनकी सेना में सभी प्रकार का सहयोग करने वाले भील सरदार पूंजा रहे‌ ‌। इन्हें बाद में महाराणा प्रताप ने ‘राणा’ की उपाधि दी। उनके नेतृत्व में हल्दीघाटी के युध्द में मुगलों को परास्त करने में भील समाज के योद्धाओं की बड़ी भूमिका रही है। उनके उसी पराक्रम की निशानी आज भी ‘मेवाड़ और मेयो कॉलेज’ के चिन्ह में अंकित है।

इसी तरह टंट्या मामा के रूप में ख्यातिलब्ध टंट्या भील जिन्हें जनजातीय समाज देवतुल्य पूजता है। उन्होंने मराठों के साथ और स्वतन्त्र तौर पर अंग्रेजों के विरुद्ध आर-पार की लड़ाई लड़ी। फिर अंग्रेजी शासन ने उन्हें छल से पकड़कर फांसी दे दी। वहीं जनजातीय समाज के गुलाब महाराज संत के रुप में विख्यात हुए जिन्होंने जनजातीय समाज को धर्मनिष्ठा के लिए आह्वान दिया। जनजातीय समाज की शौर्य गाथा में कालीबाई और रानी दुर्गावती जैसी वीरांगनाओं का अपना गौरवपूर्ण अतीत रहा। इनके पराक्रम और बलिदान ने नारी शक्ति के महानतम् त्याग और शौर्य की गूंज से सम्पूर्ण राष्ट्र में चेतना का सूत्रपात किया। स्वर्णिम अध्याय रचा।

उसी बलिदानी परंपरा में सन् 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के योद्धा भीमा नायक ने अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ते हुए अपने प्राणों की आहुति दी। उन्होंने राष्ट्रयज्ञ के लिए अपना जीवन समर्पित कर यह सिखलाया कि राष्ट्र की स्वतंत्रता ही जीवन का ध्येय होना चाहिए। इसी क्रम में जनजातीय समाज के गोविन्दगुरू और ठक्कर बापा के समाज सुधार के कार्यों , उनकी सनातन निष्ठा से भला कौन परिचित नहीं होगा?

जनजातीय समाज के गौरव भगवान बिरसा मुंडा ने जो सनातन हिन्दू धर्म के प्रसार एवं ईसाई धर्मान्तरण के विरुद्ध जो रणभेरी फूँकी थी। भला उसे कौन विस्मृत कर सकता है? भगवान बिरसा मुंडा ने जनजातीय समाज के धर्मान्तरित बन्धुओं की सनातन हिन्दू धर्म की वैष्णव शाखा में वापसी कराई । इसके लिए उन्होंने ‘उलगुलान’ के बिगुल के रुप में जिस क्रांति की ज्वाला को प्रज्जवलित किया था । वही तो सनातन हिन्दू समाज की सांस्कृतिक विरासत है। जनजातीय समाज को जब हिन्दू समाज से अलग बताने के प्रयास किए जाते हैं। उस समय बिरसा मुंडा दीवार बनकर खड़े होते हैं। यदि जनजातीय समाज हिन्दू धर्म से अलग होता तो क्या भगवान बिरसा मुंडा धार्मिक सुधार आंदोलन चलाते? क्या वे धार्मिक पवित्रता,तप, जनेऊ धारण करने ,शाकाहारी बनने ,मद्य (शराब) त्याग के नियमों को जनजातीय समाज में लागू करवाते?

भगवान बिरसा मुंडा ने जो धार्मिक चेतना जागृत की थी। उसमें उनके अनुयायी -ब्रम्हा,विष्णु, रुद्र,मातृदेवी, दुर्गा, काली ,सीता के स्वामी, गोविंद, तुलसीदास और सगुण तथा निर्गुण उपासना पध्दति को मानते थे। यही तो सनातन हिन्दू संस्कृति का मूल स्वरूप है जिसे समूचा हिन्दू समाज बड़ी श्रध्दा एवं आदरभाव के साथ पूजता है। ऐसे में सवाल यही है कि – यदि जनजातीय समाज हिन्दू धर्म का अभिन्न अंग नहीं है. तो क्या भगवान बिरसा मुंडा द्वारा चलाई गई परिपाटी झूठ है?

