UAE में स्थापित किया जाएगा ‘भारत पार्क’

image-189.png

पीयूष गोयल ने कहा कि संयुक्त अरब अमीरात में भारतीय सामानों के लिए एक शोरूम और गोदाम स्थापित किए जाएंगे। सिंथेटिक और रेयॉन टेक्सटाइल एक्सपोर्ट प्रमोशन काउंसिल द्वारा आयोजित कार्यक्रम के दौरान उन्होंने कहा कि नियोजित भारत पार्क दुनिया के अन्य देशों को भारतीय सामान खरीदने की सुविधा प्रदान करेगा।

उन्होंने आगे जोड़ते हुए कहा, जापान, ऑस्ट्रेलिया, यूएई और दक्षिण कोरिया के साथ मुक्त व्यापार समझौतों पर चिंता व्यक्त करते हुए कहा कि भारत में लाभों का उपयोग बेहद कम है। भारतीय मानक ब्यूरो देशभर में 21 परीक्षण प्रयोगशालाएं करेगा स्थापित

इसके अलावा उन्होंने यह भी कहा कि भारतीय मानक ब्यूरो देशभर में 21 परीक्षण प्रयोगशालाएं स्थापित करने के लिए 40 करोड़ रुपए खर्च करेगा।

बांग्लादेश में शेख हसीना की आवामी लीग पार्टी ने प्राप्त किया बहुमत

GDSBCtyaQAAjmwV.jpg

बांग्‍लादेश में राष्‍ट्रीय चुनाव में शेख हसीना के नेतृत्‍व वाली अवामी लीग पार्टी ने बहुमत प्राप्‍त कर लिया है। बांग्‍लादेश की जातीय संसद की 299 सीटों के लिए हुए चुनाव की मतगणना में अब तक 224 सीटों के परिणाम मिल चुके हैं। अवामी लीग ने 165 सीटों पर जीत हासिल की है, जबकि जातीय पार्टी के नौ उम्‍मीदवार जीते हैं। 49 निर्दलीय और अन्‍य पार्टियों के एक उम्‍मीदवार को जीत हासिल हुई है। बाकी सीटों की मतगणना जारी है और आज दोपहर तक इनका परिणाम मिल जाएगा।

इस शानदार विजय के साथ मौजूदा प्रधानमंत्री और अवामी लीग की अध्‍यक्ष लगातार चौथी बार सरकार बनाएंगी और पांचवीं बार प्रधानमंत्री बनेंगी। उन्‍होंने गोपालगंज-तीन सीट पर बडे अंतर से जीत दर्ज की। हसीना ने पार्टी कार्यकर्ताओं को निर्देश दिया है कि चुनाव परिणामों की घोषणा के बाद जीत का कोई जलूस न निकाला जाए।

तीन सौ सीटों में से 299 के लिए कल मतदान हुआ। बांग्‍लादेश के चुनाव आयोग के अनुसार संसदीय चुनाव में लगभग चालीस प्रतिशत मतदान हुआ। प्रमुख विपक्षी दल बांग्‍लादेश नेशनलिस्‍ट पार्टी- बी एन पी और उसके सहयोगियों ने चुनाव का बहिष्‍कार किया। इन दलों का आरोप था कि शेख हसीना की सरकार में स्‍वतंत्र और निष्‍पक्ष चुनाव संभव नहीं हैं।

राष्ट्रवादी मुस्लिम छात्र की कहानी है रंग

IMG-20231229-WA0026.jpg


समाज को सिर्फ भाईचारे से ही बचाया जा सकता है। सामाजिक सौहार्द न हो तो हमारी सोसाइटी तार—तार हो जायेगी। उसी कहानी को ताना-बाना में रखते हुए, शॉर्ट फिल्म ‘रंग’ एक सच्ची सीख देती है।

निर्देशक और लेखक ने परिवेश उस समय का रखा है जब मोबाइल युग नहीं था। 90 के दशक में जब लैंड लाइन पाने के लिए भी महीनों टेलीफोन एक्सचेंज के चक्कर लगाने पड़ते थे। उसी दौर की कहानी है रंग।

कहानी है शुरू होती है, एक प्रखंड के अंदर हिंदू मुस्लिम के बीच हुए दंगे से। पहले दंगा हुआ, फिर कर्फ्यू लगा। कुछ दिनो तक कर्फ्यू रहा, फिर उसे हटाया गया। ऐसे माहौल में एक मुस्लिम गांव के एक बच्चे की जिद है स्कूल जाने की। पिता अशरफ डरा हुआ है कि ऐसे माहौल में कैसे जाऊं?