सन् 1929 में गोंड जनजाति के लोगों के मध्य ‘भाऊसिंह राजनेगी’ के सुधार आन्दोलनों भी अपने आप में मील के पत्थर हैं। उन्होंने
यह स्थापित किया था कि उनके पूज्य ‘बाड़ा देव’ और कोई नहीं बल्कि शिव के समरुप ही हैं।

भाऊसिंह राजनेगी ने कट्टर हिन्दू धार्मिक पवित्रता का प्रचार करते हुए माँस-मदिरा त्याग करने का अह्वान किया था।इसी प्रकार 19 वीं और 20वीं शताब्दी में छोटा नागपुर के आराओं में ‘भगतों’ का सनातन संस्कृति की रक्षा के लिए उदय हुआ ‌। इसके लिए जात्रा और बलराम भगत का योगदान इतिहास के चिरस्मरणीय पन्नों में दर्ज है। उन्होंने जनजातीय समाज के बीच गौरक्षा, धर्मान्तरण का विरोध, मांस-मदिरा त्याग करने का सन्देश दिया। समाज को जागृत और सशक्त किया था।

वहीं सन् 1980 में बोरोबेरा के बंगम मांझी ने भी जनजातीय समाज के लिए मांस-मद्य त्याग करने और खादी पहनने का सन्देश दिया था। उनके इस पुनीत कार्य के गवाह सरदार वल्लभ भाई पटेल और देश के प्रथम राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद बने। ये दोनों महापुरुष बंगम मांझी के कार्यक्रम में पहुंचे थे‌। वहां सभा की थी। वहां लगभग 210 की संख्या में संथालों का उपनयन संस्कार भी हुआ था। उपनयन संस्कार तो सनातन हिन्दू धर्म के सोलह संस्कारों में से ही एक है ,तो जनजातीय समाज हिन्दू धर्म से अलग कैसे हो सकता? इसी प्रकार अंग्रेजों ने मिदनापुर (बंगाल) के लोधाओं को ‘अपराधी जनजाति’ घोषित कर दिया था। यह वही लोधा थे जो वैष्णव उपासना पध्दति में विश्वास रखते थे जो कि राजेंद्रनाथदास ब्रम्ह के अनुयायी थे। इसी प्रकार असम की (सिन्तेंग,लुशई,ग्रेरो,कुकी) जनजातियों ने अंग्रेजों का विरोध किया था जो कि वैष्णव संत शंकर देव के अनुयायी थे।

जनजातीय समाज में ऐसे अनेकानेक महापुरुष ,समाज सुधारक , क्रांतिकारी हुए जिन्होंने सनातन हिन्दू संस्कृति,राष्ट्र की रक्षा के लिए प्राणोत्सर्ग कर दिया । फिर अपने व्यक्तित्व और कृतित्व से भारतीय मानस के ह्रदयतल में बस गए‌‌ ।ऐसे में कम्युनिस्टों /ईसाई मिशनरियों और बौध्दिक नक्सलियों के सारे प्रयोजन सिर्फ़ और सिर्फ़ जनजातीय गौरव-बोध समाप्त करने वाले सिद्ध होते हैं। इसके लिए वे ‘वर्ल्ड इंडिजिनियस डे’ के सहारे जनजातीय समाज को उनके पुरखों की संस्कृति से अलग करने का कुत्सित कृत्य करते हैं। ताकि वे जनजातीय समाज की अस्मिता ,गौरवबोध को खत्म कर कन्वर्जन के सहारे भारत की अखण्डता को खंडित कर सकें। इन सभी तथ्यों,उदाहरणों और जनजातीय समाज की गौरवपूर्ण शौर्यगाथा से तो यह एकदम से स्पष्ट सिध्द होता है कि टुकड़े टुकड़े गैंग का उद्देश्य विभाजन, हिंसा और उत्पात है। किन्तु इन्हें यह सदैव स्मरण रखना चाहिए कि जनजातीय समाज जिस क्षण इन षड्यंत्रकारियों की सच्चाई से अवगत होगा। उस क्षण फिर कोई बिरसा मुंडा ,कालीबाई, दुर्गावती,राणा पूंजा,टंट्या भील,भाऊसिंह राजनेगी आदि आएँगे और षड्यंत्रकारियों का संहार करेंगे!!

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