बेटे की जिद के आगे वह मान जाता है और अगले दिन बेटे को लेकर स्कूल के लिये सुबह निकलता है। रास्ते में हिंदुओं का गांव आता है और मुस्लिमों का गांव आता है तो वो आत्मसुरक्षा के लिये अलग अलग रंग के कागज के झंडे का इस्तेमाल करता है। हिन्दूओं के लिए गुलाबी और मुसलमानों के लिए हरा।

जब स्कूल पहुचता है तो अशरफ परेशान है कि जिस मकसद के लिये इतनी कठीनाई उठाकर स्कूल तक आए। वो तो पूरा ही नहीं होगा। दरअसल वे झंडा लाना भूल गया था। फिर पिता गुलाबी और हरे रंग के कागज की मदद से झंडा बनाकर बेटे को देता है, जब झंडा वाला दृश्य सामने आता है फिर दर्शक जान पाते हैं कि वास्तव में वह बच्चा 26 जनवरी के दिन स्कूल की परेड में शामिल होना चाहता था। हाथों में तिरंगा लेकर जन, गन, मन… गुनगुना चाहता था।

– निर्देशक सुनील पाल की शॉर्ट फिल्म रंग एक पिता और बेटे के जरिए इमोशन के ताने बाने के साथ बुनी हुई कहानी है, जो कम समय में आपको उस दुनिया में ले जाती है— जहां से बाहर निकल पाना आसान नहीं।

14 मिनट की फिल्म आज भगवा और हरे के बीच बंट चुके सामाजिक माहौल में उन्हीं दो रंगो को एक साथ लाकर तिरंगे में ढाल देने की बात करती है। ऐसी कहानियां आज के समय की जरूरत है, जिसके जरिए समाज में सौहार्द और एकता का अलख जगाकर दुनिया को और खूबसूरत बनाया जा सके।

हिंदू मुस्लिम दंगे के बीच एक बेटे और उसके पिता की घर से बाहर निकलकर स्कूल तक जाने की जद्दोजहद कहानी का मूल भाव है। निर्देशक सुनील पाल का काम वाकई काबिले तारीफ है।

फिल्म में पिता की भूमिका में अभिनेता मानवेंद्र त्रिपाठी ने किरदार की आत्मा को बड़ी खूबसूरती से पर्दे पर उकेर दिया है। भावनात्मक दृश्यों में चेहरे का भाव संप्रेषण मानवेंद्र के संजीदा अभिनय का प्रमाण देता है। बेटे की भूमिका में बाल कलाकार कामरान ने भी कमाल किया है। मां का किरदार अनुरेखा और हैदर की भूमिका रानू ने निभाई है।

फिल्म का एक और पक्ष जो तारीफ का हकदार है वह है इसका खूबसूरत सिनेमैटोग्राफी। डीओपी पीपीसी चक्रवर्ती ने कैमरे से शाम और सुबह के दृश्यों को अच्छा बनाया है। शॉट फिल्म की पटकथा जितेन्द्र नाथ जीतू की है।

नदी सिंदूरी, शहर और शहरी सभ्यता से दूर एक गोंड बहुल गाँव की कहानी है, जिसके अंदर कई सारी कहानियाँ हैं

3.jpeg

शिरीष खरे

‘नदी सिंदूरी’ शहर और शहरी सभ्यता से दूर एक गोंड बहुल गाँव की कहानी है, जिसके अंदर कई सारी कहानियाँ हैं। सिंदूरी मध्य-भारत की बड़ी नदी नर्मदा की सहायक नदी है, जिसके किनारे मदनपुर नाम का एक छोटा-सा गाँव बसा है। शहर भोपाल से करीब 200 किलोमीटर दूर मदनपुर सन् 1842 और 1857 के गोंड राजा ढेलन शाह के विद्रोह के कारण इतिहास के पन्नों में दर्ज है। लेकिन, ‘नदी सिंदूरी’ की कहानी अब दर्ज हुई है। ये संस्मरण, ये कथाएँ सिंदूरी के बीच फेंके गए पत्थर के कारण नदी के शांत जल की तरंगों जैसी हैं।

भोगवाद के शहरी नजरिए के चलते छोटी नदियों के किनारे की गाँव-संस्कृति उजाड़ दी गई है तब यह कहानी उस देहाती दुनिया में ले जाती है जहाँ नदी को देख रोया, गाया या हँसा जा सकता है, जहाँ नदी सिर्फ संसाधन नहीं है, न सिर्फ गाँव का भूगोल तय करती है, बल्कि एक समुदाय रचती है, जिसमें लोकरीति, लोकनीति, किस्से और कहावतों का ताना-बाना है, जो अब तार-तार हो रहा है। दरअसल, उदारीकरण के बाद गाँवों ने बड़े पैमाने पर पलायन का दंश झेला है और कई गाँवों की शक्ल बदल चुकी है तब बचपन से किशोरावस्था की एक स्मृति-यात्रा उस दौर से गुजरती है।

इस यात्रा में कल्लो नाम की एक गाय से जुड़ा मर्मस्पर्शी संस्मरण है तो आल्हा, राई, बंबुलिया जैसे लोक-गीत और रामलीला का स्थानीय संस्करण भी हैं। रामलीला के इसी स्थानीय संस्करण से एक ऐसी आह निकलती है जिसमें समान लिंग के प्रति आकर्षण, प्रेम और प्रेम-विरोधी मान्यताओं के प्रति विद्रोह है। नदी सिंदूरी में लोक-कलाकार, नर्तकी, चोर, ठग, साधु हैं, प्रगतिशील पुजारी, आदर्शवादी मास्साब, दलित विद्रोही युवक है, उजड्ड बस कंडक्टर, सैलून वाला, टेलर, सामंती, दलित महिला बस की मालकिन, पिछड़े वर्ग का नेता, नदी की बाढ़ में बहा गोताखोर और उसकी पत्नी और दर्जनों पात्र हैं, राजनीति, कस्बे आने-जाने वाली बसों के किस्से, कस्बाई आकर्षण है, कस्बाई दबंगई का विरोध और जातीय विरोधाभास भी है।

गाँव की महिलाएँ और कस्बे की एक लड़की है, चोरी-छिपे और सतह तक आईं गाँव की प्रेम-कहानियाँ हैं, साथ ही कस्बाई लड़की के लिए प्रेम से जुड़ी एक स्मृति है। कुल मिलाकर, सभी कहानियों में लड़ाइयों के समानांतर प्रेम एक स्थायी तत्व है, प्रेम नाम का यही स्थायी तत्व आखिर में सारी कहानियों को मिलाता है।
मदनपुर गाँव काफी हद तक उत्तर-मध्य हिन्दी-पट्टी के कई दूसरे भारतीय गाँवों की तरह है, लेकिन कहीं-कहीं उनसे भिन्न भी। एक हजार की आबादी का इतना छोटा गाँव जहाँ की दुनिया मशीनों से दूर ऐसी तासीर लिए हुए है, जिसमें जीवंतता और विविधता है। विद्रूपता और मानवीयता दोनों हैं। जातीय ताने-बाने में जर्जर हो रही पारंपरिक जड़ता है तो कुछ ऐसी ध्वनियाँ भी हैं जो लोगों को आपस में एक-दूसरे से बाँधती हैं।

अक्सर इतिहास और साहित्य में बड़ी नदियों और उन नदियों के तट पर विकसित नगरीय सभ्यता पर तो खूब चर्चा करते हैं, पर कहीं-न-कहीं किसी छोटी नदी और उसकी गोद में किसी गाँव की संस्कृति हाशिये पर ही छूट जाती है। ऐसे में ‘नदी सिंदूरी’ की गोद में आकार लेती मदनपुर जैसे एक गाँव की उपस्थिति परिधि में है।

भारत में गाँवों का दायरा बहुत व्यापक और विविधता लिए हुए है। सारे गाँव समान होते हुए भी एक-दूसरे से भिन्न हैं। इसलिए जब मैं साहित्य में ग्रामीण पृष्ठभूमि से जुड़ा कुछ पढ़ता था तो यह लगता था कि एक गाँव का पूरा अंचल छूटा हुआ है। जब कभी मौका मिलेगा तो इस अंचल को साहित्य में जरूर दर्ज कराना चाहूँगा। इसी सोच से ये तेरह कहानियाँ निकली हैं।

‘राजपाल एंड संज़’ से प्रकाशित इस किताब की ये कहानियाँ वर्ष 1993-94 से शुरु होती हैं, जब गाँव के महज दो-एक मकानों में ही हिन्दी के अखबार आते थे, दोपहर बारह की भोपाल से आने वाली प्राइवेट खटारा बस से, जबकि इन कहानियों को लिखा गया है वर्ष 2022 में यानी व्हाट्सएप, ट्विटर, फेसबुक, इंस्टाग्राम जैसे सोशल मीडिया के दौर में।

नब्बे के दशक में राजीव गांधी की हत्या, पिछड़ा वर्ग से जुड़े मुद्दों और गठबंधन की राजनीति के उदय से लेकर अयोध्या में विवादित ढांचे का विध्वंस तथा साम्प्रदायिक दंगे हुए। इसी दशक में नवीन आर्थिक नीतियों के जरिए उदारीकरण को बढ़ावा दिया गया। ऐसे में ‘नदी सिंदूरी’ अतीत से संवाद करके उसके छूटे सिरे पर खुद को जोड़ती है, जिस पर एक नया बाजार आकार ले चुका है और विकास ने कई छोटी नदियों को मार डाला है।

इन कहानियों को लिखने का विचार कोरोना महामारी के पहले लॉकडाउन के दौरान आया, जब लाखों की संख्या में उत्तर भारतीय प्रवासी मजदूर मुंबई और दिल्ली जैसे महानगरों से पैदल ही अपने गाँवों की ओर चल पड़े थे। घर वापसी की पीड़ादायक यात्राओं से जुड़ी मार्मिक तस्वीरों ने हर संवेदनशील व्यक्ति को भीतर तक झकझोर कर रख दिया था। कई किसी तरह गाँव की सीमा तक पहुँचे भी थे तो उन्हें अछूत जान कर बाहर रोके रखा गया। कई तो रेल की पटरियों पर ही कट कर मर गए थे।

नदी सिंदूरी: अमेज़न पर, लिंक- https://amzn.to/3kSBCUw

scroll to top